बुधवार, 31 अगस्त 2011

देसिल बयना – 96 : खेल खेलाड़ी का पैसा मदारी का

-- करण समस्तीपुरी

“नंद घर अनंद भयो.... जय कन्हैया लाल की...! हाथी-घोड़ा पालकी....!! मदन-गोपाल की....!!! जय कन्हैया लाल की...!!!! हफ़्ता दिन से स्थल पर किशनअठमी का मेला जमा हुआ था। ढकरु ठाकुर वाला परती खेत में अनेक देवी-देवता की मूर्ति सजी हुई थी। किशन भगवान की तो तरह-तरह की झांकी थी। गाय-बछरू सब....। एगो कंश भी था... हई विशाल...! बाप-रे-बाप, कंश को तो देखिये के पकौरिया की हवा गुम हो गई...।

दखिनवारी साइड से जिलेबी और कचरी के गमागम सुगंध उठता था। पचीसनो दुकानें सजी हुई थी। खेल-तमाशा सब। बिहुला के नाच और डरोरी का कीर्तन-मंडली भी आया था। बैसकोप वाला भी था। सच्चे बेजोर मशीन था। न बिजली ना एंटिना। बस चुक्का में आँख घुसाओ और दिल्ली का कुतुब-मीनार देखो.... घर बैठे सारा संसार देखो। बंबईया हिरोइनी सब भी रहती थी उके बक्सा में। हम तो घंटा में एक बार देखिये आते थे।

पुरवारी साइड अखाड़ा पर गाँव-जवार इहाँ तक कि परदेसिया पहलवान सब भी दंड पेलते रहते थे। दुपहरिया दो बजे से झल-फल सांझ तक कुश्ती की आजमाईश होती थी। हलांकि ई बार कलकतिया पहलवान भी आये थे लेकिन लोग-बाग कहते थे कि मुकाबला फिर से जीतेगा बनारस वाला बंठा पहलवान। बाप रे बंठा पहलवान क्या था... बिजली था बिजली। चट हाथ मिलाये.... पट कैसे पटकनिया दे दे... राम जाने। मिनटे भर में हल्दी-चूना बोला देता था। लटोरन भैय्या दुपहर से लेकर सांझ तक अखाड़ा पर से हिलते नहीं था। फिर सांझे खाकर बैठ जाते थे बिहुला के नाच में... किला हिला दे महोबा गढ़ के....!

मतलब एहि बूझ लीजिये कि रेवाखंड के किशनअठमी का मेला क्या था... सतरंगी इंद्रधनुष। सब के लिये अनंद ही अनंद। बुढौ लोक कीर्तन.. जुआन सब कुश्ती-बिहुला, लड़िका बच्चा बैसकोप, मेहरी-मेहरारू के लिए मीना बजार... झुमका-बाली, अंगिया, टिकुली सब बिक रहा है चकाचक। ई किस्सा तो हर किशनअठमी का था। ई बार का इस्पेसल था नैनागढ़ के नटलीला।

मोछुआ मदारी दर्जन भर नट-नट्टिन लेके आया था। सब अपना-अपना फ़न का माहिर। उका ढोलकिया भी था कसरती। कमची और बेंत से डा... डिग्गा.... डा... डिग्गा.......... दे ढोलक पर ताल.... पूरा इलाका गनगना देता था। मोछुआ मदारी के सीटी के साथ ही शुरु हो जाता था करतब। रस्सी पर चले में फूलबा नट्टिन का कोई जोर नहीं था। एकदम से लिक-लिक पतरी थी.. उ से भी पतरी रस्सी और उ रस्सी पर लौंग की डाल की तरह लचकती हुई चलती थी। रस्सी पर कबड्डी के बाद होता था मौत का झूला। बाप रे बाप, डाँर और गर्दन में रस्सी बांध के उपरका रस्सी में लटका देता था और फूलबा रस्सी के गोल-गोल ऐसे रोलर-कास्टर करती थी जैसे कि साच्छात किशन भगवान के अंगुरी में सुदर्शन चक्र नाच रहा हो। मौजूद भीड़ दे ताली और रेजगारी की वर्षा...।

वही में एगो था खिलाड़ी मोतीलाल। उ तो पछिला जनम में जरूर हनुमानजी रहा होगा। बेटा हवा में बेलटी उलटते रहता था। एक बार उड़े तो सुंई-सुंई कर गोल चक्कर खाते उपर और फिर सुंई-सुंई करते नीचे। कम से कम चौबिस राउंड मारता था हवा में। उका सबसे फ़ेमस करतब था अग्निपथ को पार करना। जैसे हनुमानजी समुंदर पार किये थे वैसे ही मोतीलाल आग का समुंदर पार करता था। चार गो बांस का चौकोर बना के बीच में आग लगा देता था। उके चारो दिश बड़ा-बड़ा नुकीला चाकू लगा रहता था। ई मोतिया फ़र्लांग भर दूर से दौड़ कर आता था और सराक से आग और चाकू के बीच से उ पार। का एम था! थोड़ा भी उनीस-बीस हो तो चाकू दे चीथड़े उतार और वहीं पर अग्नि-संस्कार भी हो जाए। हरि बोल।

मोतीलाल के बाद नंबर आता था नट चौठीमल का। उ था भाला एक्सपर्ट। भाला के नोख को सीधा हाथ पर खड़ा करे। दोनों हाथ पर बारी-बारी से लोकता था भाला को। फिर हवा में उछाल के जीभ पर और जीभ से उछालकर माथा पर... तब पब्लिक देती दनादन ताली।

ई तरह का एकावन खेल दिखाते थे। खेल खतम होते-होते मोछुआ मदारी के सामने रेजगारी की ढ़ेर लग जाती थी। बीच में एकाध मुड़े-तुड़े नोट भी होते थे, जिसे मोछू मदारी बड़ी सावधानी से सीधाकर के मिर्जई के दामन में सहेजकर रखता था। फिर सारे नट-नट्टिन सिर नवा-नवाकर भीड़ की जय-जयकार करते हुए तंबू में चले जाते थे। सारा पैसा समेट कर मोछुआ सब से पीछे सीना ताने चलता था। हमलोग पछिला पांच दिन से लगातार देख रहे थे। मिस करने का तो सवाले नहीं था।

लड़िकन के साथ-साथ कई बड़े बुजरुग भी मोछुआ मदारी का खेल देखने आते थे। रोज नियम से। बतहू काका भी उनमें से एक थे। पहिला दिन तो खूब ताल ठोंक-ठोंक के उत्साह बढ़ाए थे खिलाड़ियों के। दूसरे दिन भी। मगर तीसरे दिन से थोड़ेक सुस्त पड़ गये। चौथे दिन गये नहीं। पांचवे दिन हमलोग उनके घर से गुजर रहे थे। चौबनिया अवाज लगा दिया, “हौ बतहू काका....! अरे चलिये महराज... नट-खिलाड़ी का करतब शुरु है....।” बतहू काका बीड़ी का सोंट मारते हुए निकले। धुआं उगलते हुए बोले, “तुम लोग जाओ... हमको ई नजायज खेल नहीं पचता है।” “खेल में का जायज और नजायज...?” अगिला सवाल खिखरा पूछा था। बतहू काका बीड़ी के बचे हुए हिस्से को जमीन में रगड़कर अपने दहिने कान के उपर खोंसकर बोले, “अरे तुम लोग अभी बाल-बुतरुक हो... सिरिफ़ खेल देखते हो... और कछु नहीं दिखाता है न तुमको...। हमलोग तो परदा के पाछे का भी खेल देख लेते हैं। गंधी बाबा क्या कहे हैं...? कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो...। तो बताओ भला के... सरकस हो कि नटखेल... हम बुरा देखने काहे जाएं?”

“मगर ई में बुरा क्या है, काका?” जोखूलाल चिढ़कर बोला था। “वाह रे वाह... बुरा नहीं है...? सिरिफ़ खेल देखोगे तो क्या बुझाएगा...? खेल के बाद देखो, तब पता चलेगा। अरे हमलोग तो पाटी-पोल्टिस सब जानते हैं। दो आँखे आगे तो चार आँख पाछे भी रखते हैं। तुमलोग सिरफ़ खेल देखे और हम देखे “खेल खिलाड़ी का पैसा मदारी का”। बताओ ई कहाँ का इंसाफ़ है ? मेहनत किसी का और फल पाए कोई और? बेचारा खिलाड़ी सब जान पर खेल-खेलकर करतब करे... और पैसा का पोटली बांधे सार मोछुआ मदारी...। ऐसन खेल तुम्ही लोग देखो।” बोलते-बोलते बतहू काका की आँखों में रोष की लाली दौड़ गयी थी।

मगर काका की बात सुनने के बाद हमलोगों को भी नटखेल देखने का मन नहीं कर रहा था। मन कचोट रहा था। सच्चे तो बेचारी फुलवा रस्सी पर कबड्डी खेलती है...कहीं दायें-बायें हुआ तो जय-जय श्रीसीताराम। मोतीलाल का निशाना कहीं चूका तो बोलदे वृंदावन बिहारीलाल की जय। और सबसे तो चौठीमल का भाला कहीं जीभ के बदले आँखे पर आ लगे तब तो हो गया हर-हर महादेव। इतना जोखिम भरा खेल दिखाए खिलाड़ी और माल समेटे मोछुआ मदारी... सच में क्या देखने जाएं... खेल खिलाड़ी का पैसा मदारी का?” हमलोग सकदम वहीं खड़े रहे।

कुछ देर तक मन संताप, क्षोभ, संकल्प-विकल्प में उलझा रहा। फिर सोचे ई में मोछुए मदारी का क्या दोष। ई खेल तो उपर से लेके नीचे तक हो रहा है। घर से लेकर दफ़्तर तक। सड़क से लेकर संसद तक। सब जगह तो वही बात है। “खेल खेलाड़ी का पैसा मदारी का”। फिर काहे नटखेल का मजा लेने से भी वंचित रहें? धीरे-धीरे चल दिये स्थल दिश। ढोल की थाप साफ़ सुनाई देने लगी थी, “डा... डिग्गा... डा... डिग्गा...।”

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर --
    प्रस्तुति |
    बधाई ||

    थोड़ा भी उनीस-बीस हो तो चाकू दे चीथड़े उतार और वहीं पर अग्नि-संस्कार भी हो जाए। हरि बोल। मोतीलाल के बाद नंबर आता था नट चौठीमल का--

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  2. अच्छी प्रस्तुति.
    ईद की बधाई और शुभकामनायें....

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  3. करण बाबू!
    दिरिस खींचने में त आपका कोनों मुकाबला नहीं है.. कोनों टक्कर नहीं दे सकता है आपको.. एकदम आदमी को सीधा मेला में पहुंचा देते हैं.. बाकी अंतिम अंतिम तक आते आते मन उदास हो गया. आजकल त मदारियों को पैसा नहीं मिलता है.. भीडियो गेम का ज़माना में के देखता है ई सब खेला.
    लगता है कि एही से पहिला ज़माना में खेला के बाद मदारी एलाउंस करता था कि जो आता, चावल अउर पइसा लाकर नहीं देगा रात को बारह बजे उसका मुँह से खून बिगने लगेगा. लोग डेरा कर प्इसा दे जाता था!!
    बहुत अच्छा!!

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  4. खूब बजा है बाजा, खूब जमा है खेल.

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  5. करन भाई... बात बात में एक दिन आप से कह दिए कि बयना को आज से समय से जोडिये और उसके बाद देख रहे हैं कि देसिल बयना का प्रभाव बढ़ गया है... वाकई आज ऊपर से नीचे तक मदारी चांदी काट रहा है.. और बेचारा बन्दर भालू तपेदिक का शिकार है.... एक बार मनोज जी से चर्चा हो रही थी कि आपके बयना में आये पात्र अपने साथ एक आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि लाते हैं.. इस पर विशेष चर्चा हो सकती है.. और आजे के पात्र के नाम कुछ ऐसे ही हैं... जैसे जोखुलाल...बहुत समसायिक रचना है आज की बयना

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  6. कहानी कहने में महारत हासिल है ... बहुत अच्छी प्रस्तुति ... खेलता कोई है और कमाता कोई है ...

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  7. यह देसिल बयना "खेल खिलाड़ी का और पैसा मदारी का" बड़ा ही रोचक है। साथ ही यह आधुनिक व्यवस्था पर बहुत ही करारा चोट करता है। आभार।

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  8. यह तो अन्ना का जुमला रहा जिसे उन्होंने अभी हाल में रामलीला मैदान से जोरो से उछाला था। करण जी आपने इसे लपकने में तनिक भी देर नहीं की और बहुत रोचक अंदाज में हम सबके सामने परोस दिया। भई वाह! यही कहना चाहेंगे हम इस समय।

    आभार,

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