गांधी और गांधीवाद
123. मिट्टी और पानी के प्रयोग
स्वास्थ्य
के नियमों के प्रति गांधीजी के सरोकारों में कटि स्नान और कीचड़ की पुटलियों में
उनकी आस्था और दवाओं के प्रति उनकी घृणा शामिल भी थीं। जैसे-जैसे उनके जीवन में
सादगी बढ़ती गयी, वैसे-वैसे रोगों के लिए
दवा लेने की उनकी अरुचि, जो पहले से ही थी, बढ़ती गयी। कूने की जलीय उपचार की पैरवी और जस्ट की “प्रकृति की ओर वापसी” ने उनपर भारी प्रभाव डाला था। जब कब्ज की उनकी शिकायत
आहार संबंधी प्रयोग से दूर नहीं हुई, तो उन्होंने कूने की प्राकृतिक चिकित्सा के
अनुसार कटि स्नान करना शुरू किया। इससे उन्हें थोड़ा आराम हुआ। फिर भी पूरी तरह से
राहत नहीं मिली। एक मित्र ने उन्हें एडोल्फ़ जुस्ट (Adolf Just) की “रिटर्न टु नेचर” (प्रकृति की ओर वापसी) नामक पुस्तक पढ़ने को दी।
मिट्टी के उपचार के बारे में इस पुस्तक से गांधीजी को जानकारी मिली। मिट्टी के
उपचार के प्रयोग उन्होंने तुरत शुरू कर दिया। इसका आश्चर्यजनक परिणाम आया। इस
उपचार से गांधीजी का क़ब्ज जाता रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने जो उपचार बताए हैं
वह इस प्रकार है - खेत की लाल या काली मिट्टी लेकर उसमें एक खास मात्रा में पानी
डालकर साफ, पतले, गीले कपड़े में उसे लपेटा और पेट पर रखकर उस पर पट्टी
बांध दी जाती है। यह पुलटिस रात को सोते समय बाधा जाता है और सवेरे जब उठते हैं
खोल दिया जाता है। प्रकृति की ओर वापसी पुस्तक के माध्यम से वह सूखे और हरे फल
खाने के फ़ायदे के बारे में वे जान सके। कब्जियत दूर करने के लिए वे रोज़ सुबह एनो
का लवण (Eno’s fruit salts) लिया करते थे।
गांधी की हेनरी पोलाक से मुलाकात मार्च 1904 में हुई और
उसके बाद वे एक-दूसरे से काफी मिलते रहे। उनके रिश्ते जल्द ही बहुत ही
सौहार्दपूर्ण और घनिष्ठ हो गए, और शायद ही
कोई ऐसी बात हो जिस पर वे चर्चा न करते हों। उन दिनों गांधीजी रक्तशोधक
के रूप में कच्चे कटे हुए प्याज भी खूब खाया करते थे। मजाक-मजाक में सलाद में
स्पेनी प्याज के शौक़ीन पोलाक ने अमलगमेटेड सोसाइटी ऑफ ओनियन इटर्स (Amalgamated Society of Onion Eaters ) नाम से एक संस्था का
उद्घाटन कर दिया था जिसके अध्यक्ष गांधीजी थे और खुद को उसका खजांची घोषित कर
दिया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इसके केवल वे दोनों ही सदस्य थे। लेकिन कुछ समय
बाद गांधीजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्याज भावनाओं के लिए खतरनाक हैं, और इस कारण प्याज को छोड़ दिया।
गांधीजी का प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में कहना है, “मनुष्य को दवा लेने की शायद ही आवश्यकता रहती है। पथ्य तथा पानी, मिट्टी इत्यादि के घरेलू उपचारों से एक हजार में से 999 रोगी स्वस्थ हो सकते हैं। क्षण-क्षण में वैद्य, हकीम और डॉक्टर के पास दौड़ने से और शरीर में अनेक प्रकार के पाक और रसायन ठूंसने से मनुष्य न सिर्फ़ अपने जीवन को छोटा कर लेता है, बल्कि अपने मन पर काबू भी खो बैठता है। फलतः वह मनुष्यत्व गंवा बैठता है और शरीर का स्वामी रहने के बदले उसका ग़ुलाम बन जाता है।”
हां गांधीजी यह चेतावनी देना भी नहीं भूलते, “जो जुस्ट की पुस्तक ख़रीदें, वे उसकी हर बात को वेदवाक्य न समझें। सभी रचनाओं में प्रायः लेखक की एकांगी दृष्टि रहती है। जो पुस्तक पढ़ें वे उसे विवेक-पूर्वक पढ़ें और कुछ प्रयोग करने हों तो किसी अनुभवी की सलाह लेकर करें।”
ध्यान देने वाली बात यह है कि गांधीजी के नैतिक और मानसिक दृष्टिकोण पर मूलगामी प्रभाव अधिकतर उनके पश्चिम के संपर्क के कारण पड़ा। हालाकि भारतीयता पर उन्हें गर्व हमेशा रहा, पर जब हम स्वास्थ्य संबंधी प्रयोगों के प्रति उनकी जिज्ञासा और उसके कारणों और परिणामों पर दृष्टि डालते हैं तो हम कह सकते हैं कि यह मुश्किल से ही उनकी परंपरागत हिंदू पृष्ठभूमि की विरासत थे।
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मनोज कुमार
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