भारतीय काव्यशास्त्र :: विप्रलम्भ शृंगार
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में रसों के क्रम से सम्बन्धित आचार्य अभिनवगुप्त के विचारों और संयोग शृंगार पर चर्चा की गई। इस अंक में विप्रलम्भ शृंगार या वियोग शृंगार के पाँच भेदों के विषय में चर्चा की जायेगी।
विप्रलम्भ शृंगार के पाँच भेद माने गये हैं:- अभिलाष, ईर्ष्या, विरह, प्रवास और शाप।
अभिलाष का दूसरा नाम पूर्वराग भी है। इसके अन्तर्गत उन नायक-नायिकाओं की अनुरक्ति का वर्णन पाया जाता है जिन्हें समागम का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है:-
प्रेमाद्र्रा: प्रणयस्दृश: परिचयादुद्ढरागोदया-
स्तास्ता मुग्धदृशो निसर्गमधुराश्चेष्टा भवेयुर्मयि।
यास्वन्त:करणस्य बालकरणव्यापाररोधी क्षणा-
दाशंसापरिकल्पितास्वपि भवतानन्दसान्द्रो लय:।
यह श्लोक आचार्य मम्मट ने महाकवि भवभूति के नाटक मालतीमाधव से उद्धृत किया है। इसमें नायिका मालती की प्राप्ति के लिए नायक माधव श्मशान साधना करता है। इस श्लोक में मालती के प्रति उसके पूर्वराग का वर्णन किया है। इसका अर्थ है - मोहक नेत्रों वाली मालती के प्रेम से आर्द्र, प्रणय का स्पर्श करने वाली एवं परिचय के कारण उद्गाढ़ राग से भरी हुई भावपूर्ण चेष्टाएँ मेरे प्रति हों, जिनकी कल्पना मात्र से इस समय बाह्य इन्द्रियाँ व्यापार शून्य हो गयी हैं और अन्त:करण आनन्द सागर में लय हो गया है।
डाँ भगीरथ मिश्र ने अपनी पुस्तक काव्यशास्त्र में हिन्दी कविता का निम्नलिखित उदाहरण दिया है -
दीठ परयो जौतें तौतें नाहिन टरहिं छवि,
आँखिन छायो री छिन-छिन छालि-छालि उठै।
बाजि-बाजि उठत मिटौहैं सुर बंसी मोर,
ठौर-ठौर टीली गरबीली चालि चालि उठै।
कहरि-कहरि उठै पीरे पटुका को छोर,
साँवरे की तिरछी चितौनि सालि-सालि उठै।
डोलि-डोलि कुण्डल उठत वेई बार-बार,
एरी! वह मुकुट हिए में हालि-हालि उठै॥
विप्रलम्भ का अगला भेद ईर्ष्या है। इसका दूसरा नाम मान भी है। आशा के विपरीत अपराधजनित प्रणय-कोष की स्थिति ईर्ष्याजनित या मानजनित विप्रलम्भ कहा जाता है -
सा पत्यु: प्रथमापराधसमये सख्योपदेशं बिना
नो जानाति सविभ्रमाङ्गवलनावक्रोक्ति-संसूचनम्।
स्वच्छैरच्छकपोलमूलगलितै: पर्यस्तनेत्रोत्पला
बाला केवलमेव रोदिति लुठल्लोलकैरश्रुभि:॥
उपर्युक्त श्लोक में ईर्ष्या जनित विप्रलम्भ दिखाया गया है। यह अमरुशतक का श्लोक है। यह एक नवोढ़ा नायिका की दशा बताने वाली उसकी एक सखी की उक्ति है जो एक दूसरी सखी को सुनाकर कहती है:-
पति के अन्य स्त्री-प्रसंग जनित अपराध के समय सखियों को बिना बताए अंग-संचालन के हाव-भाव द्वारा वक्रोक्ति से उलाहना देना उसे नहीं आता। इसलिए खुले हुए बालों को बिखराये और आँखों को नचाती हुई वह बेचारी आँसू टपकाती हुई केवल रोती ही रहती है।
हिन्दी में पद्माकर जी का निम्नलिखित कवित्त ईर्ष्याजनित विप्रलम्भ का उदाहरण है:-
बैस ही की थोरी पै न भोरी है किसोरी यह,
याकी चित चाह राह और की मझैया जनि।
कहैं, 'पदमाकार' सुजान रूप खान आगे,
आनबान आन की सु आनि की चलैयो जनि।
जैसे तैसे करि सत सौंहनि मनाय लाई
पै इक हमारी बात एती बिसरैयो जनि।
आजु की घरीते लै सु भूतिहूँ भले हो सयाम!
ललिता को लै कै नाम बाँसुरी बजैयो जनि॥
समागम के बाद भी बड़े लोगों से लज्जा आदि के कारण समागम का अभाव 'विरह' कहलाता है। किन्तु आचार्य विश्वनाथ आदि विप्रलम्भ के चार भेद ही मानते हैं। वे 'विरह' को विप्रलम्भ का भेद नहीं मानते।
आचार्य मम्मट ने विरहोत्कण्ठिता नायिका की विकल दशा से सम्बन्धित निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है।
अन्यत्र व्रजतीति का खलु कथा नाप्यस्य तादृक् सुहृद्
यो मां नेच्छति नागतश्च हह हा कोऽयं विधे: प्रक्रमः।
इत्यल्पेतर कल्पनाकवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे
बाला वृत्तविवर्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि॥
इस श्लोक में रात्रि में चारपाई पर लेटी पत्नी अपने पति की प्रतीक्षा कर रही हैं। पति के आने में विलम्ब के कारण उसकी मानसिक विकलता का यहाँ वर्णन किया गया है - वे कहीं और चले गए? नहीं यह कुविचार है, उनका कोई ऐसा मित्र भी नहीं, जिसे मेरे हित का ध्यान न हो, फिर भी वे अभी तक आए नहीं, कैसा भाग्य का खेल है, ऐसी कल्पनाओं से परेशान वह बेचारी करवटें बदलती हुई रात में सो नहीं पा रही है।
यहाँ पति गुरुजनों (माता-पिता आदि) की उपस्थिति में संकोच के कारण समय से पत्नी के पास नहीं जा पाया। वह उनके सोने की प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसे थोड़े समय के वियोग को विरह जनित विप्रलम्भ माना गया है।
भाव साम्य रखती हिन्दी की निम्नलिखित पंक्तियाँ मुक्तक के रूप में देखी जा सकती हैं -
कहाँ गये कुछ पता नहीं
समझे न ऐसा मित्र नहीं
नजर न आता कारण कोई
सोच रही वह करवट लेती,
कैसी है यह विधि की लेखी।
इसके बाद प्रवासजनित विप्रलम्भ शृंगार है। अर्थात् नौकरी-चाकरी या किसी अन्य कारण से प्रियतम विदेश चला गया हो, ऐसी परिस्थिति में नायक-नायिका के वियोग का वर्णन प्रवासजनित विप्रलम्भ शृंगार कहलाता है।
प्रस्थानं वलयै: कृतं प्रियसखैरस्रैरजस्रं गतं
धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुर:।
यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वे समं प्रस्थिता
गन्तव्ये सति जीवित ! प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते॥
यह श्लोक भी अमरुशतक से लिया गया है। यहाँ एक स्त्री का पति गुरुजनों के आदेशानुसार विदेश जा रहा है। यह समाचार सुनकर पत्नी अपने जीवन को सम्बोधित करती हुई कहती है:-
हे जीवन (प्राण) प्रियतम के प्रवास पर जाने का निश्चय होते ही कंगन पहले ही स्थान छोड़कर चल दिए, अर्थात् दुर्बलता के कारण कंगन अपने स्थान से हट गए हैं, ढीले पड़ गए हैं (गिर पड़ते हैं)। प्रिय को चाहने वाले आँसू लगातार बहे जा रहे हैं। धैर्य रुक नहीं रहा। चित्त भी उनके आगे-आगे ही जा रहा है। हे प्राणों, तुम्हें भी जाना ही है, तो प्रिय मित्र (पति) का साथ क्यों छोड़ रहे हो, अर्थात् तुम भी शरीर छोड़कर निकल चलो।
प्रवासजनित विप्रलम्भ के उदाहरण के रूप में दूलह कवि की एक कविता यहाँ उद्धृत की जा रही है -
चैत चारु चाँदनी चिता सी चमकति चन्द्र,
अनिल की डोलनि अनल हूँ ते ताती है।
कहैं कवि 'दूलह' ये बौरे हैं रसाल, ताप
कूकि उठै कोयलिया मधुर मधुमाती है।
औधि अधिकानी हरि हू की बात जानी,
अब काहे न छटूक ह्वै दरकि जाति छाती है।
गुनो आनि भावनो, बसन्त री बितावनो यों,
सुनो आनि भावनो, बहुरि आई पाती है॥
शाप या दण्ड आदि के कारण नायक-नायिका का लम्बे समय तक वियोग हो, तो उसे शापहेतुक या शापजनित विप्रलम्भ शृंगार कहा जाता है। इसका दूसरा नाम करुणहेतुक भी कुछ आचार्यों ने दिया है। इसके लिए काव्यप्रकाश में महाकवि कालिदास के मेघदूत से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है।
त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागै: शिलाया-
मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम्।
अस्रैस्तावन्मुहुरुपचितैर्दृष्टिरालुप्यते मे
क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्त:॥
मेघदूत के अनुसार कोई यक्ष शाप के कारण अपनी पत्नी को यक्षनगरी में छोड़कर रामगिरि में रहता है। अकेले में वह पत्थर पर गेरू से अपनी पत्नी का चित्र बनाकर जैसे ही उसके उसके चरणों पर गिरना चाहता है, आँसू दृष्टि को आच्छादित कर देते हैं। विधाता कितना कठोर है कि चित्र में भी संगम उसे सह्य नहीं है, यही इस श्लोक का भाव है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि विप्रलम्भ शृंगार के अन्तर्गत काम की दस दशाएँ कही गयी हैं -
अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि, जड़ता और मरण।
कुछ आचार्य दस के स्थान पर ग्यारह दशाएं मानते हैं। वे उक्त दस दशाओं के अतिरिक्त 'मूर्च्छा' को 'मरण' से पूर्व की एक और अवस्था मानते हैं।
अगले अंक में अन्य रसों के विवरण दिए जाएँगे।