गुरुवार, 12 अगस्त 2010

ऑंच – 30 :: अरुण राय की कविता 'कील पर टंगी बाबू जी की कमीज'

ऑंच – 30

अरुण राय की कविता 'कील पर टंगी बाबू जी की कमीज'

हरीश प्रकाश गुप्त

प्रयोगवाद के अनन्य समर्थक अज्ञेय ने अपने चिंतन से स्वातन्त्रयोत्तरी कविता को नई दिशा दी। उन्होंने परम्परागत प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग पर करारा प्रहार करते हुए शब्दों में नया अर्थ भरने की बात उठाई थी। उनकी वैचारिकता से बाद के अधिकाँश कवियों ने दिशा ली, प्रेरणा ली और कविताओं में नए रंग सामने आने लगे। नए बिम्बों के प्रयोग के संदर्भ में देखें तो अरुण राय ने कविता 'कील पर टंगी बाबू जी की कमीज' (लिंक) में 'कील' को प्रतीक रूप प्रयोग कर अपने कौशल से विस्तृत अर्थ भरने का सार्थक प्रयास किया है। प्रयोग की विशिष्टता से कील मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति बन सजीव हो उठी है। कील महज कील न रहकर सस्वर हो जाती है और अपनी अर्थवत्ता से विविध मानसिक अवस्थाओं यथा - आशा, आवेग, आकुलता, वेदना, प्रसन्नता, स्मृति, पीड़ा व विषाद का मार्मिक चित्र उकेरती है। कविता में जहाँ काव्य के प्राणतत्व आवेग और संवेग मौजूद हैं, वहीं सुख, दुख की अनुभूतियां भी मुखरित हुई है और मनोजगत की गहराई भी वाणी के रूप में उच्चरित होती दिखाई पड़ती है। इसमें भावों का आकर्षण विद्यमान है।

कविता में अर्थ स्पष्ट है। कील द्वारा शर्ट का भार अकेले ढोना संवेदना जगाता है और यह परिवार के जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा मुश्किलों का सामना करते हुए उत्तरदायित्वों को कठिनाई से निर्वाह करना व्यंजित कर जाता है। ‘राशन की सूची’, ‘माँ का चीखना-चिल्लाना’, ‘बाबूजी के बहाने’ और ‘पैसे का जुगाड़’ सभी आर्थिक कठिनाई को मुखरित करते हैं और यह आर्थिक तंगी कविता में एक बार नहीं कई बार अलग-अलग शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। यथा-

चिट्ठी में दुआओं के साथ

उनकी जरूरतों का लेखा जोखा

जिन्हें कभी पूरा कर पाते थे बाबूजी

कभी नहीं भी

और

जब बाबूजी लाए थे

शायद पहली बार

माँ के बिछुए

अपनी आखिरी तनख्वाह से।

कविता के दोनों ही अंशों में आर्थिक कठिनाई मजबूरी के रूप में पूरे अर्थवत्व के साथ उपस्थित है। इस मजबूरी में निराशा की भावना नहीं है, बल्कि दूसरों की खुशी के लिए उससे पार पाने की सुखद अनुभूति है। इसके साथ ही सुखद क्षणों को अभिव्यक्त करते समय शब्द प्रयोग-कौशल से हौले-हौले संवेदना जगाते हैं और प्रसन्नता अन्तर्मन की खुशी में परिणत हो जाती है।

‘जिसे सबके सोने के बाद

गर्व से दिखाया था उन्होंने

माँ को

नींद से जागकर।’

और

‘कील उस दिन

‘खुश थी।

जिस दिन बाबू जी ने बाँची थी मेरी पहली कविता

माँ को

फिर नींद से जगाकर।’

कविता की अंतिम पंक्तियाँ बाबूजी के स्मृति शेष होने की वेदना को दर्शाती हैं। यद्यपि कविता का प्रमुख बिम्ब सुख-दुख की समानुभूति है लेकिन वह अंत तक आते आते वेदना का स्मरण करती हुई एकांगी हो जाती है। कविता जिसके इर्द गिर्द रची गई है वह बिम्ब है ‘कीलְ न कि ‘कमीज’। प्रारम्भिक पंक्तियाँ कमीज के महत्व को दर्शाती है और कविता शीर्षक की दिशा में आगे बढ़ती हैं। यदि समग्र में देखें तो यह कविता का मूल भाव नहीं है परन्तु कविता जब धीरे-धीरे आगे बढ़ती है तो पूरी अर्थवत्ता के साथ अपने प्रवाह में आ जाती है। कविता भावप्रवण है। लेकिन यदि हम शिल्प की दृष्टि से परखें तो इसमें शब्द संयम का अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है जिससे कविता कहीं-कहीं व्याख्यात्मक हो गई है। कहीं कहीं गद्य की तरह पूर्ण वाक्य आ गए हैं जो काव्यत्व में बाधक हैं। कुछ स्थानों पर लिंग दोष भी मौजूद हैं, यथा- 'बाबू जी की जेब में था, मेरे परीक्षा परिणाम की कतरन' या ''बाबू जी के जेब में होती थी दादाजी की चिट्ठी'' इसी प्रकार कुछ ये प्रयोग भी दिख जाते हैं –

''होती थी

राशन की सूची

जिसे बाबूजी

हफ्तो टालमटोल करते रहते थे बाबू जी।’

कविता में कील पूर्णरूपेण पितृत्व को व्यंजित कर रही है, अर्थात जिस प्रकार कील पर पिता जी की कमीज अपनी जेब में परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को अपने में भरे रहती थी उसी प्रकार पिताजी उस कील की तरह हैं जिस पर सभी आवश्यकताएं और आकांक्षाएं टंगी हैं।

कविता में एक-एक शब्द के प्रति सजग रहने की आवश्यकता होती है अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से कविता के कसाव में कमी आ जाती है। कविता में 'बाबू जी' शब्द का बारम्बार प्रयोग अतिक्रमण करता है और अर्थ गरिमा को आघात पहुँचाता है। संक्षेप में इस कविता के बारे में कहा जा सकता है कि यह सुन्दर भावभूमि पर विरचित बेजान बिम्ब में प्राण भरती संवेदनशील रचना है जिसे शिल्प में धार देकर और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता था।

50 टिप्‍पणियां:

  1. .. कुछ भी कहने लायक नहीं..बस महसूस करने लायक अभिव्यक्ति...

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  2. .. कुछ भी कहने लायक नहीं..बस महसूस करने लायक अभिव्यक्ति...

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  3. अरुण जी आपकी रचनाएँ ह्रदयस्पर्शी होती हैं

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  4. कनिता भी सुन्दर और समीक्षा का तो जवाब नही!

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  5. हम्म! बस, खो गये पढ़ते पढ़ते..

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  6. आलोचनात्मक ब्याख्यान अच्छा लगा।

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  7. आग्रहों से दूर वास्तविक जमीन और अंतर्विरोधों के कई नमूने प्रस्तुत करती इस कविता पर उच्चस्तरीय समीक्षा प्रस्तुत करने के लिई आपका आभार, हरीश जी।आपका मूल्यांकन – पथ-प्रदर्शक होंता है।

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  8. गुप्त जी की समीक्षा वस्तुपरक है और कवि, कविता तथा काव्य विन्यास पर पूर्णतः केंद्रित है... मूल कविता भी पढी..जो भावुक करती है, क्योंकि अधिकतर मध्यम्वर्गीय व्यक्ति इसमें वर्णित घटनाओं से स्वयम् को सम्बद्ध पाता है. धन्यवाद, आँच के इस अंक के लिए!!

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  9. बढ़िया समीक्षा
    अरुण जी को नियमित पढ़ती हूँ वो साधारण बस्तुओं से असाधारण रचते है जो सीधा मन को छूता है

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  10. ग़ज़ब की समीक्षा.... मैं भी खो गया..........

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  11. अद्भुत.... मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं समीक्षा की प्रशंसा करूँ या इर्ष्य....... गुरु जी तुस्सी ग्रेट हो !

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  12. सार्थक और सटीक समीक्षा .....यह रचना मुझे बहुत अच्छी लगी थी ...इसकी समीक्षा पढ़ हमें भी अपने लेखन में सुधार का मौका मिलता है ...आभार

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  13. कविता के हर पहलू को परिभाषित करती हुई समीक्षा बहुत अच्छी है।

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  14. @ संजय भास्कर जी,
    ब्लाग पर आने के लिए तथा उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  15. @ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी,

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  16. @ समीर जी,

    आप ब्लाग पर आए, धन्यवाद। आप ब्लाग की दुनिया के शीर्ष पुरुष हैं, आप की टिप्पणी मायने रखती है।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  17. @ राजभाषा हिंदी ,

    आपका शुभाशीष चाहिए।
    आभार,

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  18. @ हास्यफुहार ,

    प्रोत्साहन के लिए आभार।

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  19. @ मनोज जी,

    यह आपकी सद्भावना है। वैसे मैं अभी भी आप जैसे लोगो से सीख रहा हूँ। आपकी टिप्पणी से प्रोत्साहन मिलता है। आपका आभार।

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  20. @ संवेदना के जी,

    यह रचना पर मेरे विचार मात्र हैं। प्रोत्साहन के लिए आभार।

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  21. आंच. जब मनोज जी ने आंच के बारे में बताया और सूचना दी कि मेरी कविता आंच पर रखी जा रही है.. सहसा मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. मन घबराया हुआ था कि मेरी कोई कविता पहली बार समीक्षक के सामने से जुग्रेगी... लेकिन आंच शब्द आने से सबसे पहले माँ की याद आ गई जो गाँव में आज भी धीमी आंच पर चावल के आते की मोती रोटी पकाती है... बहुत सुस्वादु होती है वे रोटिया... मैं भी चूल्हे के पास बैठ जाया करता था और कभी कभी आंच लगा दिया करता था.. यानि लकड़ी चूल्हे में आगे बढ़ा दिया करता था... आंच मुझे तभी से बहुत रचनात्मक और सृजनात्मक लगती थी... आज फिर वैसा ही आभास हुआ और आज सामने हैं हरि प्रकाश गुप्त जी .
    बहुत सोच समझ कर मैं कविता नहीं लिखता और मेरी कविताओं में मेरे आसपास की चीज़ें ही होती है. इस से यदि कोई विम्ब निकल आता है तो स्वयं भी अच्छा लगता है.. लेकिन वर्तमान कविता "कील पर टंगी बाबूजी की कमीज " प्रभावशाली बन जायेगी इसकी उम्मीद नहीं थी. हाँ मैं चाहता था कि हमारे आसपास की चीज़ें किसप्रकार हमें देखती हैं वह बताना चाहता था और शायद कुछ हद तक सफल भी हुआ... लेकिन जितनी शिद्दत से हरीश प्रकाश गुप्त जी ने कविता की समालोचना की है.. मैं स्वयं ही अपनी कविता को कई बार पढ़ गया और इस बार पढ़ कर कविता अधिक अच्छी लगी.. कुछ नए आयाम मेरी कविताओं में गुप्त जी ने देखे हैं जो स्वयं मुझे नहीं लगी थी.. यह देख काफी अच्छा लगा और आगे लिखने और सोचने में मदद मिलेगी..
    सर्जना की प्रक्रिया में इन् आयामों को अगर ध्यान में रखा जाय तो कविता वास्तव में पूर्ण बनेगी.. लिंग निर्णय कमजोरी है और अध्ययन कर रहा हूँ.. आगामी कविताओं में यह कम मिलेंगी.. 'बाबूजी' का अधिक प्रयोग हो गया था... शायद नाटकीय प्रभाव लाना चाहता था... शब्द संयम के महत्त्व को समझ रहा हूँ... मेरे ए़क इ-मेल मित्र है.. निर्मल गुप्त जी (http://n-kumarsambhav.blogspot.com/) जिन्होंने इस कविता में कुछ अर्थपूर्ण सुझाव दिए थे और पहले मैंने 'शर्ट' लिखी थी लेकिन उनके सुझाव पर इससे 'कमीज' किया . आज मैं मनोज जी, हरि प्रकाश गुप्त जी और साथ ही निर्मल गुप्त जी का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ.. फिर से आंच पर आने के इन्तजार में अरुण

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  22. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  23. @ सोनल जी,

    आपके ब्लाग पर आने और प्रोत्साहन से प्रसन्नता हुई। आभार।

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  24. @ महफूज अली जी,

    आपकी भावनाओं का आदर करता हूँ।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  25. @ महफूज अली जी,

    आपकी भावनाओं का आदर करता हूँ।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  26. @ करण जी,

    आप बहुत भावुक व्यक्ति हैं मैं आपका आदर करता हूँ। मैं कोई गुरु या उनके समकक्ष कदापि नहीं हूँ। प्रतिदिन कुछ न कुछ सीखता रहता हूँ इसलिए अभी शिष्य कहना अधिक उपयुक्त रहेगा। आभार।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  27. @ संगीता जी,

    आपकी भावनाओं का आदर करता हूँ। आपके ब्लाग पर आने से प्रसन्नता होती है।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं
  28. @ आचार्य राय जी,

    आप हमारे प्रेरणास्रोत हैं। आपकी टिप्पणियों से मार्गदर्शन मिलता है।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

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  29. 'कील पर टंगी बाबू जी की कमीज' .....sadharan vishay aur asadharan vimb prayog, shabd sanyojan nishabd kar dene ke liye paryapt hain. manviy samvednaon se paripurn kavi ki kalpana aur lekhan shaile ne ek alag prabhav chhoda hai. Is kavita ka "AANCH" par aana hi kasauti hai ki yah kundan hai. Bahut shubhkamnaayen.. aapki lekhni anvarat gatiman rahe.

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  30. 'कील पर टंगी बाबू जी की कमीज' .....sadharan vishay aur asadharan vimb prayog, shabd sanyojan nishabd kar dene ke liye paryapt hain. manviy samvednaon se paripurn kavi ki kalpana aur lekhan shaile ne ek alag prabhav chhoda hai. Is kavita ka "AANCH" par aana hi kasauti hai ki yah kundan hai. Bahut shubhkamnaayen.. aapki lekhni anvarat gatiman rahe.

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  31. @ अरुण जी,

    सबसे पहले तो आपको समीक्षा हेतु भावभूमि उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद देता हूँ। समीक्षा पर आपकी टिप्पणी ने और खुशी दी। आप बहुत सहृदय व्यक्ति हैं जो आपने सुझावों को खुले दिल से स्वीकार किया। सामान्यतया आँच की आँच सह पाना आसान नहीं होता है। आपका कहना सही है कि आप अपने आसपास से विषय उठाते हैं और उन्हें नई दृष्टि से देखने का प्रयास करते हैं। सृजन की प्रक्रिया भी यही है। कविता में आपका बिम्ब जीवंत है। यदि मुझे इस कविता का शीर्षक लिखने का अधिकार होता तो मैं केवल ‘कील’ शीर्षक ही लिखता। क्योंकि शीर्षक सम्पूर्ण कविता का प्रतिनिधि है अतः इसमें तृणमात्र भी शिथिलता नहीं बरती जा सकती। आपकी यह उक्ति मुझे बहुत ही आकर्षक और सर्जनात्मक लगी कि ‘हमारे आसपास की चीज़ें किस प्रकार हमें देखती हैं’। वाह।

    शुभकामनाओं के साथ आपका पुनः आभार।

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  32. @ मेरे भाव,

    ब्लाग पर आने के लिए तथा प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।

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  33. सुन्दर कविता की सुन्दर समीक्षा. बधाई

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  34. @ शमीम जी,

    आपको समीक्षा पसंद आई। प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।

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  35. जिस तरह से समीक्षा की गयी है उस के बाद तो दिल करता है एक बार और पढी जाये फिर उसके बाद जब वापस आओ तो फिर एक बार फिर समीक्षा पढने के बाद दिल करता है एक बार फिर पढी जाये……………सच समीक्षा ऐसी ही होनी चाहिये कि प्रोत्साहन के साथ साथ कमियों पर भी दृष्टिपात करे ताकि कवि या लेखक एक बार फिर सोचने पर मजबूर हो जाये और उसके लेखन मे निरंतर निखार आता जाये।
    कविता पर तो पहले ही कमेंट कर चुकी हूँ …………आज तो समीक्षा ने एक नयी दृष्टि दी है।
    बेहतरीन समीक्षा।

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  36. @ वंदना जी,

    आपकी टिप्पणी हृदयस्पर्शी है। आपकी भावनाओं का मैं आदर करता हूँ तथा प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।

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  37. कविता तो अद्वितीय है ही ..समीक्षा का भी जबाब नहीं .

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  38. रचना और समीक्षा दोनों अदभुत.

    रामराम.

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  39. bahut sunder kavita aur bahut sarthak sameeksha.bar bar dono ko padh kar toulate rahne ko ji chahta hai.....

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  40. jaise kachchi mitti ki matki aanch se gujer ker itni mazboot ho jati hai ki fir usko aanch per rakh khana pakaya jata hai........
    waise hi arun ji ki ye rachna jis aanch se gujri hai ......tap ker aur nikher gai hai......
    itni sunder samiksha ki roshni peri hai ki her lafz ko ek mayene mil gaye......

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  41. सार्थक और सटीक समीक्षा..
    कविता के हर पहलू को परिभाषित करती हुई ..
    यह प्रस्तुति बहुत ही अलग..लेकिन मनभवन लगी...एक नया प्रयोग लगा यह..
    सुन्दर कविता की सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई स्वीकारें..
    और आपका हृदय से आभार...

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  42. कविता तो अद्वितीय है ही ..समीक्षा का भी जबाब नहीं!

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  43. शानदार कविता के साथ जानदार समीक्षा.आशा है आगे भी ऐसे ही समीक्षा मिलती रहेगी.धन्यवाद.

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  44. अरुण राय की कविता पर समीक्षा पढ़ी -एकदम सटीक है.अरुण अपनी इस कविता में अत्यंत साधारण बिम्बों के असाधारण आख्यान लेकर उपस्थित हैं .उनकी साफगोई ही उनकी कविता की ताकत है .
    समीक्षक एक सार्थक समीक्षा के लिए साधुवाद के पात्र हैं .

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  45. bahut sundar aur saarthak samiksha ki gai hai. iske liye manoj ji, arun ji aur harish ji - teenolog badhai ke adhikari hai.

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