समीक्षा
आँच – 62
हरीश प्रकाश गुप्त
वैसे तो दहेज जैसी सामाजिक बुराई को केन्द्र में रखकर बहुत सी कथाएं लिखी गई हैं और उनमें से अधिकतर का पक्ष कन्या पक्ष की पीड़ा को अभिव्यक्त करना रहा है। हालाकि यह विषय बहुत सामान्य सा बन चुका है, लेकिन इस सामाजिक विकृति के कुछ और पहलू भी हैं जो प्रायः अनभिव्यक्त रह गए हैं। वर्तमान सामाजिक ताने-बाने में दान-दहेज मान-सम्मान और प्रतिष्ठा का पर्याय बन चुका है। जिस किसी ने इस विकृति को त्यागकर जीने का प्रयास किया, उसके प्रति तथाकथित प्रतिष्ठित समाज किस प्रकार की दृष्टि रखता है, यह सम्प्रेषित करना इस कथा का अभिनव पहलू है।
इसी माह के प्ररम्भ में इसी ब्लाग पर करण समस्तीपुरी की एक लघुकथा प्रकाशित हुई थी “कोई बात तो जरूर होगी”। करण की यह कथा दहेज के इसी चेहरे को प्रभावशाली ढंग से उजागर करती है। कथा की इस विशिष्टि एवं आकर्षण ने इसे आज की आँच की अन्तर्वस्तु बनाने के लिए प्रेरित किया।
कथानक में, शर्माजी रामदीन, जो उनके नजदीकी हैं, मित्र अथवा संबंधी हैं, के बेटे के विवाह से लौटकर आए हैं। उनके निढाल होकर सोफे पर गिरने से थकान दिखती है। उनकी पत्नी मिसेज शर्मा विवाह की धूमधाम तथा बहू आदि के बारे में जानने को उत्सुक हैं। इसलिए वह प्रश्नों की झड़ी लगा देती हैं। चूँकि शर्माजी की थकान शारीरिक नहीं, बल्कि निराशा और असंतोष से उपजी है अतः वह झल्लाकर उत्तर देते हैं कि “खाक धूमधाम से हुई है ......." “उससे ज्यादा अच्छा तो धनेसर बाबू का श्राद्ध हुआ था”। लड़का बहुराष्ट्रीय कम्पनी में मैनेजर है। समाज के चाल-चलन के मुताबिक मोटा दान-दहेज तो बनता ही है। सामान्यतया महिलाओं की जैसी प्रकृति होती है, सीधे प्रश्न कर लेती हैं। मिसेज शर्मा भी अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाती हैं और पूछती हैं “क्या सब मिला है?”। अर्थात खूब दान दहेज तो मिला होगा। जैसे ही उन्हें पता चलता है कि कुछ भी नहीं लिया, उनकी समझ से यह नहीं मिला है, तो वह दहेज न मिल पाने के लिए कारण (दोष) खोजने लगती हैं। जब उन्हें ज्ञात होता है कि लड़की उसी शहर में नौकरी करती है तो प्रेम प्रसंग की सम्भावना के साथ उसकी आवर्ती आय को ही अपनी सोच के लिए समर्थन का औचित्य ठहरा लेती है। शर्माजी भी समाज के ऐसी ही सोच वाले व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। चूँकि वह पुरुष हैं इसलिए वह पुरुषोचित अहं के कारण इसे शब्दों में सीधे व्यक्त तो नहीं करते लेकिन रामदीन को पोंगापंथी और अक्ल का दुश्मन कहकर अपनी मानसिकता को उजाकर कर देते हैं तथा दहेज से परहेज करने तथा रिश्वत न लेने, न देने के उसके आदर्श की खिल्ली उड़ाते हैं।
कथा में प्रत्यक्ष रूप से, बहुत ही सीमित, दो पात्र – शर्माजी एवं उनकी पत्नी मिसेज शर्मा हैं। इसके अतिरिक्त तीन अप्रत्यक्ष पात्र हैं जिनका जिक्र प्रसंगवश आया है। कथा में प्रारम्भ को छोड़कर सम्पूर्ण कथा पति पत्नी के सवांद पर आधारित है और इन्हीं के माध्यम से यह कथा अपने विकास को अग्रसर होती है। शर्माजी द्वारा यह बताना कि बहू उसी शहर में नौकरी करती है तथा मिसेज शर्मा द्वारा लड़के का बहू से पूर्व संबन्ध होने तथा उसकी आय में ही दहेज न लेने का कारण खोज लेना कथा का उत्कर्ष है और उनकी इसी उक्ति के साथ कथा समाप्त हो जाती है।
लघुकथा का कथानक अत्यंत प्रभावशाली है। यह दहेज प्रथा के सामान्तया प्रचलित पक्ष से इतर पक्ष को उद्घाटित करती है। कथा का शिल्प आद्योपांत संवाद पर निर्भर है और संदेश प्रेषण में पूर्तया सफल है तथापि कुछ स्थानों पर टंकण त्रुटि प्रतीत होती है। एक दो स्थानों पर संवाद में संशोधन की सम्भावना है, यथा – “क्या सब लिया है” अथवा “उन्होंने न आने पर शिकायत को किया होगा” आदि कुछ अटपटे बन पड़े हैं। इन्हें यदि अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली बनाया जाता तो कथा के स्वरूप में निखार आ सकता था। इसी तरह “किरानीगीरी” के स्थान पर “किरानागीरी” तथा “सोना का जूता” के स्थान पर “सोने का जूता” तो अधिक उपयुक्त होता। यह भाषिक त्रुटि है।
कह सकते हैं कि यह कथा समाज के उस विद्रूप चेहरे को बेनकाब करती है जो दहेज के लेन-देन को प्रतिष्ठित करता है तथा जो इसके विरुद्ध हैं, उनका मजाक उड़ाता है और उन्हें हेय दृष्टि से देखता है। इससे उस परिवार और उस व्यक्ति की व्यथा को समझा जा सकता है जो इस बुराई के विरुद्ध खड़ा होता है। आमतौर पर समझा जाता है कि दहेज का दंश केवल कन्या पक्ष को ही भोगना पड़ता है और इसके विरुद्ध सहज सहानुभूति भी इसी पक्ष के साथ जुड़ती है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि समाज का बड़ा तबका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इस लेनदेन का न्यूनाधिक समर्थक ही है। लेकिन इसकी मानसिक पीड़ा वर पक्ष को भी किस प्रकार भोगनी पड़ती है, यह संदेश संप्रेषण ही इस भावपूर्ण लघुकथा का अभिप्रेत है। करण की लघुकथा “कोई बात तो जरूर होगी” इस संदेश को निसन्देह मुखर होकर व्यक्त करती है तथा पाठक के मस्तिष्क को सोचने के लिए विवश कर जाती है।
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