रविवार, 31 अक्टूबर 2010

भारतीय काव्य शास्त्र - व्यंजना

आचार्य परशुराम राय

वाचक और लक्ष्यक शब्दों और अर्थों पर चर्चा के बाद आज के इस अंक में व्यंजक शब्द और उसके अर्थ (व्यंग्यार्थ) पर विचार किया जायेगा। शब्द की व्यंजना शक्ति से व्यंग्यार्थ का बोध होता।

व्यंजना के दो भेद किए गये हैं - शाब्दी और आर्थी। शाब्दी व्यंजना के दो भेद हैं - अभिधामूला व्यंजना और लक्षणामूला व्यंजना।

अभिधामूला व्यंजना

अभिधामूला व्यंजना का लक्षण आचार्य मम्मट ने निम्नलिखित कारिका में किया है:-

अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियंत्रिते।

संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृद् व्यापृतिरंञ्जनम्॥

(काव्य प्रकाश अध्याय -2 कारिका-19)

अर्थात् अनेक अर्थ का बोध कराने वाले शब्द का एक अर्थ में संयोग आदि के द्वारा नियंत्रित हो जाने पर भी उससे जो अन्य कार्य का प्रकाश होता है या प्रतीति होती है उस शब्द-व्यापार को अभिधामूला व्यंजना कहते हैं।

यहाँ अपने विषय से थोड़ा हटकर अनेकार्थी शब्द के एक अर्थ में नियंत्रित करने वाले कारकों पर विचार करते हैं। अनेकार्थी शब्दों को एक अर्थ में नियंत्रित करने के लिए भर्तृहरि द्वारा प्रणीत 'वाक्यपदीय' में 14 साधन या मार्ग बताए गए हैं।

संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोधिता, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द की सन्निधि, सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग आदि रूप) और स्वर।

संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता।

अर्थ: प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य सन्निधि:।।

सामर्थ्यमौचिती देश: कालो व्यक्ति: स्वरोदय।

शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतव:।।

संयोग और विप्रयोग द्वारा अर्थ नियंत्रण:-

जिस प्रकार 'संशखचक्र हरि' के शंख और चक्र के संयोग से 'हरि' शब्द का अर्थ 'विष्णु' के अर्थ में नियंत्रित होता है। वैसे ही 'अशंखचक्र हरि' में शंख और चक्र के विप्रयोग से भी 'हरि' शब्द का अर्थ भगवान 'विष्णु' के ही अर्थ में नियंत्रित होता है। जबकि 'हरि' शब्द यम, अनिल, इंद्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, सर्प, रश्मि, घोड़ा, तोता, बन्दर और मेढक के लिए प्रयोग होता है।

साहचर्य और विरोध द्वारा अर्थ नियमन:-

'राम' शब्द के कई अर्थ हैं - बलराम, परशुराम, रघुनंदन, मनोज्ञ आदि। किन्तु 'राम लक्ष्मण' कहने से लक्ष्मण के साहचर्य के कारण दशरथ पुत्र 'राम' का बोध होता है और 'राम-अर्जुन' में कार्तवीर्य अर्जुन के विरोधी होने के कारण 'राम' का यहाँ अर्थ 'परशुराम' होगा।

'अर्थ' और 'प्रकरण' से अर्थ नियंत्रण:-

'स्थाणु शब्द के कई अर्थ हैं, यथा - वृक्ष का ठूँठ, स्थिर खड़ा खूँटा, शिव आदि। लेकिन यदि कहा जाये कि 'भवसागर पार करने के लिए स्थाणु का भजन करो'। यहाँ 'स्थाणु' शब्द का अर्थ 'शिव' में निहित होगा। यहाँ अर्थ के कारण नियंत्रण माना जाएगा।

वैसे ही 'देव' शब्द के कई अर्थ हैं। किन्तु जब हम किसी सम्मानित व्यक्ति के लिए किसी संदर्भ में कहें कि 'देव तो सब जानते हैं' अर्थात् आपको तो सब कुछ पता है। यहाँ 'देव' शब्द प्रकरण के कारण में 'आप' अर्थ देता है।

'लिड़्ग द्वारा अर्थ नियमन:- लिंग शब्द के अनेक अर्थ हैं। इस संदर्भ में लिंग यों परिभाषित किया गया है:- अनेक अर्थों में से किसी एक के साथ रहने वाले और साक्षात शब्द से बोधक धर्म को 'लिंग' कहते हैं जैसे:- 'पतंग की प्रभा'। यहाँ 'प्रभा' धर्म सूर्य का है। अतएव 'पतंग' का यहाँ अर्थ 'सूर्य' होगा, पक्षी, कीट आदि नहीं।

'अन्य शब्द-सन्निधि' द्वारा अर्थ नियमन:- जहाँ किसी एक ही अर्थ के साथ रहने वाले शब्द के सामीप्य के कारण अनेकार्थक शब्द एक अर्थ में नियंत्रित हो जाता है। जैसे - देव पुरारि। पुरारि शब्द के कारण अनेकार्थक 'देव' शब्द 'शिव' के अर्थ में नियंत्रित होता है। अथवा केवल 'पुरारि' - पुर + अरि। यहाँ 'पुर' शब्द के देह, नगर आदि अनेक अर्थ होते हैं। लेकिन 'अरि' शब्द की सन्निधि के कारण 'पुर' - त्रिपुर असुर 'शिव' अर्थ में निंयत्रित होता है।

'सामर्थ्य' द्वारा एक अर्थ में नियंत्रण:- 'मधु' शब्द के दैत्य विशेष, वसन्त, मद्य आदि कई अर्थ हैं। लेकिन यदि कहा जाये कि 'मधु ने कोयल को पागल बना दिया है', तो यहाँ मधु का अर्थ वसन्त होगा। क्योंकि वसन्त में ही कोयल को मदमत्त करने की सामर्थ्य है।

'औचित्य' द्वारा अर्थ नियंत्रित करना:- इसके लिए संस्कृत की एक पहेली लेते हैं:-

युधिष्ठिरस्य या कन्या नकुलेन विवाहिता।

माता सहदेवस्य सा कन्या वरदायिनी।।

अर्थात् जो युधिष्ठिर की कन्या है, नकुल के साथ व्याही गयी है और सहदेव की माँ है, वह कन्या अर्थात् माता पार्वती वर देने वाली है।

यहाँ 'औचित्य' के कारण 'युधिष्ठिर' का अर्थ 'पर्वतराज - हिमालय', 'नकुल' का अर्थ शिव और 'सहदेव' का अर्थ 'कार्तिकेय' है। ये अर्थ औचित्य से आए हैं।

'देश' द्वारा अर्थ नियमन:- चन्द्र शब्द के कई अर्थ हैं, जैसे:- कपूर, चन्द्रमा (शशि), मोर के पंख पर ऑंख जैसा चिह्न, जल आदि। लेकिन यदि कहा जाये कि आकाश में चन्द्र सुशोभित हो रहा है, तो यहाँ 'आकाश' देश के कारण 'चन्द्र' का अर्थ चन्द्रमा उपग्रह होगा।

'काल' द्वारा अर्थ नियमन:- 'चित्रभानु' के कई अर्थ हैं - यथा सूर्य, अग्नि आदि। यदि कोई कहे - अँधेरी रात में चित्रभानु के प्रकाश के कारण अंधेरा कम हो गया। यहाँ 'रात' शब्द के कारण 'चित्रभानु' का अर्थ 'अग्नि' में नियंत्रित होगा।

'व्यक्ति' (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग) द्वारा अर्थ नियमन:- अनेकार्थक शब्दों के अर्थों को एक अर्थ में नियमन करने वाला यह साधन संस्कृत भाषा में प्रयोग होता है। हिन्दी भाषा में इसके संयोग नहीं मिलते। जैसे - मित्र : विभाति। श्याम: यम मित्रम्।

यहाँ पहले वाक्य में 'मित्र' शब्द पुल्लिंग में प्रयोग के कारण 'सूर्य' अर्थ में नियंत्रित होता है, जबकि दूसरे वाक्य में नपुंसक लिंग में प्रयुक्त होने के कारण 'दोस्त' के अर्थ में नियंत्रित होता है। हिन्दी में नपुंसक लिंग नहीं होता।

'स्वर' द्वारा अर्थ नियमन:- स्वरों द्वारा अर्थ नियम केवल वेदों में होता है। वैदिक साहित्य में तीन स्वर माने जाते हैं:- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। इन स्वरों के परिवर्तन द्वारा अर्थ का नियमन होता है, विशेषकर समस्त (समास युक्त) पदों में।

अनेकार्थक शब्दों के एक अर्थ के नियमन के उपर्युक्त साधनों की विवेचना के परिप्रेक्ष्य में पुन: एक बार समझने का प्रयास अपेक्षित है। उक्त साधनों के द्वारा शब्दार्थ का नियमन होने के बावजूद यदि शब्द के द्वारा अन्य अर्थ की प्रतीति हो, तो वहाँ अभिधामूला व्यंजना होगी। जैसे कन्या का निर्विघ्न विवाह सम्पन्न होने के बाद यदि कोई कहे कि 'मैनें तो गंगा नहा लिया'। यहाँ एक सीधा अर्थ आता है कि एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया। किन्तु 'गंगा' शब्द के साथ 'पावनता' और 'शीतलता' आदि अर्थ के कारण दूसरा अर्थ होगा कि एक पावन कार्य सम्पन्न हुआ, जिससे हृदय और मन को शान्ति मिली।

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

फ़ुरसत में... भ्रष्‍टाचार पर बतिया ही लूँ !

फ़ुरसत में...

भ्रष्‍टाचार पर बतिया ही लूँ !

IMG_0531मनोज कुमार

 
आज फ़ुरसत में भ्रष्‍टाचार पर कुछ बतियाने का मन बन गया। जब यह विषय मेरे मन में आया और अपने एक मित्र से कहा कि इस विषय पर अपने ब्लॉग पर एक पोस्‍ट लगाना चाहता हूँ तो उसने कहा कि इसके लिए हिम्‍मत और नैतिक साहस चाहिए।
 
मैं आज कुछ बतिया ही लूँ ।
 
कवि नीरज ने कहा था,
चाह तन-मन को गुनहगार बना देती है
बाग के  बाग को  उजाड़   बना   देती है।
 
हम अपनी इच्छाओं पर क़ाबू नहीं पा सके हैं इसलिए इतना बढ गया है ये शैतान का बच्चा – “भ्रष्टाचार”। भ्रष्‍टाचार पर नजर रखनेवाली देश की सर्वोच्‍च संस्‍था केंद्रीय सतर्कता आयोग के मुताबिक हर तीन में से एक भारतीय भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त है।
 
सरकारी नौकरियों में जहां एक ओर सुविधाएं बढ़ी हैं, वहीं दूसरी ओर भ्रष्‍टाचार में भी बढ़ोत्तरी हुई है।
 
इस सप्ताह की शुरुआत केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में सतर्कता शपथ के साथ हुई है। ‘सतर्कता जगरूकता सप्ताह’ मनाया जा रहा है। ३१ अक्तूबर सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म दिन है। भारतीय कार्यपालिका परंपरा में उन्हें उनके मूल्यों पर आधारित काम करने में सर्वोत्कष्ट जाना जाता है इसलिए उन्हें याद करते हुए हम देश से भ्रष्टाचार उन्म्मूलन की शपथ लेते हैं।
 
आज मुझे याद आ रहा है वो दिन जब मैं सरकारी नौकरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था। १९८० के दशक के अंतिम वर्ष की बात है। अपने घर के सामने सड़क पर खड़ा था। दरवाज़े पर टेम्परी नम्बर वाली (A/F) एक फिएट गाड़ी, आकर रुकी। उतरने वाले सज्जन ने मुझसे मेरे और मेरे पिता के बारे में पूछा। मैंने उन्हें जवाब दिया,
“आप अगर इसके बगैर आते (मेरा इशारा उनकी चमचमाती और प्रलोभन देती गाड़ी की तरफ़ था, जो कह रही थी के बेटा यदि तू हां कर दे तो बेटी के साथ-साथ यह भी तेरे लिए है) तो शायद मैं आपको बैठने और चाय पीने के लिए पूछता – पर अब तो यहीं से नमस्ते!
वे बिहार के सचिव स्तर के अधिकारी रहे होंगे। हम रेलवे टाइप टू के क्वार्टर के निवासी
 
भ्रष्ट हमें सिस्टम बनाता है, और हम सिस्टम को, … और यह शृंखला चलती रहती है
 
बचपन से हमारी आदत घूस लेने-देने की होती है। ‘राइम सुनाओ तो टॉफी मिलेगी’.... ‘पहले टॉफी दो तो पोएम सुनाऊंगा’। यही मनसिकता लिए जब हम सरकारी नौकरी में पहुचते हैं तो कोई काम करने के एवज़ में पहले चाय-पानी का खर्चा मांगते हैं।
 
नौकरी पाते-पाते हमारा पेट और मुंह सुरसा के मुंह की तरह इतना बड़ा हो चुका होता है कि सिर्फ़ टॉफी से हमारा काम नहीं चलता!
 
पहले अगर कोई आदमी भ्रष्‍ट पाया जाता था तो इसे सामाजिक कलंक माना जाता था, पर आज........... लगता है भ्रष्‍टाचार की इस बीमारी को सामाजिक स्वीकृति मिल गई है।
 
जब मैं अपने राज्‍य या गांव जाता हूँ तो लोग पूछते हैं,
‘आंए हो बउआ, आब त लाले बत्‍ती वाला गाड़ी में घुमैइत होबहो।’
 
जब मैं उन्‍हें यह कहता हूँ कि
मैं इसके लिए अधिकृत नहीं हूँ’!
 
... तो वो मुझे फुटपाथिए टाइप का अधिकारी समझते हैं।
 
फिर कोई यह पूछता है,
तोहर बउआ सब त सरकारिए गाड़ी से स्‍कूल जाइत हेतौ।”
और मेरे इस जवाब पर कि ‘नहीं, वे साइकिल से जाते हैं।
 
तो मुझे ऐसे घूरते हैं मानों अब मैं फुटपाथिया अधिकारी भी नही भिखारी हूँ।
 
ये सोच है। अधिकारी मतलब......तंत्र का दुरूपयोग! ये सब भी भ्रष्‍टाचार की सीढ़ी है। ईमानदार होने और कहलाने में फर्क है। इसे हर पल जीना होता है। कांटों की राह है यह। भ्रष्ट नहीं बने रहने के लिए हर पल सतर्क रहना पड़ता है। हो जाने के लिए तो हज़ारों राहें हैं।
 
एक सज्जन दफ़्तर पहुंचे। दक्षिण भारत में एक फ़्लाइंग क्लब चलाते थे। उनका वायु यान हमारे लैंड के ऊपर से गुज़रे इसकी अनुमति चाहिए थी। हमने कहा ठीक है आपका आवेदन आने दीजिए हम उस पर उचित निर्णय लेंगे। शाम को मेरे घर पहुंच गए। मैंने कहा कि आपसे तो बात दिन में हो ही गई थी। फिर यहां? बोले हम दक्षिण से हैं आपको शॉल से वेलकम करना है। उन्होंने किया। फिर वो जाने लगे। जब वो दरवाज़े से बाहर निकल गए तो देखता हूं कि सोफ़े पर जहां वो बैठे थे वहां एक मैगज़िन है। मैंने उन्हें कहा कि आपका मैगज़िन छूट गया। इसे ले जाइए। बोले आप पढिए। मैंने कहा नहीं ले जाइए और उसे उठा कर उन्हें देने लगा तो उसके नीचे एक पैकेट था। अब मेरा गुस्सा चढा। मैंने कहा ये क्या है, तो बोले मैडम के लिए गिफ़्ट। तब तक मैं वो पैकेट उठा चुका था। मुझे कुछ कड़े और हरे नोट भी दिखे, …  कुछ स्वर्णिम आभा भी। मैं इतनी ज़ोर से चिल्लाया और अंग्रेज़ी में (!!) ऐसी भद्दी-भद्दी गालियां दी कि वो सारी ज़िन्दगी उसका अर्थ ढूंढता फिरेगा। कहने का मतलब कि गिफ़्ट लेना भी उसे श्रेणी में आता है जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं।
 
कई बार मैं साधारण दर (!) का उपहार लेकर किसी शादी-ब्याह में जाता हूं तो श्रीमती जी कहती हैं कि ये क्या ले जा रहे हो, लोग क्या कहेंगे? ये ‘लोग क्या कहेंगे’ का भूत जिस दिन उतर गया समझिए कि १० से २० % तो भ्रष्टाचार मिट ही गया। अरे सरकारी स्कूल में बच्चे का एड्मिशन -- लोग क्या कहेंगे? ये साधारण शर्ट -- लोग क्या कहेंगे? ये दो रूम का एल आई जी फ़्लैट -- लोग क्या कहेंगे?
मैं ५० हज़ार से एक लाख का सामान डाले जब किसी अधिकारी को दफ़्तर में ढुकते देखता हूं तो कई बार सोच में पड़ जाता हूं कि ये सब कहां से कर पाते हैं?
 
अब इसका उत्तर आपको यहां ही मिल सकता है। सेवानिवृत केंद्रीय सतर्कता आयुक्‍त प्रत्‍यूष सिन्‍हा का कहना है कि बमुश्किल 20 प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो अपनी अंतरात्‍मा के बल पर ईमानदारी से जिंदगी जी रहे हैं। आज तो आलम यह है कि जिसके पास जितना अधिक धन होता है, उसे उतना ही सम्‍मानजनक माना जाता है। कोई यह प्रश्न नहीं उठाता कि उसने इतना धन कैसे कमाया?
 
दुनिया के सबसे अधिक भ्रष्‍टाचारी देशों की सूची में भारत 87 वें स्‍थान पर है और हमारा “करप्‍शन परसेप्‍शन इंडेक्स” 3.4 है। जबकि न्‍यूजीलैंड 9.4 अंक के साथ पहले स्‍थान पर है
 
मैंने इसलिए बात की कि हमको जितनी ज़रूरत है उतना ही प्रयोग करें। हम कोई बात जब तक बाहरी उदाहरणों से नहीं करते लोग उसे औथेंटिक मानने को तैयार नहीं होते वरना यह बात तो हमारे उपनिषद्‌ भी बोलते हैं --
ईषावास्यमिदम्‌ सर्वम यत्किंच जगत्यामजगत्।
तेन त्य्क्तेन भुंजीथाह मा गृध: कस्यस्विद्धनम्‌
 
कुछ लोग खाने के लिए जीते हैं, कुछ जीने के लिए खाते हैं। मैं दूसरे तरह का आदमी बनना पसंद करूंगा। हर पल मैं जब कुछ करता हूं तो यह मेरे मन में घूमता रहता है कि ये जो मैं कर रहा हूं अगर मेरी मां देखती होती तो क्या वह गर्व से कहती ‘शाबस मेरे बच्चे!’ या शर्म से सिर झुका लेती। हम बदलते समय और आ रही नैतिक मूल्यों मे गिरावट की बात कर लेते हैं, लेकिन हमें सोचना चहिए कि दोष किसका है। धन-दौलत ही सब कुछ नहीं होता। बहुत से लोगों के पास काफ़ी धन है मगर वे फिर भी ग़रीब हैं। ये दौलत,ये धन, हमें हंसी दे सकते हैं, खुशी नहीं। बिस्तर दे सकते हैं नींद नहीं। चमक-दमक दे सकते हैं, खूबसूरती नहीं। खाना दे सकते है, भूख नहीं। मकान दे सकते है, घर नहीं।
 
नैतिकता और मूल्य अब शब्दकोश में दुबक गए हैं। नैतिकता और ईमानदारी सुविधानुसार, समय के साथ नहीं बदलते। हमारी नैतिकता और ईमानदारी आस्था पर टिकी होनी चाहिए सुविधा पर नही। इसके लिए लालच, डर और दवाब तीनों से जूझना पड़ता है। हो सकता है इसकी क़ीमत चुकानी पड़े। (तबादला, वार्षिक रिपोर्ट आदि के रूप में)
 
पर
अपनी इच्छाओं को सीमाओं में बांधे रखिए,
वरना ये शौक गुनाहों में बदल जाएंगे
 
ये हीरे जवाहरात और काग़ज़ के बंडल लेकर कोई उस लोक जाएगा क्या जो हर अनैतिक कर्म में लिप्त हैं। जाना तो सभी को है। कुछ लोग अगली सात पीढी को सुरक्षित कर देना चाहते हैं। तब एक कहावत मन में गूंजने लगती हैपूत कपूत तो क्यों धन संचय, और पूत सपूत तो क्यों धन संचय
 
मैं तो ईश्वर से यही कहता हूं
बस मौला ज्‍यादा नहीं, कर इतनी औकात,
सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जा

 

अब कुछ क्षणिकाएं--

 

होगया ज्ञानी मैं

जब सारी पोथी पढ़ ली

फिर अपने चारों ओर

उँची दीवारें कर ली।

 

थी यह अभिलाषा

ज्ञान इतना पा जाऊं

हो जाए मेरा परिचय

मुझसे।

 

पढ लिखकर

ज्ञान बढा

सीख लिया जग की

रीति और रिवाज़ को

जान गया

मैं हूं हिंदू, तू है मुस्लिम

शब्दों के भेद ने

भेद दिया समाज को

 

ययाति की तरह

पुत्र से भी यौवन लेकर

अनंत सुख भोग की कामना

आज भी

लोगों के जीवन से लिपटी है

तृष्णा।

होती है अतृप्त

भोगने की अनंत लिप्सा।

 

मैं खड़ा हूँ

संध्या के धूमिल प्रकाश में

सामने दर्पण

अपने ही प्रतिबिंब से

डर लगता है मुझे।

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

अंक – 15 :: शिव स्वरोदय

आचार्य परशुराम राय

इस अंक में नाड़ियों की स्थिति तथा प्राणों के नाम सहित स्थान का विवरण दिया जा रहा हैः-

इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे स्मृता।

सुषुम्ना मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि।।38।।

अन्वय – वामे भागे इडा स्थिता, दक्षिणे (भागे) पिङ्गला स्मृता, मध्यदेशे तु सुषुम्ना वाम चक्षुषि गान्धारी।

दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे।

यशस्विनी वामकर्णे आनने चाप्यलम्बुषा।।39।।

अन्वय – दक्षिणे (चक्षुषि) हस्तिजिह्वा, दक्षिणे कर्णे पूषा,

वाम कर्णे यशस्विनी आनने च अलम्बुषा।

कुहूश्च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने तु शङ्खिनी।

एवं द्वारं समाश्रित्य तिष्ठन्ति दशनाडिकाः।।40।।

अन्वय –लिङ्गदेशे तु कुहूः मूलस्थाने तु च शङ्किनी।

एवं द्वारं समाश्रित्य दशनाडिकाः तिष्ठन्ति।

इडा पिङ्गला सुषुम्ना च प्राणमार्गे समाश्रिताः।

एता हि दशनाड्यस्तु देहमध्ये व्यवस्थिताः।।41।।

अन्वय –प्राणमार्गे इडा पिङ्गला सुषुम्ना च समाश्रिताः।

देहमध्ये तु एताः दश नाड्यः व्यवस्थिताः

img1100625044_1_1 भावार्थः - उक्त चार श्लोकों को अर्थ सुविधा की दृष्टि से एक साथ लिया जा रहा है। शरीर के बाएँ भाग में इडा नाड़ी, दाहिने भाग में पिंगला, मध्य भाग में सुषुम्ना, बाईं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिह्वा, दाहिने कान में पूषा, बाएँ कान में यशस्विनी, मुखमण्डल में अलम्बुषा, जननांगों में कुहू और गुदा में शांखिनी नाड़ी स्थित है। इस प्रकार से दस नाड़ियाँ शरीर के उक्त अंगों के द्वार पर अर्थात् ये अंग जहाँ खुलते हैं, वहाँ स्थित हैं।

इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्राण मार्ग में स्थित हैं। इस प्रकार दस नाडियाँ उक्त अंगों में शरीर के मध्य भाग में स्थित हैं। (38-41 तक)

English Translation:- For comprehensive points of view all th e four slokas are

(From 38-41) Translated together. Here locations of the Nadis are stated-

Nadis Location

Ida Left side of the body

Pingla Right side of the body

ShuShumna Middle of the body

Gandhari Left eye

Hastigikvva Right eye

Yashaswini Left ear

Pusha Right ear

Alambusha Mouth

Kuhu Genital organ

Shankihini Anal region

However, Ida, Pingala and ShuShumna exist in respiratory passage.

नामान्येतानि नाडीनां वातानान्तु वदाम्यहम्।

प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च।।42।।

नागः कूर्मोऽथकृकलो देवदत्तो धनञ्जयः।

हृदि प्राणो वसेन्नित्यमपानो गुह्यमण्डले।।43।।

समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः।

व्यानो व्यापि शरीरेषु प्रधानाः दशवायवः।।44।।

प्राणाद्याः पञ्चविख्याताः नागाद्याः पञ्चवायवः।

तेषामपि पञ्चनां स्थानानि च वदाम्यहम्।।45।।

उद्गारे नाग आख्यातः कूर्मून्मीलने स्मृतः।

कृकलो क्षुतकृज्ज्ञेय देवदत्तो विजृंम्भणे।।46।।

जहाति मृतं वापिसर्वव्यापि धनञ्जयः।

एते नाडीषु सर्वासु भ्रमन्ते जीवरूपिणः।।47।।

भावार्थ - हे शिवे, नाड़ियों के बाद अब मैं तुम्हें इनसे संबंधित वायुओं (प्राणों) के विषय में बताऊँगा। इनकी भी संख्या दस है। दस में पाँच प्रमुख प्राण है और पाँच सहायक प्राण हैं। पाँच मुख्य वायु (प्राण) है- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। सहायक प्राण वायु हैं - नाग, कूर्म, कृकल (कृकर), देवदत्त और धनंजय। प्रमुख पाँच प्राणों की स्थिति निम्नवत है।

प्राण वायु स्थिति

प्राण हृदय

अपान उत्सर्जक अंग

समान नाभि

उदान कंठ

व्यान पूरे शरीर में

पाँच सहायक प्राण-वायु के कार्य निम्न लिखित हैं-

सहायक प्राण-वायु कार्य

नाग डकार आना

कूर्म पलकों का झपकना

कृकल छींक आना

देवदत्त जम्हाई आना

धनंजय यह पूरे शरीर में व्याप्त रहता है मृत्यु के बाद भी कुछ तक समय यह शरीर में बना रहता है।

इस प्रकार ये दस प्राण वायु दस नाड़ियो से होकर शरीर में जीव के रुप में भ्रमण करते रहते हैं, अर्थात् सक्रिय रहते हैं।

इन श्लोकों के अन्वय की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यहाँ इनके अन्वय नहीं दिए जा रहे हैं। (42-47)

English Translation - O shive, after describing Nadis, now I am going to tell you about Pran-vayus connected with Nadis. They are ten in numbers. Five out of ten Vayus are main, whereas remaining five are sub-pranas. The main Pran-Vagus are – Prana, Apana, Samana, Udana and Vyana. And sub-pranas are- Naga, Kurma, Krikal (krikar), Devadatta and Dhananjaya. Locations of five main Prana. Vayus are as under:-

Prana Vayu Location

Prana Heart

Apana Excretory organs]

Samana Navel region

Udan Throat

Vyan Whole body

Functions of five sub-Pranas are mentioned here under:-

Sub-Pranas Functions

Nagh Belchinl

Kurma Dropping of eye-liols

Krikar Sneezing

Devadatta Yawning

Dhananjaya This exists in the whole body and it remains active for some time in the body even after death.

Thus, these ten Pran a Vayus remain active through the said ten Nadis and act in the body like living being.

These Shlokas do not need their prose order (anvaya) and therefore same are not given here. (42-47)

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

समीक्षा आँच-41- तन सावित्री मन नचिकेता

समीक्षा

आँच-41पर डॉ. जे.पी. तिवारी की कविता

तन सावित्री मन नचिकेता

हरीश प्रकाश गुप्त

डॉ. जे.पी. तिवारी की कविता तन सावित्री मन नचिकेता
हमें जाना है सुदूर.... इस महीतल के भीतर.. अतल-वितल गहराइयों तक. हमें जाना है भीतर अपने मन के दसों द्वार भेद कर अंतिम गवाक्ष तक. अन्नमय कोश से .... आनंदमय कोश तक. छू लेना है ऊंचाइयों के उस उच्चतम शिखर को, जिसके बारे में कहा जाता है - वहीँ निवास है, आवास है इस सृष्टि के नियामक पोषक और संचालक का. पूछना है - कुछ 'प्रश्न' उनसे, मन को 'नचिकेता' बना कर. पाना है - 'वरदान' उनसे तन को 'सावित्री' बनाकर. और करना है- 'शास्त्रार्थ' उनसे, "गार्गी' और 'भारती' बन कर.

डॉ. जे. पी. तिवारी की कविता तन सावित्री मन नचिकेता एक ऐसी कविता है जो अपने अर्थ, भाव और प्रतीक विधान से सामान्य कविताओं से अपने को अलग करती है। प्रस्तुत कविता विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक चिंतन की परिणति है जो भौतिकता का परित्याग करके अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने को उद्यत है। यह कोरा बौद्धिक ज्ञान नहीं है, वरन, अन्तर के ज्ञान - मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? – पथ पर आगे बढ़ते हुए आत्मा और ब्रह्म के एकाकार होने की पराकाष्ठा के स्तर तक है। यह ज्ञान स्वयं के भीतर है। स्वयं का यह ज्ञान मनोमय के अंधकार से घिरा हुआ है और इस अज्ञानता का कोई आदि अंत नहीं है। इसे कवि महीतलके भीतर अतल वितल गहराइयों तक’ कह व्यक्त भी करता है। इस स्वयं की खोज के पथ पर आगे बढ़ने में हमारी कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ बाधक है, क्योंकि ये विषयासक्त हैं और आत्मज्ञान के लिए विषयों के बंधन तोड़े बिना कोई उपाय नहीं है।

ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही बाधक दस द्वार हैं जो ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति की दिशा में भौतिकता के अवरोध स्वरूप उपस्थित होते हैं। इन्हें ही कवि अंतिम गवाक्ष तक भेदने की बात कहता है। सत, रज और तम – तीनों गुणों के समन्वय से व्यक्त यह पंचकोशात्मक शरीर है। ये सभी अनात्म हैं। त्वचा, रुधिर, अस्थि, मल, मांस और मज्जा से निर्मित यह अन्नमयकोश है। पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच प्राणों से युक्त विषयासक्त मनोमयकोश है। इसका सारथी मन है और मन से बड़ी बेड़ी कुछ भी नहीं है, इसका जन्म से पूर्व तथा जन्म के पश्चात कोई अस्तित्व नहीं है और यह अन्नमयकोश से तृप्त होकर कर्मों में प्रवृत्त है। यह विकारी है। पाँच कर्मेन्द्रियों तथा अंतर्भूत मन, अहं से संचालित बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियों का समूह विज्ञानमयकोश है तथा प्रिय गुणों से युक्त और तमोगुण से प्रकट वृत्ति आनन्दमयकोश है। ये आत्मा से अभिन्न नहीं हो सकते हैं। अतः कवि इन्हें पराभूत कर अपने ज्ञान का विकास उस उत्कर्ष तक करना चाहता है जहाँ आत्मा – स्वयं - और परमात्मा, अर्थात् जो सृष्टि का रचयिता, नियंता और पालनकर्ता है और बुद्धि का नियंत्रण करने वाले विवेक का प्रदाता है, का एकाकार है।

नचिकेता भौतिक कामनाओं के प्रति ‘कुछ नहीं चाहिए’ का भाव लेकर विवेकहीन निर्णयों को स्वीकार न करते हुए अपने विवेक से सत्य की तलाश करने तथा उसके लिए मृत्यु तक का वरण करने वाली प्रबुद्ध चेतना का प्रतीक है। वहीं, सावित्री तप, सुचिता, समर्पण, निष्ठा और त्याग के बल पर मृत्यु तक को परास्त कर अपनी आकांक्षा पूर्ति का प्रतीक है। गार्गी और भारती विद्वत मनीषा का प्रतीक हैं, जो स्वाभाविक विनम्रता से युक्त होते हुए विद्वत्ता के सनातन एकाधिकार वाले अहं को चुनौती प्रस्तुत करती हैं और क्रमशः ऋषि याज्ञवल्क्य और आचार्य शंकर के समक्ष अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने में सफल होती हैं। पुनःश्च, अपनी अभिमान रहित कर्त्तव्यपरायणता का परिचय देते हुए सामाजिक उत्थान जैसे बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सहगामी भी हो जाती हैं।

कवि की यह रचना आध्यात्मिक चिंतन से उद्दीप्त है तथा जीवन में दिशा प्रदान करने के लिए एवं प्रेरणा प्रदान करने में सहायक हो सकती है। कवि ने कविता की अंतिम पंक्तियों में अनेक रूढ़ से लगने वाले पौराणिक प्रतीकों का प्रयोग किया है जो कविता की भाव गंभीरता को देखते हुए जोखिम भरे हो सकते हैं, क्योंकि इन प्रतीकों में विशिष्ट अर्थ अति व्यापक रूप में विद्यमान है और वे कविता की आभा को ढक देते हैं। यहाँ प्रतीकों की बाढ़ सी भी है जो शेष कविता के शब्द विधान से पृथक है। कविता का शिल्प साधारण है तथा भाव गांभीर्य अपने वैभव के साथ विद्यमान है।

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

देसिल बयना - 53 : जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी ?

देसिल बयना - 53 : जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी ?

-- करण समस्तीपुरी
हा.... हा... हा.... ! उ दिन का घटना भी........ हें...हें...हें.... ! बाप रे बाप.... ! तौलिया से मुँह बाँधने पर भी हंसी का फब्बारा नहीं रुकता है....हा...हा...हा.... ! चल्लित्तर सेठ कने चकली वाला गिरामोफोन पर खूब सुने रहे 'रघुपति राघव राजा राम.... !" मगर गिरमिटिया कलकत्ता से बेजोर बिलायती बाजा लाया रहा। एकदम छोटकी बक्सा जैसा और नाम कहता रहा....उ का तो कहता रहा.... हाँ.... याद आया.... टेंजिस्टर। हा... हा...हा.... !!
एंह.... ! पदुम लाल गुरूजी का बड़का दालान करामा लोग से भरा हुआ था। गुरूजी के मचिया पर ललका गमछी बिछा के ऊपर से टेंजिस्टर को रखा। फिर अगरबत्ती दिखा के जैसे ही कनैठी दिया कि उ टेंजिस्टरबा कर्र-कर्र.... किहिस मगर दुइये मिनट में ऐसे बके लगा जैसे झींगुर भगत के मंतर से भूत बकने लगता है।
"ई आकाशवाणी है !"  रे तोरी के... ! ई कलयुग में भी आकाशवाणी.... ? चुल्हाई मिसर जय शिव-जय शिव करने लगे। सब आकाश को  निहारिये रहा था कि फिर आवाज आई, "अब आने वाला है इन्द्रधनुष....!"
"अहि तोरी के....! आकाशवाणी और अब इन्द्रधनुष। हम तो पहिलेही कह रहे थे, ई मलेच्छ बाजा है। ई को गाँव में लाया तो देखो सब अजगुत। ई दक-दक इजोरिये में इन्द्रधनुष। राम रच्छा करें.... !" कहते हुए मिसिरजी भागे घर दिश।
बिशुनी चौधरी बोले, "अरे मिसिर जी कहाँ जा रहे हैं... आगे तो सुन लीजिये... !"
मिसिरजी झटकते हुए बोले, "रुकिए ! घर से छाता लेकर आते हैं तब सुनेंगे।"
नन्ह्किया पूछा था, "मिसिर बाबा ! छाता ले के का कीजियेगा ?"
"मार खचरा.... ! सुना नहीं... आकाशवाणी क्या कहिस... ? इन्द्रधनुष आने वाला है... ! कहीं बरस गया तो.... ?"
हा...हा...हा.... ! उ तो और कितना आदमी डर जाता... मगर गिरमिटिया चट से बोला, "अरे नहीं इन्द्रधनुष आता नहीं है बस टेंजिस्टर पर रंग-बिरंग के गीत बजता है। सच्चे में टेंजिस्टर बाबा तो जनानी के आवाज में तो गाने लगे, "मेरे पिया गए रंगून... ! किया है वहाँ से टेलीफून.... !तुम्हारी याद सताती है....!" 
"हा...हा...हा.... "बेचारे मिसिरजी सुखले में ठगा गए.... !" पदुम लाल बतीसी निपोर कर बोले थे।  फिर ई बात पर कितना हंसी फूटा कि पूछिये मत। अभी भी हमको उ दिरिस याद आते ही पेट में बल पड़ने लगता है..... हें...हें...हें... हें.... !
मगर देखिये, तभी से अभी जमाना केतना बदल गया है। बिना पंखे के आदमी चाँद पर पहुँच गया। अरे चाँद से याद आया.... आज करवा चौथ है। टीवी और सनीमा तो चन्दा को करवा चौथ का 'बिरांड इम्बेस्टर' बना दिया है। पहिले तो अपने देश में तीज-मधुश्रावणी होता था अब करबा चौथ भी होता है।"
कल्हे सांझे से देखे रहे। कजरावाली, गजरावाली, उड़नपरी सब छमा-छम करते हुए पेठियागाछी दिश जा रही थी। नवगछिया वाली काकी से पूछे, "काकी ! पूर्णिमा में तो अभी पन्द्रहियो से ऊपर है, ई जानना लोग कौन मेला मे जा रही है...!"
काकी बोली, "मार बुरबकहा !अरे ई सब मेला में नहीं, पेठिया जा रही है, साज-सिंगार खरीदे। कल्हे करवा चौथ है ना.... ! कल्हे मेहँदी, गजरा, कजरा लगा के न उपवास करेगी!"
हम भी मने मन कहे 'चाबश ! तब तो कल्हे पीरपैंती वाली भौजी को चिढाने का बढ़िया मौका है।  कल तो उहो सजेगी। उनके सजने सँवरने का शौक तो हम पछिला होलिये में देख लिए थे। गिरमिटिया के टेंजिस्टर वाला गाना सुना के चिढाये भी थे, "झुमका बरेली वाला... कानो में ऐसाडाला... झुमके ने लेली मेरी जान.... ! हाये रे मैं तेरे कुर्बान.... !!"
दुपहरी बाद गाय को बाँध कर हाथ-पैर धोये और सीधे उतरवारी तोल के रास्ता पकड़ लिए। मने में फ़िल्मी गीत सब भी याद कर रहे थे जौन से भौजी को चिढायेंगे। "साँची कहें तोहरे आवन से हमरे अंगना में आईल बहार भौजी !" गुनगुनाते हुए, गीत गाते हुए, दो कदम का एक कदम बढाते हुए,  धायं से पहुंचे बिजली काकी कने।
"राम-राम काकी ! भौजी किधर है... ? द्वार पर हुक्का गुरगुरा रही काकी से बस औपचारिकता किया और काकी के आँगन की तरफ हाथ दिखाए से पहिले ही, "कहाँ बा रु हो भौजी...?" कहते हुए अंगना में दाखिल हो गए। आँगन में कोई था तो नहीं मगर अदृस आवाज आयी ठीक गिरमिटिया के टेंजिस्टर जैसे, "आते हैं बबुआ...!" ओह तो भौजी भीतरी कमरा में हैं। लगता है सिंगार-पटार कर रही होंगी। हम अपने मन में ही सोचे, चलो चिढाने का यही अच्छा बहाना है। वहीं दुआरी पर अखरे चौकी पर ताल देकर लगे गाने, "हाथ में मेहँदी, मांग सिंदूर, बर्बादी कजरबा होगइला.....  बा री बालम परदेसबा बिताबे उलझनमें सबेरबा हो गइला.... !"
भौजी निकले में देरी होने पर गीत रोक के बोले, "का हो भौजी ! अरे केतना सिंगार करोगी...! अरे बहरा भी आ जाओ ! हम कबे से चौखट पर भजन गा रहे हैं !" भौजी तो पाछे निकली। उ से पहिले बहराया जिबछी मौसी के आवाज़, "बहुरिया का सिंगार-पटार करेगी बाबुआ... ! उ तो रोये-रोये के आँख सुजा रही है।"
अरे... ई का... ! सच्चे में भौजी के चेहरा पर सिंगार-पटार का कौनो लच्छन नहीं था।   हम पूछे, "का हुआ भौजी ! ई बार करवा चौथ नहीं रख रहीहो... ?"
भौजी मद्धिम से बोली, "हाँ उपवास तो रखे हैं।"
हम कहे, "ई लो... ! कर दी न भागलपुरिया गप्प। अरे ई कौनो जितिया है कि सुखले उपवास कर लिए। करवा चौथ का उपवास कजरा, गजरा, मेहँदी, झुमका लगा के होता है.... ! औरत हो कि का हो... ? बिना सिंगार के त्यौहार.... ?"
भौजी तो कुछ नहीं बोली मगर जिबछी मौसी फिर कुहर के बोली, "तु अभी नादान हो बेटा ! तोहरे नहीं बुझाएगा... ! अरे कहते नहीं हैं कि "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"। बटेसर बौआ परदेस कमा रहे हैं, इहाँ बेचारे बहुरिया किसको दिखाए खातिर सिंगार करेगी।" जिबछी मौसी के डायलोग में दरद तो था मगर कुछ चुटकी भी था। लेकिन भौजी के कजराई आँखों आंसू नहीं छुपा सकी। चौबन्नी भर-भर के मोटा-मोटा लोर ज़मीन चूमने लगा।
हमको भी थोड़ा दुःख हुआ, "ओह ! खा... म... खा.... भौजी को चिढ़ा दिए...!" लेकिन हम ई नहीं समझे कि सोलहो सिंगार प्रिय भौजी को का हो गया ? अरे बटेसर भाई नहीं हैं मगर साज-सिंगार का समान, अपना दुन्नु हाथ और अलमारी में सेट बड़का आइना तो हैय्ये है। फिर सिंगार काहे नहीं करती है ? अच्छा जिबछी मौसी का कह रही थी, "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"।
ओ.... अब समझ में आया.... ! "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"। मतलब कि जिस वस्तु या संसाधन का कोई उपभोक्ता ही नहीं हो उसकी क्या उपादेयता। मतलब उनके सिंगार रस का उपभोग करने वाले बटेसर भैय्या तो परदेस में हैं तो इहाँ पीरपैंती वाली भौजी के सिंगार की क्या जरूरत है। हाँ.... तो ये बात ! अच्छा चलो ! कोई बात नहीं।  भौजी सिंगार करती तो चिढाते। नहीं की तो एगो कहावत तो सीखे, "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"।

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

लघुकथा :: वसुधैव कुटुम्बकम्

लघुकथा

वसुधैव कुटुम्बकम्

सत्येन्द्र झा

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एक पत्रिका के प्रकाशन की योजना बन रही थी। प्रकाशक और सम्पादक विचार-विमर्श कर रहे थे।

"राजनितिक चर्चा कौन लिखेगा?"

"मेरा छोटा पुत्र। उसे राजनीति में गहरी दिलचस्पी है।"

"और महिला कॉलम?"

"मेरी पत्नी। दिन भर मोहल्ले की औरतों को ज्ञान बांटती रहती है।"

"सिनेमा का पन्ना?"

"मेरा मंझला पुत्र। इस पद के लिए उस से अच्छा उम्मीदवार कौन हो सकता है? वह तो एक दिन में तीन-तीन सिनेमा देखता है।"

"खेल-जगत?"

"अरे.... मेरा बड़ा बेटा। खेलों से उसे इतनी अभिरूचि है कि वह इसके चक्कर में अपनी पढाई-लिखाई भी चौपट कर चुका है।"

"बहुत बढ़िया। किन्तु आवरण चित्र?"

"मेरी बेटी है न।  वह तो बात-बात में आपका चित्र खींच दे।”

पत्रिका प्रकाशित हुई। शीर्षक के नीचे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था, "आपके लिए, आपके द्वारा, आपकी पत्रिका!”

(मूलकथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित "बन्न कोठली" से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

कविता - पता पूछते हैं लोग

पता पूछते हैं लोग

 photo Gyan

ज्ञानचंद मर्मज्ञ

पानी   में   मछलियों का पता पूछते हैं लोग,

आंसू  से सिसकियों का पता पूछते हैं लोग !

 

बारूद   के   ईमान   पर    है  इतना  भरोसा,

माचिस की तीलियों का पता पूछते हैं लोग !!

 

अक्सर चमन में शाख से फूलों को तोड़ कर,

बेदर्द   आँधियों   का   पता   पूछते  हैं लोग !

 

पढ़ते   हैं   महज   खून  के  रंगों  की कहानी,

आदत  है  सुर्ख़ियों  का  पता पूछते हैं लोग !!

 

चिंगारियों    की    राख  संभाली   नहीं   गयी,

शोलों और बिजलियों का पता पूछते हैं लोग !

 

फूलों  ने  जब  से   छोड़ा   खिलना   बहार   में,

पत्थर  से  तितलियों का पता पूछते हैं लोग !!

 

उनके   घरों   से  देख  कर  उठता  हुआ  धुंआ,

विश्वास  के  दीयों  का  पता  पूछते  हैं   लोग !

 

जंगल  में  राम  भेज  कर  सीता  को जला कर,

मंदिर  की  सीढियों  का  पता  पूछते  हैं लोग !!

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

भारतीय काव्यशास्त्र-लक्षणा

भारतीय काव्यशास्त्र-लक्षणा

आचार्य परशुराम राय

शुद्धा लक्षणा और गौणी लक्षणा के लिए भेदक रेखा आचार्य मम्मट 'उपचार' को मानते हैं। यहाँ 'उपचार' का अर्थ है -

अत्यन्त भिन्न दो पदार्थों में अत्यन्त सादृश्य गुणों के कारण अभेद की प्रतीति।

जब लक्षणा 'उपचार' रहित हो तो उसे शुद्धा लक्षणा और जब 'उपचार' सहित हो तो उसे गौणी लक्षणा माना जाता है।

जैसे - यदि किसी बच्चे में निडरता और पराक्रम आदि गुणों को देखकर कहा जाये कि 'यह बच्चा शेर है' तो 'बच्चा' और शेर दोनों अत्यन्त अलग-अलग हैं। किन्तु दोनों में निडरता और पराक्रम आदि गुणों के सादृश्य के कारण यहाँ उपचार-मूलकता होने के कारण गौणी लक्षणा होगी। जबकि 'फूल मुस्करा रहे हैं' में शुद्धा लक्षणा होगी। यहाँ 'मुस्कराना' 'खिलना' के अर्थ में आया है और उपचार रहित है। अर्थात् 'मुस्कराना' अपने अस्तित्व को छोड़कर 'खिलना' शब्द में समर्पित हो जाता है। दूसरे शब्दों में - शुद्धा लक्षणा वस्तुपरक होती है, जबकि गौणी गुणपरक। यहाँ गौणी को गुण से व्यूत्पन्न मानना चाहिए, गौण (secondary) से नहीं।

शुद्धा लक्षणा के चार भेद होते हैं - उपादान लक्षणा, लक्षण-लक्षणा, सारोपा और साध्यवसाना लक्षणा। गौणी लक्षणा के केवल दो भेद होते हैं - सारोपा और साध्यवसाना।

उपादान लक्षणा:- जहाँ शब्द अपने अन्वय की पूर्ति के लिए दूसरे अर्थ को ग्रहण करता है और स्वयं भी बना रहता है, वहाँ 'उपादान लक्षणा' होती है। जैसे - 'दो घरों में लड़ाई हो रही है' यहाँ 'घरों का अर्थ' 'घरों में रहने वाले लोगों' से है। चूँकि 'घर' आपस में नहीं लड़ सकते, अतएव अर्थ की बाधा को दूर करने के लिए उसमें 'रहने वाले लोग' को आक्षिप्त किया गया है और 'घर' शब्द भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। अतएव यहाँ 'उपादान लक्षणा' होगी।

लक्षण-लक्षणा:- उपादान लक्षणा के विपरीत जहाँ वाक्य में प्रयुक्त शब्द अर्थ की अन्विति के लिए, अर्थात् मुख्यार्थ में बाधा को दूर करने के लिए अपने अर्थ को छोड़कर दूसरे अर्थ का बोधक बन जाये, तो वहाँ लक्षण-लक्षणा होगी। जैसे:- 'फूलों का मुस्कराना' में 'मुस्कराना' शब्द अपना अस्तित्व छोड़कर अन्विति के लिए अर्थात् मुख्यार्थ की बाधा को दूर करने के लिए 'खिलना' अर्थ ले लेता है।

शुद्धा सारोपा और शुद्धा साध्यवसाना लक्षणाएँ

जहाँ उपमेय और उपमान दोनों साथ रहें और कार्य कारण भाव का सम्बन्धपूर्वक आरोप होने पर शुद्धा सारोपा लक्षणा मानी जाती है जैसे 'घी आयु है'। यहाँ घी प्रस्तुत है अर्थात् उपमेय है और आयु अप्रस्तुत उपमान है। परन्तु घी आयु नहीं हो सकता। दोनों भिन्न है। लेकिन 'घी' पौष्टिक और बलवर्द्धक होने के कारण 'आयु' को दीर्घ बनाने वाला है। अतएव इस अर्थ का घी में आरोप होने के कारण यहाँ सारोपा शुद्धा लक्षणा है।

जहाँ उपमेय को बिना कहे उपमान से ही उपमेय को अभिव्यक्त किया जाए, वहाँ साध्यवसाना शुद्धा लक्षणा होगी, जैसे- घी को कहा जाये कि 'यह आयु है'। यहाँ उपमेय छिप गया है और उपमान को उपमेय की संज्ञा दे दी गई है। अतएव इसमें साध्यवसाना शुद्धा लक्षणा मानी जाएगी।

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि गौणी लक्षणा गुण मूलक है। यदि हम उदाहरण के तौर पर देखें 'तू गधा है' और 'गधा कहीं का'।

यहाँ 'गधा' 'मूर्खता' का द्योतक है जो उपमान है। व्यक्ति की मूर्खता गधे की 'मूर्खता' गुण के सादृश्य के कारण एक व्यक्ति (यहाँ 'तू' से सम्बोधित) को गधे के तुल्य बताया गया है। लेकिन आदमी गधा नहीं हो सकता। मुख्यार्थ की इस बाधा को दूर करने के लिए गधे के गुण 'मूर्खता' का अर्थ लेने के कारण यहाँ लक्षणा होगी। उपमेय 'तू' और उपमान 'गधा' दोनों के वर्तमान होने के कारण सारोपा गौणी लक्षणा होगी।

दूसरे वाक्य में उपमेय 'तू' या जिस व्यक्ति को उपमान गधे से सम्बोधित किया गया है, वह यहाँ अपहनुत कर लिया गया है अर्थात् प्रकट नहीं किया गया है। अतएव यहाँ साध्यवसाना गौणी लक्षणा होगी।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

फ़ुरसत में ... सबसे बड़ा प्रतिनायक/खलनायक

फ़ुरसत में ...

सबसे बड़ा प्रतिनायक/खलनायक

IMG_0130_thumb[1] मनोज कुमार

आज फ़ुरसत में हूं। मन में रह-रह कर ख़्याल आता है कि अगर किसी एक सबसे बड़े खलनायक का नाम लेने को कहा जाए तो सबसे पहले किसका नाम आएगा? अभी-अभी तो गुज़रा है विजय का पर्व, तो उत्तर भी हठात्‌ ही सूझ गया – “रावण”। कहते हैं इसके एक-दो नहीं बल्कि पूरे दस सिर थे! और जब वह किसी सुर पर विजय प्राप्त करने की ख़ुशी में अट्टहास लेता था तो आकाश से लेकर पाताल तक पूरा ब्रह्मांड डोलने लगता था।

 

कल्पना कीजिए, कैसा लगता होगा वो दृश्य, बिल्कुल वैसे ही न, जैसे गब्बर शाकाल के अंदाज़ में कहे, “मोगाम्बो ख़ुश हुआ!”

तो आपको ले चलते हैं फ़्लैशबैक में ....

दस सिर वाला यह पौराणिक पात्र बड़ा सौभाग्यशाली था। इसको यह कालजयी नाम “रावण”, भी भगवान शिव के द्वारा ही प्राप्त हुआ था। पिता विश्रवा और माता कैकसी के इस पुत्र के बचपन का नाम तो दशानन था। ब्रह्मा के पुत्र महान्‌ ऋषि पुलस्त्य का यह पौत्र था। यानी ब्रह्मा दशानन के प्रपितामह थे। मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि इतने अच्छे कुल का यह पात्र नायक न हो कर इतने बुरे चरित्र वाला खलनायक कैसे बन गया?

फ़्लैशबैक .......

दशानन के पिता विश्वश्रवा बहुत बड़े तपस्वी थे। अपने तपबल से उन्होंने काफ़ी ज्ञान अर्जित किया था। उसकी विद्वता से भरद्वाज मुनि काफ़ी प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी बेटी का विवाह विश्रवा से कर दिया। इस दम्पत्ति के पुत्र थे कुबेर। कुबेर देवताओं के कोषाधीश थे।

उस समय असुरों के राजा थे सुमाली। उनकी पत्नी थी अप्सरा थाटक। इस दम्पत्ति की बेटी थी कैकसी। सुमाली अपनी बेटी की शादी दुनिया के सबसे बलशाली और ज्ञानी से करना चाहते थे। ... और उस समय इस योग्यता पर विश्रवा से अधिक कोई खड़ा नहीं उतरता था। अत: उन्होंने उससे ही कैकसी की शादी कर दी। कैकसी की संतानों में दशानन सबसे बड़ा था।

बचपन से ही दशानन बड़ा उत्पाती था। एक बार उसने अपने बड़े भाई कुबेर का अपमान किया। कुबेर इससे काफ़ी दुखी हुए। उसने अपनी मां के साथ पिता का महल छोड़ दिया और अलग रहने लगा।

कहते हैं अपने प्रपितामह ब्रह्मा से उसने शक्ति पाई। उस शक्ति का लाभ उठाकर उसने देवताओं को पराजित कर दिया। विजय और शक्ति के मद में चूर वह चला भगवान शंकर को ही आजमाने। उसने तो ताल ठोककर ऐलान कर दिया कि कैलास को उठा कर वह लंका ले जाएगा। यह खबर जब भगवान कैलाशपति के पास पहुंची तो उन्होंने उसे समझाया पर ख़ुद को सबसे अधिक बलवान समझने वाला किसी की बात मानने को तैयार होता है क्या? रावण भी नहीं माना।!

इस परिस्थिति में भगवान आशुतोष ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे से कैलास को दबा दिया। कैलास पर्वत के नीचे दब कर दशानन चीखने-चिल्लाने लगा। तब जाकर दशानन को अपनी शक्ति का एहसास हुआ। और वह शिव भगवान से बार-बार विनती और निवेदन करने लगा। वो तो थे भोलेनाथ। रावण की प्रार्थना से ख़ुश हो गए। जब औढरदानी ख़ुश हों तो कुछ न कुछ मिलना तय था। दशानन को उन्होंने “चंद्रहास” नामक तलवार दे दिया और कहा आज से तुम “रावण” हो! संस्कृत में रावण का अर्थ होता है – “रावयति भीषयति सर्वान्‌ इति रावण:” अर्थात्‌ जिसके चिल्लाने से ब्रह्मांड कांप उठे। इसके बाद से रावण महादेव का भक्त हो गया और जपने लगा, “हर-हर महादेव”।

इस फ़्लैशबैक के बाद फिर से हम पहुंचते हैं अपने मूल प्रश्न पर ...

... कि इतने अच्छे कुल का यह पात्र नायक न हो कर इतने बुरे चरित्र वाला खलनायक कैसे बन गया? मुझे नहीं पता। अगर आपको पता है तो टिप्पणियों के द्वारा हमे भी बताएं।

मुझे तो लगता है उसने ---- राजेश रेड्डी का यह शे’र पढ लिया होगा।

वैसे अपना तो इरादा है भला होने का

पर मज़ा और है दुनियां में बुरा होने का

ख़ैर ख़्याल अपना-अपना! अपन जब फ़ुरसत में होते हैं तो कुछ न कुछ सोच ही लेते हैं। पर रावण के खलनायक्त्व पर आज नहीं। फिर कभी। अभी तो आपको एक कविता भी सुनानी है, यानी अभी ..

“अभी तो हाथ में जाम है

तौवा कितना काम है ।

फुरसत मिलेगी तो देखा जाएगा ।

दुनिया के बारे में सोचा जाएगा।”

 

तो अब पेश है कविता ....

सबसे ऊंचा रावण

पुतला जब पूरा बन गया

कारीगर उसके सामने तन गया

“यह मेरे मन को खूब जंचा है

इसबार

रावण का क़द पहले से ऊंचा है

इसके ओज के सामने कौन टिकता है

यह रावण तो

दूर से ही दिखता है।”

 

कारीगरों की अब क़िस्मत जगी है

रावण को ऊंचा दिखाने की होड़ जो लगी है

मंडली वालों की ही सब यह दया है

इसीलिए तो रावण का कद

काफ़ी ऊंचा हो गया है,

 

इस बात की भी है सब जगह चर्चा

रावण पर किया गया है

पहले से अधिक ख़र्चा

कारीगरों ने पुतलों को बड़े कौशल से गढा है

इसीलिए रावण का कद

हर तरह से बढा है

 

वैसे तो

सबसे ऊंचा रावण होने के दावे कई करते हैं

पर दिल्ली के रावणों के सामने

सब पानी भरते हैं

यहां के रावण हैं

एक से एक मनभावन

और सच मानिए

दिल्ली में ही है

देश का सबसे ऊंचा रावण।

सबसे ऊंचा रावण।

सबसे ऊंचा रावण।

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

शिव स्वरोदय - शरीर में स्थित नाडियां

शिव स्वरोदय - शरीर में स्थित नाडियां

आचार्य परशुरामराय

प्रस्तुत अंक में शरीर में स्थित नाडियों के विषय में शिवस्वरोदय में वर्णित तथ्य दिए जा रहे हैं।

देहमध्ये स्थिता नाड्यो बहुरूपाः सुविस्तरात्।

ज्ञातव्याश्च बुधैर्नित्यं स्वदेहज्ञानहेतवे।।31।।

अन्वय – देहमध्ये स्थिताः ना़ड्यः सुविस्तरात् बहुरूपाः। बुधैः स्वदेहज्ञानहेतवे नित्यं ज्ञातव्याः।

भावार्थ - मनुष्य के शरीर में अनेक नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है। बुद्धिमान लोगों को अपने शरीर को अच्छी तरह जानने के लिए इनके विषय में अवश्य जानना चाहिए।

English Translation – Many nerves are spread in the body. Wise persons should know about them. It enable to understand our body well.

नाभिस्थानककन्दोर्ध्वमंकुरा       इव      निर्गताः।

द्विसप्ततिसहस्त्राणि देहमध्ये व्यवस्थिताः।।32।।

अन्वय – नाभिस्थानककन्दोर्ध्वम् अंकुरा इव निर्गताः व्यवस्थिताः (नाड्यः) देहमध्ये द्विसप्ततिसहस्त्राणि।

भावार्थ – शरीर में नाभि केंद्र से ऊपर की ओर अंकुर की तरह निकली हुई हैं और पूरे शरीर में व्यवस्थित ढंग से फैली हुई हैं।

English Translation – These nerves raised from navel centre like sprout and spread through out our body in well arranged manner. However, here they are known as energy channels

नाडीस्था     कुण्डली     शक्तिर्भुजङ्गाकारशायिनी।

ततो दशोर्ध्वगा नाड्यो दशैवाधः प्रतिष्ठिताः।।33।।

अन्वय - नाडीस्था भुजङ्गाकारशायिनी कुण्डलीशक्तिः। ततो दश उर्ध्वगा नाड्यः दश एव अधः प्रतिष्ठिताः।

भावार्थ – इन नाड़ियों में सर्पाकार कुण्डलिनी शक्ति सोती हुई निवास करती है। वहां से दस नाड़ियां ऊपर की ओर गयी हैं और दस नीचे की ओर।

English Translation – Kundalini Shakti, the power which controls functions of our body and whole universe as well, resides in the shape of serpent in these energy channels in the dormant stage. However, its abode is Muladhar Chakra. There from ten energy channels goes upwards and ten downwards in our body.

द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यो चतुर्विंशति सङ्ख्यया।

प्रधाना  दशनाड्यस्तु   दशवायुप्रवाहिकाः।।34।।

अन्वय – द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यः सङ्ख्यया चतुर्विशति, (तेषु) दशवायुप्रवाहिकाः दशनाड्यस्तु प्रधानाः।

भावार्थ – दो-दो नाड़ियाँ शरीर के दोनों ओर तिरछी गयी हैं। इस प्रकार दस ऊपर, दस नीचे और चार शरीर के दोनों तिरछी जाने वाली नाड़ियाँ संख्या में चौबीस हैं। किन्तु उनमें दस नाडियाँ मुख्य हैं जिनसे होकर दस प्राण हमारे शरीर में निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं।

English Translation - Two pairs of energy channels go transversally towards ears. Thus, there are twenty four main energy channels in our body. Among them there are ten, which are more important and through them pranic energy flows.

तिर्यगूर्ध्वास्तथाSधःस्था        वायुदेहसमन्विताः।

चक्रवत्संस्थिता देहे सर्वाः प्राणसमाश्रिताः।।35।।

अन्वय - तिर्यग्-ऊर्ध्वाः तथा अधः देहे वायुसमन्विताः चक्रवत् सर्वाः (नाड्यः) देहे प्राणसमाश्रिताः संस्थिताः।

भावार्थ – ऊपर और नीचे विपरीत कोणों से निकलने वाली ये नाड़ियाँ शरीर में जहाँ आपस में मिलती हैं वहाँ ये चक्र का आकार बना लेती हैं। किन्तु इनका नियंत्रण प्राण शक्ति से ही होता है।

English Translation– Upwards, down wards and transversal running these channels cross each other. These crossing points are called centers and controlled by pranic energy.

तासां   मध्ये  दश  श्रेष्ठा  दशानां  तिस्र  उत्तमाः।

इडा च पिङ्गला चैव सषुम्ना च तृतीयका।।36।।

अन्वय – तासां मध्ये दश (नाड्यः) श्रेष्ठाः, दशानाम् (अपि) तिस्रः उत्तमाः – इडा

च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयका।

भावार्थ – इन चौबीस नाडियों में दस श्रेष्ठ हैं और उनमें भी तीन सर्वोत्तम हैं –

इडा, पिंगला और सुषुम्ना।

English Translation – As stated above there are ten important energy channels out of twenty four and out of ten, three energy channels are the most important and they are Ida, Pingala and Sushumna.

गांधारी   हस्तिजिह्वा  च  पूषा  चैव   यशस्विनी।

अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी तथा।।37।।

अन्वय – गांधारी, हस्तिजिह्वा च पूषा यशस्विनी चैव अलम्बुषा, कुहूः शङ्खिनी

चैव दशमी तथा।

भावार्थ – उक्त तीन नाड़ियों के अलावा सात नाड़ियाँ हैं – गांधारी, हस्तिजिह्वा,

पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी।

English Translation – Other seven energy channels are Gandhari, Hastijihva, Pusha, Yashaswini, Alambusha, Kuhu and Shankhini.

अगले अंक में नाड़ियों के स्थान के बारे में चर्चा की जाएगी।

(चित्र :: आभार गूगल सर्च)

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

आँच-40 (समीक्षा) पर अरुण राय की कविता ‘गोबर’

आँच-40 (समीक्षा) पर

अरुण राय की कविता ‘गोबर’

हरीश प्रकाश गुप्त

गोबर हूँ मैं कहा जाता रहा है बचपन के दिनों से जवानी के दिनों तक और अब बच्चे भी कहते हैं उम्र के ढलान पर गोबर वही गोबर जो गाय देती हैं नाक सिकोड़ कर निकल जाते हैं हम उठा कर अपने पैर नज़र चुराते बच्चों की तरह लांघ कर सदियों से प्रवृत्ति रही है मुझे उठा कर अलग रख दिए जाने की खेतों में दबा दिए जाने की सड़ कर उपयोगी बन जाने की अजीब सी खूबी है है मुझमें पवित्र भी माना गया है मुझे लीपा गया है मुझसे आँगन घर दालान पूजा घर लेकिन तभी तक जब तक कि नहीं चढ़ा है प्लास्टर पत्थर का घर और आँखों पर इन दिनों बहुत बदलाव आ रहा है बाजार जो आ गया है इसके आने से प्रतिष्टित हो गया हूँ मैं, हो गया हूँ पर्यावरण मैत्रीय और प्रीमियम भी वही पवित्र किन्तु बदबूदार गोबर हो गया हूँ 'आर्गेनिक ' ए़क विचलित कर देने वाली सम्वेदना आ गई है मेरे प्रति 'ओल्ड एज होम ' में रहने वाले माता पिता की तरह गोबर जो हूं मैं

अरुण राय जी की पहले भी एक कविता कील पर टंगी बाबू जी की कमीज’ आँच के लिए ली गई थी। आज उनकी एक अन्य कविता ‘गोबर’ आँच पर ली जा रही है। वैसे देखा जाए तो दोनों कविताओं में कुछ साम्य सा है। मानवीय संवेदनाओं के प्रति और मानवीय मूल्यों के प्रति, दोनों में। अपनी कविताओं में अरुण प्रयोगवादी कवि की तरह दिखते हैं। वे निरंतर प्रयोग करते रहते हैं। अपने आसपास बिखरे ऐसे सामान्य प्रतीकों को उठाते हैं जिन्हें आम जन अनावश्यक समझ उनसे दृष्टि फेर लेते हैं अथवा उनकी उपेक्षा कर जाते हैं। अरुण ऐसे ही प्रतीकों में जीवन के रंग भरते हैं, उन्हें सजीव बनाते हैं, जिसमें आहत मन की वेदना होती है और लोकमन से सहज सम्पृक्त होने वाली संवेदना भी होती है।

प्रस्तुत कविता ‘गोबर’ उपयोगी परन्तु उपेक्षित मन की व्यथा कथा सी है। उपयोगी के साथ साथ उपेक्षित के अर्थ के लिए गोबर से उपयुक्त बिम्ब ढूंढना कठिन सा लगता है। वास्तव में आधुनिक बनने, विकसित होने की अन्धी दौड़ में हम महत्वपूर्ण मूल्यों को पीछे छोड़ते चले जाते हैं। गोबर चाहे वस्तु के रूप में अथवा व्यक्ति के रूप में व्यंजित कर रहा हो, तब तक पिछड़ेपन का बोध कराता है जबतक कि आधुनिक बयार पुनः उसके महत्व अथवा मूल्य को प्रतिष्ठित न कर दे। फिर वह स्वीकार्य हो जाता है। और फिर, जिसे हम त्याग चुके होते हैं, उसी में अनेकानेक विभूषण सुशोभित होते दिखाई देने लगते हैं। इस क्रम में उपेक्षा से आहत बुर्जुवा मन की अनभिव्यक्त पीड़ा ओल्ड एज होम में रहने वाले माता-पिता की सम्वेदना के रूप में प्रस्फुटित होती है।

कविता का बिम्ब बहुत ही सार्थक है तथा उपेक्षा और महत्व दोनों ही गुणों के उत्कर्ष से सम्पन्न है। गोबर उपेक्षा के कारक अल्प बुद्धि का भी विशेषण है और राह पड़ी गंदगी का भी। कविता में इनका अर्थववत्ता उसी गरिमा के साथ विद्यमान है। चाहे कोई वस्तु हो या घर परिवार का कोई सदस्य। यदि वह अधिक काम का नहीं तो वह गोबर के सदृश व्यवहृत है। उम्र के पड़ाव पर यह वस्तुवादी समझ, जब सम्मान और स्वीकार्यता की आवश्यकता होती है तब, मानव मन को आहत करती है। गोबर का एक गुण पवित्रता का भी है। हर शुभ अशुभ अवसर पर अनिवार्य आवश्यकता की तरह। वैसे ही जैसे हर घर परिवार को शुचिता का आकाश प्रकाश प्रदान करने के लिए सम्मानित बुजुर्गों की छाया की आवश्यकता महसूस होती है। विडम्बना यह है कि बुद्धि पर आधुनिकता का पलस्तर चढ़ा होने के कारण हमें इस सनातन सत्य में भी गोबर की बदबू दिखती है। उन्हें देखकर नाक मुँह सिकोड़कर, आदर सम्मान देने के बजाय उपेक्षित करके किनारे कर दिया जाता है और फिर दूसरे की दृष्टि से देखने के आदी हो चुके हमको अन्य स्रोतों से गोबर के प्रीमियम अर्थात महत्वपूर्ण और आर्गेनिक अर्थात उपजाऊ अथवा उपयोगी होने का ज्ञान होता है तो हम उन्हें ओल्ड एज होम में प्रतिष्ठित कर देते हैं। लेकिन इस क्रम में उपजी वेदना उन्हें असहज कर देती है। कहा जाता रहा है ..................... उम्र की ढलान पर’ में अनुपयोगी के रूप में तथा वही गोबर ............... बच्चों की तरह लाँघकर’ में अस्वीकार्य के प्रतीक के रूप में और ‘लीपा गया है मुझको ........... ’ में उपयोगी और पवित्रता दर्शाने में भी कविता की पंक्तियाँ पूरी तरह सफल हैं। हालाकि प्लास्टर पत्थर का’ की व्यंजना घर और आँखों पर के लिए बिना लिखे ही स्पष्ट हो जाती है।

अरुण की निष्ठा यथार्थ के प्रति असंदिग्ध है। वे जीवन के यथार्थ से मुँह नहीं मोड़ते, उसे छिपाते नहीं हैं, बल्कि उसे बेहिचक उद्गाटित करते हैं। वे अपनी बुद्धि का चतुरता से प्रयोग कर गंभीर बात को भी बड़ी सहजता से व्यक्त कर जाते हैं। उनकी रचनाएं मध्यम वर्ग की पीड़ा और उसके प्रति आस्था का प्रतिबिम्ब होती हैं और यह रचना भी उनकी ऐसी ही रचनाओं में से एक है। अरुण कविता को सरलीकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस क्रम में कविता कहीं-कहीं संपूर्ण वाक्य का रूप ग्रहण कर लेती है और शब्द स्फीति की प्रतीति कराती है। कविता में भाव और अर्थ का गांभीर्य तो है लेकिन इसे संश्लिष्ट बनाने तथा आभा-वृद्धि के दृष्टिकोण से इसमें शिल्पगत संभावनाएं शेष हैं, तथापि यह कवि की अपनी शैली है।

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

देसिल बयना – 52 :: चोर के अर्जन सब कोई खाए, चोर अकेला फांसी जाए !

देसिल बयना – 52

चोर के अर्जन सब कोई खाए, चोर अकेला फांसी जाए !

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज  ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं

करण समस्तीपुरी

ओह... ! का कहें.... ? आज जो दिरिस देखे कि.... ! वेदना में हमरो मन भी एकदम शास्त्रीया गया है। सच्चे कहे थे युधिष्ठिरमहाराज। "मृतो स्यात पुरुषः !" मतलब कि दरिद्र पुरुष को मरा हुआ ही समझिये। दरिद्रा देवी जो न करा दे। "रहिमन वो नर मरचुके........ !"

दूर शहर बंगलौर में आज बोंगाई लाल का बेटा मिसरिया भेंटा गया। हट्ठा-कट्ठा जवान। यही मार्बल-गिरेनाईट का काम करता है। बोंगाई लाल गाँव में ही परचून के दूकान से गुजर बसर करते थे। उनका किस्सा भी पुश्तैनिये है। उनके बाबूजी जी गहुमन लाल उज़माना में नामी कारीगर थे। तांबा-पित्तर के ऐसा जेवर-जेवरात गढ़ते थे कि बनरसिया सोनार भी शरमा जाए। मगर उ रेवा-खंड में उके कारीगिरी का कौन कदरदान ? साल में एकाध बार ड्योढी दरबार से लगन-परोजन में काम भी मिल जाए वो बस एक पसेरी अनाज में हफ्ता भर।

बेचारे गहुमन लाल अजिया के गाँव-जवार में फेरी लगाने लगे। तब जा कर घर में दोनों सांझ चूल्हा पर खपरी चढ़ने लगा। उसके बाद तो गहुमन लाल फेरी करे दूर-दूर तक जाने लगे। सुनते हैं कि आरा-छपरा से लेकर अंग राज तक ठेका देते थे। अब तो घर में भी रौनक आने लगी थी। धीरे-धीरे चाननपुर वाली के साड़ी से चिप्पी भी गायब होने लगा था। पूरे दर्ज़निया चेहरा पर हरियरी बहाल हो गया था।

उन दिनों गहुमन लाल महीना में पंद्रह दिन फेरी कर के आते और पंद्रह दिन घरे पर रोहू का मूरा और खस्सी का रान तोड़ते थे। सबको अचरज होने लगा कि भई ! फेरी में ई कौन जिन्न बरसता है कि जहां भूजा पर आफत था वहाँ जल-परोर तलाता है।  दस मुँह दस बात। कोई-कोई तो कहे कि जरूर ई गहुमा कौनो गड़बड़ काम करता है।

हमरे बाबा तो छोटका कक्का पर शख्त पाबंदी लगा दिए थे, "खबरदार ! गहुमा से चूना-तम्बाकू भी बंद करो। वैसे दिन बहुरने से गाँव में गहुमन लाल के हितैषी भी बढ़ गए थे। झक्खन बाबू के दरबार में का होगा....  ? गहुमने लाल के द्वार पर भोर में केतली भर चाह छानाता था। दोपहर में तास के मंडली और सांझ में बम भैरोनाथ। कौनो घड़ी आप उसे अकेला देख नहीं सकते हैं।

एक दिन तो बटेसर झा उस से पूछिये दिए थे, "गेहुमन ! कैसा फेरी करते हो ? हमें भी कुछ बताओ न... ?" गेहुमन लाल तो लम्बा-लम्बा फुफकार छोड़ने लगे।

लेकिन गाँव की सरलता.... झाजी उलटे समझाए लगे, "देखो गेहुमन भाई ! गरमाओ मत। कुछ नाजायज मत करियो। वरना ई भरा पूरा परिवार..... !"

मगर गोस्साया गेहुमन तो झाजी को भी झिरक दिया, "धुर्र मरदे ! जाइए अपनी यजमानी पुजाइये। इहाँ शास्त्र बघारने का कौनो जरूरत नहीं है।" बेचारे बटेसर झा बसिया जिलेबी जैसे मुँह लटकाए पुरुब बगल का रास्ता पकड़ लिए।

उ कहते हैं न, "साधु अवज्ञा कर फल ऐसा.... !" ब्रह्म कोप फूटते देर नहीं लगा।  "हुर्र-हुर्र.......... टोयं-टोयं-टोयं....हुर्र.... हुर्र....हुर्रायं....... !" अरे ई पहर रात गए ई कौन मोटर हरहराय रहा है.... ? और ई मोटर का हौरन इतना विचित्र काहे है भाई ? छोटका कक्का कोठरी का किवाड़ खोलने के लिए हाथे बढाए थे कि बाबा उन्हें पीछे खीच लिए। फिर फुसफुसा के बोले थे, "मार बेहुद्दा.... ! ऐसे कहीं किवाड़ खोलता है। हौरन सुने नहीं टोयं-टोयं...? लगता है पुलिस का छापामारी है। पता नहीं कौन अपराध कर के गाँव में घुसाबैठा है ? कहीं गेहुमा तो नहीं........ ?"

बाबा खुदे पछियारिया खिड़की का एगो पल्ला खोल कर देखे थे। हम भी झांके थे खिड़की से। बाप रे बाप ! पुलिस तो पलटन जैसे पूरे टोला को घेर लिया था। फिर ठायं-ठायं.... ! हमको तो सो जोर से लघुशंका लगा कि पूछिये मत। बाबा समझाए कि ई हवाई फायरिंग है मगर लघुशंका के लिए भी दरवाजा नहीं खोलने दिए। आधा घंटा तक पुलिसिया बूट ठक-ठक बजता रहा। फिर हुर्र-हुर्र कर के सारा मोटर फुर्र हो गया। धीरे-धीरे एकाध लोग कर के घर-घर से बाहर निकलने लगे। गेहुमन के घर से पुक्की उठ रहा था, "बाबू हो.... दद्दा हो.... !" चाननपुर वाली इहाँ भी काली माई और बजरंगबली को अराधना नहीं भूली थी, "ऊपर वाले इन्साफ करेंगे.... जौन हमरे मरदको फंसाया है। हमरे बाल-बच्चे के मुँह का कौर छीन लिया करमजलों ने...... !"

पुलिस गेहुमन लाल को हथकड़ी लगा के ले गयी थी। गाँव में पहली बार ऐसा अनर्थ हुआ था। ई से पहिले तो चौकीदार को देख के ही लोग घर में सुटुक जाते थे। सब खुसुर-फुसुर कर रहे थे। भोरे-भोर चाह छांकने वाली मण्डली के भी आधे से जादे सदस्य कह रहे थे, "हमको तो पूरा शक था। गेहुमा पक्का कौनो गड़बड़ कर रहा है।" समझू सिंघ भी कह रहे थे, "ससुर को कितना बार समझाये। मगर बात बूझे तब न... ! उका तो 'नाशे काल विनाशे वुद्धि' हो गया था। लेकिन उको पुलिस ले काहे गयी थी ई किसी को पता नहीं।

मुखिया जी और नमरू ठाकुर थाना गये थे। गेहुमन लाल के द्वार पर तो बूझिये राते से मजमा लगा था। सब फटफटिया के आवाज़ का इंतिजार कर रहे थे। दोपहर गये उ दुन्नु जने थाने से लौटे। सब धरफरा के बढे थे, गेहुमा का अपराध जानने। चाननपुर वाली आधा मुँह ढंके खड़ी थी। आस लगाई आँखें मुखिया जी पर अटकी थी और कान यह सुनने की प्रतीच्छा कर रहे थे कि पुलिस गेहुमन लालको गलती से पकड़ कर ले गयी थी। उ आ रहे हैं।

मगर ई का...? मुखियाजी ने तो बज्जरपात कर दिया, "ई ससुर गेहुमा... ! पूरे गाँव का नाम हंसा दिया। ससुर इहाँ-वहाँ नहीं..... चोरी भी किहिस तो 'हंसुआ इस्टेट' में। बहुत बड़ा ममला है। और सब जो चुराया सो चुराया.... गला से हंसुली खींचा, ऊ में उ जनानी का जान भी चला गया। ई सब का सौलिड गेंग था। सब धरा गया है।"

फिर तो गेहुमन लाल का द्वार-दरबाजा वही पुराने आषाढ़ के दोपहर जैसा निदाघ रहने लगा। कैय्येक साल तक मोकदमा चला। इधर कुछ साल में जो भी जमा पूंजी हुआ था उ भी वाजितपुर वाले कान्हू वकील को भेंट चढ़ गया।

उ दिन चाननपुर वाली काली माई का खोइंचा भर के और बजरंगबली को परसाद चढ़ा के कहचरी गयी थी। कान्हू वकील ने कहा था कि बहस पूरा हो गया है और अब गेहुमन लाल को रिहा होने से कौनो क़ानून नहीं रोक सकता है। वकील साहेब ने कोट में साबित कर दिया था कि गेहुमन लाल स्वभाव से अपराधी नहीं है। उ तो गरीबी से मजबूर होकर दर्जन भर का परिवार पालने के लिए, छोटी-मोटी चोरी कर लिया करता था। उससे हत्या भी अनजाने में हो गयी। चाननपुर वाली को देस के नियाय और उ से भी जादे कान्हू वकीलपर भरोसा था।

इधर गाँव में दुपहरे से फैसला का इंतिजार था। जौन कोई शहर दिश से आये, सब उसी से मोकदमा का हाल पूछने लगे। साँझ ढल गया मगर अभी तक कौनो सन्देश नहीं मिला था। कुछ लोग सोचे कि लगता है रिहाई हो गया.... थनेसर थान में पूजा पाठ कर रहे होंगे।

ऐन सांझ-बत्ती के बेला में फिर वही पुक्की गूंजा..... ! बुद्दर दास का रिक्शा सीधे गेहुमन लाल के दरबाजे पर रुका था। दू चार लोग मिल कर निढाल चाननपुर वाली को उतारे। बुद्दर बता रहा था कि हाकिम ने गेहुमन लाल को फांसी का सजा सुना दिया है। अब तो चाननपुर वाली के साथ-साथ अगल-बगल की जर जनानी भी ऐसे रुदन पसारने लगी जैसे कि गेहुमन लाल को फँसी हो ही गया हो।

मनसुक्खी बुआ रोते-सुबकते कही थी, "रे चाननपुर वाली ! अरे हाकिम से अंचरा पसार के पति के जान का भीख काहे नहीं मांग ली रे... ? आरे काहे नहीं कहिस कि उ जो कछु किहिस उ सब इ पलिवार के खातिर..... !" चाननपुर वाली भी अलापते हुए बोली, "सब कहा बुआ..... अं...अं...अं..... ! हम तो एतना तक कहे कि ई के फांसी के बाद वैसे भी सारा परिवार भूखे मरेगा.... सो पूरे परिवार को फांसी दे देओ.... ! आखिर वही के लिए तो सारा तिकरम करना पड़ा। लेकिन कोढ़िया जज सुखली के बापू को फांसी सुना दिया....आं.... आं.....आं.... आं.... !"

गेहुमन लाल के परिवार का माहौल तो दरदनाक था मगर उ का पिछलग्गू सब को जान में जान आ गया। अब फाइनल फैसला के बाद उ सब को जान में जान आ गया। बेचारा सब डर रहा था कि कहीं उ भी नहीं फंस जाए कि चोरी का माल खाया है......... ! अभी सब पाला बदल कर गेहुमे को कोस रहा था, "धत.... ! ऐसा करम नहीं करना चाहिए... ? का हुआ इस से... ? एक दिन घी-शक्कर और एक दिन भूजो पर आफत। ई से अच्छा तो मेहनत मजूरी से जीवन तो निवाह जाता.... !"

छोटका कक्का से सारा किस्सा सुन कर बाबा बोले, "देखा ! यही होता है। 'चोर का अर्जन (कमाई) सब कोई खाया। चोर अकेला फांसी जाय !!' परिवार या दोस्त जिसके लिए भी करे, अपराध तो गेहुमे किये था, सजा उसी को मिली। चोरी का माल तो सब चटकारा ले कर खाए, मगर अभी सजा कोई बांटा ? बहरिया तो खिल्लिये उड़ा रहा है और घरबैय्या अब जिनगी भर रोयेगा मगर उसके अपराध की सजा तो उसी को भुगतनी होगी।"

हमरा मन भी तीता हो गया था। फिर सोचे, सच्चे तो कहे बाबा। 'चोर का अर्जन सब कोई खाय ! चोर अकेला फांसी जाय !!'ब मिलकर उ के नाजायज आमदनी पर मौज किया लेकिन सजा मिली तो सिर्फ गेहुमन को। मतलब कि अपराध की सजा अपराधी को ही मिलती है भले उसके अपराध से फले-फूले कोई और.... !

आज वही गेहुमन लाल के पोता को देख कर ई परसंग याद आ गया। पता नहीं बेचारा गेहुमन लाल तमाम तिकरम से भी परिवार को पोसे नहीं होते तो मिसरिया कहाँ होता.... ! परिवार का वारिश इहाँ गिरेनाईट काटने के लिए पहुँच गया और बेचारे गेहुमन लाल.....च.... च.... ! सोलहो आने सच है, "चोर का अर्जन सब कोई खाय ! चोर अकेला फांसी जाय !!"