गुरुवार, 21 नवंबर 2024

143. अरविंद घोष

 राष्ट्रीय आन्दोलन

143. अरविंद घोष



अरविन्द घोष एक महान दार्शनिक और राजनीतिक चिन्तक थे। इन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, किन्तु बाद में यह एक योगी बन गये और पांडिचेरी में आश्रम स्थापित किया। उन्होंने वेदउपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं।

उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 को कृष्ण-जन्माष्टमी की पावन तिथि को कलकत्ता में हुआ था। इनके पिता कृष्णधन घोष एक डाक्टर थे।  उनकी माता का नाम स्वर्णलता देवी और पत्नी का नाम मृणालिनी था।  5 वर्ष की उम्र में उन्हें दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला कराया गया। लेकिन दो साल बाद ही शिक्षा प्राप्ति के लिए मात्र 7 वर्ष की उम्र में 1879 में ही इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया गया।  18 साल की उम्र में सेंट पॉल से उन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी की। उच्च शिक्षा के लिए 1890 में उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। अरविंद घोष ने कैम्ब्रिज में रहते हुए न सिर्फ आईसीएस के लिए आवेदन किया, बल्कि 1890 में भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। लेकिन घुड़सवारी के जरूरी इम्तिहान को पास न कर पाने के कारण उन्हें सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला। लन्दन में उन्होंने कमल और कटार नामक संस्था की सदस्यता ग्रहण की और देशसेवा का व्रत लिया।

उन्होंने विश्व की अनेक भाषाओं (अंग्रेजीजर्मनफ्रेंचग्रीक एवं इटैलियन) का गहन अध्ययन किया था। भारत आकर उन्होंने राजनीति में दिलचस्पी लेना शुरू किया। उनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अतः उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया।  इसी बीच मृणालिनी नाम की कन्या से विवाह भी हो गया। बडौदा में उन्होंने हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया। 1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में विभिन्न पदों पर कार्यरत रहते हुए रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी।

1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में तिलक से मिले। बालगंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित होकर वह राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े। 1905 में जब बंगाल में बंग-भंग आन्दोलन शुरू हुआ और विभाजन के विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। 1906 में जब बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई तो अरविन्द उसके प्राचार्य हुए। मात्र 75 रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया।

उन्हें उदारवादी कांग्रेसी नीति में विश्वास नहीं था। वह उसकी आलोचना किया करते थे। 1893 में सबसे पहले अरविन्द घोष ने बंबई से प्रकाशित होने वाली ‘इंदुप्रकाश में कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की। उन्होंने लिखा, मैं तब कांग्रेस के बारे में यह कहता हूँ कि उसके लक्ष्य गलत हैं और उनकी प्राप्ति के लिए वह जिस भावना से चलती है, वह ईमानदारी और तहेदिल की भावना नहीं है। उसने जिन तरीकों को चुना है, वे सही तरीके नहीं हैं और जिन नेताओं में वह विश्वास करती है, वे नेता बनने के योग्य व्यक्ति नहीं हैं। संक्षेप में, हम इस वक़्त उन अंधों की तरह हैं, जिनका नेतृत्व अगर अंधे नहीं, तो काने ज़रूर करते हैं। घोष साम्राज्यवाद से समझौता करने की नीति छोड़कर संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहते थे।

नरम दलीय राजनीति की समीक्षा करते हुए 1893-94 में अरविन्द ने ‘न्यू लैम्प्स फॉर ओल्ड’ शीर्षक के अंतर्गत लेखों की एक शृंखला प्रकाशित की। तब वह बडौदा में रहते थे। वह इंग्लैण्ड से अत्यधिक अंग्रेजी वातावरण में पल-बढ़कर भारत लौटे थे। वह अंग्रेजी तौर-तरीकों के खिलाफ प्रतिक्रिया दर्शाने लगे। अरविन्द ने प्रगति के धीमे और संवैधानिक ब्रिटिश आदर्श का निषेध किया। नरमदल इस ब्रिटिश आदर्श का समर्थक था। उन्होंने कांग्रेस की ‘भिखमंगी नीति पर प्रहार किया। उन्होंने कहा था, ब्रिटिश राज के वरदानों की बात आवश्यकता से कुछ अधिक ही की जाती है। उनका मानना था कि सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या थी ‘मध्य वर्ग, जिसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती थी, और ‘सर्वहारा के बीच कड़ी स्थापित करने की। वे राष्ट्रीय आन्दोलन को सर्वहारा के कुशल प्रबंध पर आधारित करना चाहते थे। सर्वहारा से उनका तात्पर्य था शहर और देहातों में रहने वाले आम लोगों से था। इसका ह्रदय जीतने की कुंजी वे बंकिमचंद्र के निबन्धों में प्रतिबिंबित हिन्दू पुनरुत्थान में ढूँढते थे।

वह बंकिमचंद्र और विश्व के महान क्रांतिकारियों से अत्यंत प्रभावित थे। आनंदमठ से प्रेरणा लेकर उन्होंने भारतमाता की पूजा और ‘वंदे मातरम् को अपना आदर्श बनाया। वह क्रान्तिकारी भावना के प्रचारक थे और गुप्त समितियों से संबद्ध थे। उन्होंने अपने समाचारपत्र ‘वंदे मातरम् द्वारा घर-घर क्रांति का संदेश पहुँचाया। वंदे मातरम् में ब्रिटिश के खिलाफ लिखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन वह जल्द ही छूट गए।

स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन को वह स्वराज्य प्राप्ति का मार्ग बनाना चाहते थे। वह इस आन्दोलन को पूरे देश में फैलाना चाहते थे। 1902 के आसपास अरविन्द घोष की सलाह पर उनके भाई बारीन्द्रनाथ घोष ने जतीन्द्रनाथ बनर्जी के साथ कलकत्ता में अनुशीलन समिति की स्थापना की। इसे समूह ने 1906 में ‘युगांतर’ नामक साप्ताहिक निकलना शुरू किया।

अरविन्द घोष एक उग्र राष्ट्रवादी थे। कांग्रेस के विभाजन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने रूस के आतंकवादी ढंग से आक्रामक प्रतिरोध का निश्चय किया।  उन्होंने सन् 1907 में राष्ट्रीयता के साथ भारत को "भारत माता" के रूप में वर्णित और प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बंगाल में "क्रांतिकारी दल" का संगठन किया और उसका प्रचार और प्रसार करने को अनेक शाखाएं खोली और वे स्वयं उसके प्रधान संचालक बने रहे। खुदीराम बोस और कनाईलाल दत्त, यह क्रांतिकारी उनके संगठन के ही क्रांतिकारी थे। इन गतिविधियों के कारण अरबिंदो घोष अधिक दिनों तक सरकार की नज़रों से छिपे नहीं रह पाये और उन्हें फिर से जेल जाना पड़ा।  2 मई 1908 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक क्रान्तिकारी षड्यंत्र अलीपुर बम कांड में वह और उनके भाई बारीन भी अभियुक्त बनाए गए, लेकिन चित्तरंजन दास की जिरह से मुक्त हो गए। मानिकतल्ला के इन क्रांतिकारियों अरविन्द घोष, उनके भाई बारीन्द्र घोष और अन्य लोगों को गिरफ्तार कर अलीपुर में उन पर षड्यंत्र के आरोप में मुक़दमा चलाया गया, जिसे अलीपुर षड्यंत्र केस के नाम से जाना जाता है। मुक़दमे के दौरान एक क्रांतिकारी नरेन्द्रनाथ गोसाईं सरकारी गवाह बन गया। अलीपुर जेल के अहाते में ही क्रांतिकारी कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्र बोस ने गोली मारकर उस मुखबिर की हत्या कर दी। मुक़दमे की पैरवी कर रहे वकील, पुलिस दारोगा और डिप्टी पुलिस सुपरिंटेंडेंट की भी हत्या कर दी गयी। इससे बहुत सनसनी फैली। 6 मई 1909 को अरविन्द घोष तो रिहा हो गए लेकिन अनेक अभियुक्तों को फांसी की सज़ा दी गई। मुखबिर की हत्या करने वाले कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्र बोस को फांसी की सज़ा दी गई। बारींद्र घोष को कालापानी की सज़ा दी गयी। अनुशीलन समिति अवैध घोषित कर दी गई। घोष एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद थे। अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। वह जेल की कोठरी में अपना समय साधना और तप में बिताते थे। गीता पढ़ते और श्रीकृष्ण की आराधना करते। कहा जाता है कि अलीपुर जेल में उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात दर्शन हुए।

साधना में वह इतना रमे कि अरविन्द घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। उन्होंने राजनीति को त्याग, धर्म को अपना लिया। 1910 में वह कलकत्ता छोड़कर पौण्डिचेरी चले गए। पांडिचेरी फ्रांसीसी उपनिवेश था इसके बाद श्री घोष ने अपना सारा समय आध्यात्मिक चिंतन में लगाया। उन्होंने काशवाहिनी नामक रचना की। उन्होंने अपना पूरा जीवन समग्र योग को समर्पित कर दिया, जो समग्र विकास की ओर ले जाता है। उन्होंने 1926 में पांडिचेरी में आध्यात्मिक साधकों का एक समुदाय स्थापित किया, जिसका नाम श्री अरबिंदो आश्रम (ऑरोविले) रखा गया। उन्होंने नव्य वेदांत दर्शन को प्रतिपादित किया। पुद्दुचेरी में उनकी भेंट मीरा अल्फासा से हुई और उनके आध्यात्मिक सहयोग से योग समन्वय" हुआ। इसके अनुसार आध्यात्मिक विकास के माध्यम से संसार को ईश्वरीय अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार किया  जाता है। अरविन्द घोष का मानना था कि पदार्थ, जीवन और मन के मूल सिद्धांतों को स्थलीय विकास के माध्यम से सुपरमाइंड के सिद्धांत द्वारा अनंत और परिमित दो क्षेत्रों के बीच एक मध्यवर्ती शक्ति के रूप में सफल किया जाएगा। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है। वेद और पुराण पर आधारित महर्षि अरविन्द के विकासवादी सिद्धांत की काफी चर्चा हुई।

5 दिसंबर, 1950 को पोंड़ीचेरी (पुद्दुचेरी) में उनका निधन हो गया। कहा जाता है कि निधन के बाद चार दिनों तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया। अंततः 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गयी। भारत की स्वतंत्रता के अग्रदूत, क्रांतिकारी, कवि, लेखक, दार्शनिक, ऋषि, मंत्रद्रष्टा एवं महान योगी श्री अरबिंदो घोष को "भारतीय राष्ट्रवाद का पैगंबर" कहा जाता है। उनका प्रथम संदेश था कि मानव सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है। 

उनकी प्रमुख कृतियां हैं, एस्सेज़ ऑन गीता (1928), द लाइफ़ डिवाइन (1940), कलेक्टेड पोयम्स एण्ड प्लेज़ (1942), द सिंथेसिस ऑफ़ योगा (1948), द ह्यूमन साइकिल (1949), द आईडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी (1949), ए लीजेंड एण्ड ए सिंबल (1950), ऑन द वेदा (1956), द फ़ाउन्डेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर, लेटर्स ऑन योगा, काव्य कृति सावित्री,  फ्यूचर पोयट्री और द मदर हैं। भारतीय संस्कृति के बारे में महर्षि अरविंद ने फाउंडेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर तथा ए डिफेंस ऑफ़ इंडियन कल्चर नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की।

इस महामानव के जीवन से जुड़ी बातें हर प्रबुद्ध भारतवासी के अंतस में राष्ट्र निर्माण की अनूठी प्रेरणा भर देती हैं। अरविंद घोष एक व्यक्ति न होकर प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति थे। बीसवीं सदी के पहले दशक में पूर्ण स्वराज, निष्क्रिय प्रतिरोध और ग्राम स्वराज जैसे विचार देने वाले श्री अरविंद ही थे। ब्रिटिश राज को उनकी कलम से इतना खौफ था कि तत्कालीन वायसराय ने सचिव को पत्र में लिखा, भारत में फिलहाल अरविंद घोष सबसे खतरनाक व्यक्ति है, जिससे हमें निपटना है। श्री अरविंद ने राष्ट्र को शक्ति का स्वरूप माना और लोकमानस से राष्ट्र को ‘मां’ की तरह पूजने का आह्वान किया। राष्ट्र को सबल, संपन्न और महान बनाने के लिए भारतीय युवाओं से सच्चे भारतीय होने और आंतरिक स्वराज प्राप्त करने का आह्वान किया। उन्होंने भारत को ईश्वर द्वारा सौंपे गये दायित्व और भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म को देखने की दृष्टि दी थी। अरविंद का मानना था कि भारत को भारतीय बनकर ही बनाया और बचाया जा सकता है। श्री अरविंद का दावा था कि इस युग में भारत विश्व में एक रचनात्मक भूमिका निभा रहा है तथा भविष्य में भी निभायेगा। 

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

बुधवार, 20 नवंबर 2024

142. गोपालकृष्ण गोखले

 राष्ट्रीय आन्दोलन

142. गोपालकृष्ण गोखले


गोपालकृष्ण गोखले

महाराष्ट्र में एक असाधारण प्रतिभाशाली समुदाय है जिसे चितपावन ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है। तिलक और रानाडे के साथ गोखले और भी इसी समुदाय से थे। गोखले भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के एक सम्मानित नेता, एक शानदार बुद्धिजीवी और एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं में गोपालकृष्ण गोखले का नाम सबसे आगे है। गांधीजी ने उन्हें चरित्र का एक उत्कृष्ट न्यायाधीश माना।

गोपालकृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 में कोल्हापुर, महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता कृष्ण राव गोखले पेशे से क्लर्क थे। उनकी माता का नाम वालुबाई था। उनके माता-पिता गरीब थे, लेकिन उन्होंने उन्हें शिक्षा के लिए स्थानीय कॉलेज में भेजा। उन्होंने कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में पढ़ाई की। वे एक सफल छात्र थे और उन्होंने मुख्य रूप से एलफिंस्टन कॉलेज, बॉम्बे और आंशिक रूप से डेक्कन कॉलेज, पूना में बी.ए. की पढ़ाई की। वह  जॉन स्टुअर्ट मिल और एडमंड बर्क जैसे सिद्धांतकारों के बहुत बड़े प्रशंसक थे। 

1884 में अपनी डिग्री लेने के बाद वह फर्ग्युसन कॉलेज, पूना में प्राध्यापक बने। दक्कन एजुकेशन सोसाइटी’ फ़र्ग्यूसन कॉलेज का संचालन करती थी। गोखले ने प्रोफेसर के रूप में 70 रुपये मासिक वेतन पर यहाँ शुरुआत कीकुछ समय के लिए गोखले ने अंग्रेजी साहित्य और गणित पर व्याख्यान दिया, लेकिन अपनी सेवा के अधिकांश समय में उन्होंने इतिहास और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के पदों पर कार्य किया, जिन विषयों में उन्होंने इतनी अच्छी तरह से महारत हासिल की कि उन्हें इन पर विशेषज्ञ माना जाता है। काम के प्रति उनकी लगन और प्यार इतना था कि कई सालों तक उन्होंने अपनी सारी छुट्टियाँ धन इकट्ठा करने, लगातार यात्रा करने, कष्ट सहने और अपमान सहने के काम में बिताईं। यद्यपि श्री गोखले कभी प्रिंसिपल के पद पर नहीं रहे, फिर भी वे कॉलेज के कामकाज में बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे।

1889 में कांग्रेस का पांचवां अधिवेशन बम्बई में सर विलियम वेडरबर्न की अध्यक्षता में हुआ। इसी वर्ष गोपाल कृष्ण गोखले समाज सुधारक महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य के रूप में  कांग्रेस में शामिल हुए। वह जन-जन तक शिक्षा को पहुंचाना चाहते थे। भारत में सभी तरह के जातीय भेदभाव को खत्म करने के लिए उन्होंने कई काम किये थे। गोखले ने अछूतों या निम्न-जाति के हिंदुओं के साथ दुर्व्यवहार का कड़ा विरोध किया था। 

गोखले ने आम भारतीयों के लिए सार्वजनिक मामलों पर अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व और शक्ति प्राप्त करने के लिए दशकों तक लड़ाई लड़ी। भारत में बड़े पैमाने पर गरीबी की समस्या ने गोखले का ध्यान आकर्षित किया था। स्वदेशी आंदोलन के समर्थक गोखले का मानना ​​था कि आधुनिक औद्योगिक प्रणाली के ढांचे के भीतर ब्रिटिश पूंजी के स्थान पर भारतीय पूंजी लगाने से भारत की व्यापक गरीबी समाप्त हो जाएगी। देश एवं समाज सेवा कार्यों में वह गहरी दिलचस्पी लेते थे। गोखले अपना सारा जीवन सार्वजनिक कार्यों के लिए समर्पित कर चुके थे। 1878 में लॉर्ड सैलिसबरी ने भारतीय सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए आयु सीमा इक्कीस वर्ष से घटाकर उन्नीस वर्ष कर दी, जिससे भारतीयों के लिए प्रतिस्पर्धा करना व्यावहारिक रूप से असंभव हो गया। 1894 के भारत सरकार के प्रेषण ने अंततः एक साथ होने वाली परीक्षाओं को मंजूरी दे दी और यह निर्धारित किया कि "सर्वोच्च पदों पर हमेशा यूरोपीय लोगों का ही कब्जा होना चाहिए"। इसपर गोखले ने कटुतापूर्वक टिप्पणी की: "समान व्यवहार की जो प्रतिज्ञाएँ इंग्लैंड ने दी थीं, उन्होंने हमें हमारे राष्ट्र के लिए एक उच्च और योग्य आदर्श प्रदान किया, और यदि इन प्रतिज्ञाओं को अस्वीकार कर दिया जाता है, तो हमारे प्रति ब्रिटिश शासन का सबसे मजबूत दावा गायब हो जाएगा।"

गोखले में सेवा के प्रति एकनिष्ठ समर्पण गजब का था। सार्वजनिक प्रश्नों का गहन, श्रमसाध्य अध्ययन करने की उनकी आदत, उन्हें सबसे अलग करता था। उनकी सटीकता और तथ्यों को व्यवस्थित करने की अद्भुत क्षमता के साथ-साथ अपने समय के प्रत्येक क्षण को सार्वजनिक भलाई के लिए उपयोग करने के तरीके को हर किसी ने बहुत पसंद किया। गोखले असत्य और कपट के ज़रा से भी दाग ​​को दूर रखते थे। यह बात उनका प्रसिद्ध कथन, 'राजनीति को आध्यात्मिक होना चाहिए' का पूर्वाभास देती है, जिसे उन्हें अपना बनाना था। भारत की गरीबी और अधीनता को समाप्त करने के गोखले के जुनून ने उनके जीवन से बाकी सब चीजों को बाहर कर दिया था।

गोपाल कृष्ण गोखले महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य थे। उन्हें न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे के 'प्रोटेज सन' यानी मानस पुत्र के रूप में नामित किया गया था। कई वर्षों तक उन्होंने मिलकर विश्व की महान समस्याओं, विशेषकर भारत से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया। 1895 में बाल गंगाधर तिलक और उनके समूह द्वारा गोखले और महादेव गोविंद रानाडे को पूना सार्वजनिक सभा के नियंत्रण से बाहर कर दिया था। तिलक के गरमपंथी स्कूल और रानाडे के उदारवादी विचारधारा के बीच की खाई को पाटने के लिए 1896 में गोखले ने अपने गुरु रानाडे के साथ दक्कन सभा की स्थापना की। दक्कन सभा एक राजनीतिक संगठन था जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत के दक्कन क्षेत्र में सामाजिक और राजनीतिक सुधारों को बढ़ावा देना था। इसमें इस बात पर बल दिया गया कि उदारवाद का तात्पर्य जाति और पंथ संबंधी पूर्वाग्रहों से मुक्ति है। 1887 में, श्री रानाडे की इच्छा के अनुसार, श्री गोखले पूना सार्वजनिक सभा की त्रैमासिक पत्रिका के संपादक बन गए। इसके बाद वे दक्कन सभा के मानद सचिव बन गए। वे चार वर्षों तक पूना के एंग्लो-मराठी साप्ताहिक सुधारक के संपादकों में से एक भी रहे।

वह केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य बने। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार से भारत की आत्म-प्रतिष्ठा को और भी ठेस पहुंची। गोखले ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में कहा कि "उस समय के किसी भी एक सवाल ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार से अधिक कटु भावनाएँ पैदा नहीं की हैं।" £3 के कर को गोखले ने अत्याचार बताया और कहा कि इस क्रूर कर ने भारी पीड़ा पैदा की, "जिसके परिणामस्वरूप परिवार टूट गए, और पुरुष अपराध की ओर तथा महिलाएं शर्मनाक जीवन जीने लगीं।"

जब 1895 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूना में अपना ग्यारहवां अधिवेशन आयोजित किया, तो श्री गोखले उसके सचिवों में से एक चुने गए। 1897 में उन्हें बंबई के अन्य प्रमुख सार्वजनिक व्यक्तियों के साथ इंग्लैंड जाकर भारतीय व्यय पर वेल्बी आयोग के समक्ष साक्ष्य देने के लिए चुना गया। वहाँ, अपने उत्कृष्ट प्रशिक्षण के कारण, वे विशेषज्ञ आयोग द्वारा दिए गए कठोर दबाव को झेलने में सक्षम थे, तथा सिद्धांतों की गहन समझ और विवरणों पर महारत दिखाते थे।

1900 और 1901 के दौरान, श्री गोखले बंबई विधान परिषद के निर्वाचित सदस्य थे, जहाँ उन्होंने सबसे उपयोगी कार्य किया। 1902 में वे सर्वोच्च विधान परिषद के सदस्य चुने गए, जिसकी अध्यक्षता भारत के वायसराय करते थे। उनका पहला बजट भाषण जनता के लिए एक रहस्योद्घाटन की तरह आया। तब से बजट के अवसर पर उनके भाषण का उत्सुकता से इंतजार किया जाता था। तथ्यों और आंकड़ों पर उनकी महारत और प्रशासनिक समस्याओं का उनका विस्तृत ज्ञान, साथ ही उनकी सरल, स्पष्ट, सशक्त अभिव्यक्ति और उद्देश्य की गंभीरता, उनके विरोधियों को भी प्रशंसा के पात्र बनाती थी।

भारत के कुछ सबसे उच्च पदस्थ अधिकारी उनके निजी मित्र थे और यहां तक ​​कि लॉर्ड कर्जन ने भी गोखले को एक ऐसा शत्रु माना जो उनके इस्पात के योग्य थे। बताया जाता है कि वायसराय ने कहा था कि श्री गोखले के साथ तलवारें खींचना उनके लिए खुशी की बात थी और गोखले उन सबसे योग्य भारतीयों में से थे, जिनसे वे मिले थे।

1905 में गोखले बनारस कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष बने। गोखले ने टिप्पणी की थी कि उन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस के जहाज की कमान संभालने के लिए बुलाया गया था, जब आगे चट्टानें थीं और चारों ओर गुस्से से भरी लहरें थीं, और उन्होंने ईश्वरीय मार्गदर्शन का आह्वान किया। बंगाल विभाजन के मुद्दे पर कांग्रेस के अध्यक्ष गोखले ने बहिष्कार को एक राजनीतिक हथियार के रूप में स्वीकार किया। गोखले ने घोषणा की कि बंगाल विभाजन के विरुद्ध लोगों के आक्रोश को दर्शाने वाला बहिष्कार आंदोलन "वैध था और है"। स्वदेशी आंदोलन के बारे में बोलते हुए गोखले ने कहा: "मातृभूमि के प्रति समर्पण, जो सर्वोच्च स्वदेशी में निहित है, एक ऐसा गहरा और इतना भावुक प्रभाव है कि इसका विचार ही रोमांचित करता है और इसका वास्तविक स्पर्श व्यक्ति को स्वयं से बाहर निकाल देता है। आज भारत को हर चीज से ऊपर इस भक्ति के उपदेश की आवश्यकता है कि इसे ऊंचे और नीचे, राजकुमार और किसान, शहर और गांव में प्रचारित किया जाए, जब तक कि मातृभूमि की सेवा हमारे लिए जापान की तरह एक जबरदस्त जुनून न बन जाए।"

1906 में उन्होंने गरमपंथियों से मतभेद के बाद भारत सेवक समिति’ (Servants of India Society) की स्थापना की। गोखले का मानना था कि मातृभूमि को ऐसे लोगों की बहुत आवश्यकता है जो स्वेच्छा से सेवा करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दें, और इस सोसाइटी के माध्यम से वे ऐसे लोगों को प्रशिक्षित कर रहे थे जो भारत के लोगों को उनके शारीरिक और नैतिक कल्याण से संबंधित मामलों में शिक्षित करने के महान कार्य के लिए तैयार थे।

वह संवैधानिक आन्दोलन में विश्वास रखते थे, लेकिन सरकार से खुली टकराहट नहीं चाहते थे। गोखले ने भारत में प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए वायसराय की परिषद में एक विधेयक पेश की। असफल होने के बावजूद, गोखले असफलता से निराश नहीं हुए। जब उन्हें पता चला कि उनके विधेयक का भाग्य तय हो चुका है, तो उन्होंने कोई शिकायत नहीं की। परिषद के समक्ष अपने भाषण में उन्होंने कहा: मैं 1870 के अधिनियम के पारित होने से पहले इंग्लैंड में भी आवश्यक प्रारंभिक प्रयासों की कहानी अच्छी तरह से जानता हूं, या तो शिकायत करने के लिए या निराश होने के लिए। इसके अलावा, मैंने हमेशा महसूस किया है और अक्सर कहा है कि हम भारत में वर्तमान पीढ़ी के लोग अपनी असफलताओं से ही अपने देश की सेवा करने की उम्मीद कर सकते हैं।

1909 में, मॉर्ले-मिंटो सुधारों को शामिल करते हुए इंडिया काउंसिल एक्ट पारित किया गया। भारतीयों को बहुत बड़ी निराशा हाथ लगी, और गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था, सुधारों ने अपना आधा मूल्य और अपनी सारी शोभा खो दी है।

1909 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन दिसंबर के अंत में लाहौर में आयोजित किया गया। गोखले ने दक्षिण अफ्रीका की स्थिति पर एक प्रस्ताव पेश किया और गांधीजी को भावभीनी श्रद्धांजलि दी: "श्री गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के मामले में जो अमर भूमिका निभाई है, उसके बाद मैं यह कहना चाहता हूं कि किसी भी भारतीय के लिए, यहां या भारतीयों की किसी भी अन्य सभा में, बिना गहरी भावना या गर्व के उनका नाम लेना संभव नहीं होगा। यह मेरे जीवन का सौभाग्य है कि मैं श्री गांधी को करीब से जानता हूं और मैं आपको बता सकता हूं कि उनसे अधिक पवित्र, महान, बहादुर और अधिक उदात्त आत्मा इस धरती पर कभी नहीं आई। श्री गांधी उन लोगों में से एक हैं, जो स्वयं एक कठोर सादा जीवन जीते हैं और अपने साथियों के प्रति प्रेम और सत्य और न्याय के सभी उच्चतम सिद्धांतों के प्रति समर्पित हैं, अपने कमजोर भाइयों की आंखों को जादू की तरह छूते हैं और उन्हें एक नई दृष्टि देते हैं। वह एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें पुरुषों में एक आदमी, नायकों में एक नायक, देशभक्तों में एक देशभक्त के रूप में अच्छी तरह से वर्णित किया जा सकता है, और हम यह भी कह सकते हैं कि उनमें भारतीयता है।"

गांधीजी ने कहा था, सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के अध्यक्ष गोखले गंगा की तरह थे, जिसके ताज़ा, पवित्र जल में स्नान करने की इच्छा होती है। गांधीजी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। गांधीजी गोपाल कृष्ण गोखले की ओर काफी आकर्षित हुएजो शांत और अधिक गंभीर विद्वान थेउनका मानना ​​था कि संवैधानिक तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। वे सदैव देशभक्त युवकों को खोजने-परखने में लगे रहते थे। गोखले ने उन्हें एक स्कूल मास्टर की तरह परखाजो एक स्कूली छात्र की शिक्षा की सीमा जानने के लिए उत्सुक था। वह दक्षिण अफ़्रीका के युवा बैरिस्टर के उत्साह और कार्य-निष्ठा से बहुत प्रभावित थे। वह आकर्षक और मिलनसार थेअपने शिष्य को सहज महसूस कराने के लिए उत्सुक थेलेकिन उनमें इस्पात की चमक थी। शुरुआती दिनों की यह पहली भेंट धीरे-धीरे गहरे संबंध में तबदील होती गई। हालाकि गांधी जी सिर्फ़ 27 वर्ष के थेजब वे गोखले जी से मिले थेऔर मात्र 30 वर्षीय गोखले जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में से एक थे। वे राजनीतिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर भी ज़ोर देते थे। राजनीति में वे उदार दल के सदस्य थे और संवैधानिक तरीक़े से विरोध के पक्षधर थे। गोखले गांधी जी के द्वारा दाक्षिण अफ़्रीका में किए जा रहे कार्यों के प्रति उत्साह और कार्यनिष्ठा से बहुत प्रभावित हुए। गांधी जी तो उनके मुरीद थे ही। गांधी जी विशेष रूप से गोखले से अधिक निकटता महसूस किए। उनके व्यक्तित्व में कुछ खास बात थी कि उनके पास जाते ही गांधी जी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। गोखले ने पुत्र की भांति उनका स्वागत किया। हर दृष्टि से गोखले एक असाधारण व्यक्ति के धनी थे। अंग्रेजी और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर, गोपाल कृष्ण गोखले, अक्टूबर 1912 में, भारतीय समुदाय की स्थिति का आकलन करने और इसे सुधारने में गांधी की सहायता करने के लिए एक महीने के लिए दक्षिण अफ्रीका गए। गोखले का दौरा दक्षिण अफ्रीका में एक विजयी जुलूस की तरह था। गांधी हमेशा उनके साथ थे। केप टाउन में जहां गोखले उतरे, वहां श्राइनर ने उनका स्वागत किया और उनकी बड़ी सार्वजनिक सभा में यूरोपीय और भारतीय दोनों ही शामिल हुए। कई भाषण देने और कई भारतीयों और गोरों से बात करने के बाद, गोखले ने जनरल बोथा और स्मट्स, जो अब संघ सरकार के प्रमुख हैं, के साथ दो घंटे का साक्षात्कार किया। जब गोखले साक्षात्कार से वापस आए, तो उन्होंने बताया कि आव्रजन अधिनियम में नस्लीय प्रतिबंध को हटा दिया जाएगा और साथ ही दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले गिरमिटिया मजदूरों से वसूले जाने वाले तीन पाउंड के वार्षिक कर को भी हटा दिया जाएगा। इन दोनों व्यक्तियों में उम्र का अंतर अधिक न होने (1866 में जन्मे गोखले गांधी जी से सिर्फ़ तीन साल बड़े थे) के बावज़ूद भी गांधी जी गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते रहे। समाज सेवा से संबंधित सभी कामों में अपना मार्गदर्शक समझते रहे। जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए, तो प्रोफेसर गोखले ने गांधीजी को आदेश दिया कि वे भारत में अपना पहला वर्ष ‘कान खुले रखें, लेकिन मुंह बंद रखें’ गांधीजी ने इस आदेश का अक्षरशः पालन किया।

उनका निधन 19 फरवरी, 1915 को हुआ। उनका जीवन मातृभूमि की सेवा में बीता। भारत को महादेव गोविन्द रानाडे का सबसे बड़ा उपहार गोपाल कृष्ण गोखले थे, जो अर्थशास्त्री, सांसद और राजनेता थे, जिनके बजट भाषणों को आज भी इस विषय पर क्लासिक्स के रूप में पढ़ा जाता है, जिनकी सलाह को मॉर्ले महत्व देते थे और जिनसे कर्जन एक योग्य शत्रु के रूप में डरते और सम्मान करते थे। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के संस्थापक, जिसका उद्देश्य राजनीतिक कार्य के लिए ऐसे युवाओं को प्रशिक्षित करना था, जो सांसारिक संभावनाओं को छोड़कर, खुद को पूरी तरह से मातृभूमि की सेवा में समर्पित कर दें, गोखले ही थे जिन्होंने भारत को यह मंत्र दिया कि राजनीति को आध्यात्मिक बनाना होगा। गांधीजी ने उन्हें अपना राजनीतिक गुरु घोषित किया। गांधी कहते हैं, उन्हें हमेशा ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा, जिन्होंने नेटाल के लिए भारत में बंधुआ मजदूरों की भर्ती को काफी हद तक रोक दिया था।

स्वभाव से उदार, वह शायद ही कभी अपने विरोधी की भावनाओं को ठेस पहुँचाता थे, भले ही वह उस पर सबसे कठोर प्रहार करता हो। चूंकि वह राजनीतिक विचार के उदारवादी स्कूल से जुड़ा हुए थे, इसलिए वह किसी दल के व्यक्ति होने से कोसों दूर थे। सभी प्रकार के झगड़ों को तुच्छ समझते हुए, वह सभी दलों को देशभक्ति के सामान्य बंधन से एकजुट करने के लिए बहुत चिंतित रहते थे। कठोर आत्म-परीक्षण के स्कूल में पले-बढ़े, वह हमेशा पक्षपातपूर्ण भावना के कपटी प्रभावों के प्रति सतर्क रहते थे, और अपने साथी देशवासियों के प्रति अपने प्रेम को अप्रासंगिक भेदभावों से प्रभावित नहीं होने देते थे। अपने उद्देश्य में अजेय विश्वास रखने वाले प्रगति के सिपाही - गोखले वास्तव में भारत के एक आदर्श सेवक थे। 

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

मंगलवार, 19 नवंबर 2024

141. सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी

 राष्ट्रीय आन्दोलन

141. सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी


सुरेन्द्रनाथ बनर्जी

प्रवेश

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी बंगाल के एक उदारवादी नेता थेउन्हें अक्सर राष्ट्रगुरु के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान वह भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे।  एक समय था जब विद्यार्थी जगत उन्हें आदर्श मानता था, जब सभी राष्ट्रीय विचार-विमर्शों में उनकी सलाह अपरिहार्य मानी जाती थी, और उनकी वाक्पटुता श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती थी। वह राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म देने वाले नेताओं में से थे।

जीवन चरित

उनका जन्म 10 नवंबर , 1848 में बंगाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके परदादा बाबू गौर किशोर बनर्जी थे, बैरकपुर के पास मोनीरामपुर नामक गाँव में आकर बस गए थे। पिता दुर्गा चरण बनर्जी, एक डॉक्टर, उदार, प्रगतिशील सोच से काफी प्रभावित थे। सुरेन्द्रनाथ की गहरी, उदार और प्रगतिशील सोच, का श्रेय उनके पिता को जाता है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की सोच इटली के एक राष्ट्रवादी ग्यूसेप माज़िनी से भी काफी प्रभावित थी। वह बचपन से कुशाग्र बुद्धि के थे। अपनी स्कूली शिक्षा पैरेंटल एकेडमिक इंस्टीट्यूशन में प्राप्त की, जहाँ मुख्य रूप से एंग्लो-इंडियन लड़के पढ़ते थे। 1868 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद, 1869 में वह आई.सी.एस. (I.C.S.) की परीक्षा में शामिल हुए। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले वह पहले भारतीय थे। उन्हें सिलहट में सहायक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया गया। लेकिन सरकार ने उन्हें आरोप लगाकर (उनकी सही उम्र को लेकर कुछ विवाद होने के कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया) प्रशासनिक सेवा से मुक्त कर दिया। सरकाई नौकरी से हटाए जाने के बाद उन्होंने प्राध्यापक की नौकरी ज्वायन की।

इन्डियन एसोसिएशन की स्थापना

सुरेन्द्रनाथ की शुरू से ही राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में रुचि थी। 1876 में उन्होंने युवा राष्ट्रवादियों की मदद से कलकत्ता में इन्डियन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका उद्देश्य अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन के लिए हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करना था।  भारतीय एसोसिएशन द्वारा प्रायोजित अखिल भारतीय राजनीतिक सम्मेलन के रूप में उन्होंने भारत की राजनीतिक एकता की नई जागृत भावना के अधिक व्यावहारिक प्रदर्शन के लिए मंच तैयार किया। इस संस्था के द्वारा बनर्जी महाशय ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध भारतीयों की प्रतिक्रिया को अभिव्यक्त किया। 1880 के दशक में जब बंगाल में ‘काश्तकारी विधेयक पर बहस चल रही थी, तब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एसोसिएशन के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया। रैयत संघों के गठन में मदद की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि लगान का निर्धारण स्थायी रूप से कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने इस बात की मांग की कि ज़मीन पर मालिकाना हक उन लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जो वस्तुतः उसे जोतते हों। 1883 में कलकत्ता में इंडियन एसोसिएशन ने एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इसी सम्मेलन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने श्रोताओं से देश के हित के लिए एकजुट होने और संगठित होने का आह्वान किया। 1884 में मद्रास में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने दादाभाई नौरोजी, के.टी. तेलंग, और एस. सुब्रमण्यम अय्यर सहित सत्रह प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ "मातृभूमि की रक्षा के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन" शुरू करने का निर्णय लिया।

द्वितीय अफगान युद्ध

1878-80 के दौरान द्वितीय अफगान युद्ध लड़ा गया। भारतीय दृष्टि की अभिव्यक्ति देते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उसे विशुद्ध आक्रमण की संज्ञा दी और कहा कि यह उन सर्वाधिक अन्यायपूर्ण युद्धों में से एक है, जिन्होंने इतिहास के पृष्ठों को गन्दला किया है। उन्होंने मांग की कि चूंकि यह अन्यायपूर्ण युद्ध ब्रिटेन के साम्राज्यवादी लक्ष्यों के तहत छेडा गया है, इसलिए उसे ही इसका खर्च उठाना चाहिए।

शिक्षा के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका

1875 में उन्होंने मेट्रोपॉलिटन कॉलेज के अंग्रेजी प्रोफेसर के रूप में शिक्षण पेशे में कदम रखा। अगले 37 वर्षों तक खुद को शिक्षण करियर के लिए समर्पित कर दिया। इसलिए उन्हें "राष्ट्रगुरु" के नाम से जाना जाता है।  शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने 1882 में रिपन कॉलेज (अब सुरेंद्रनाथ कॉलेज) की स्थापना की। शिक्षा विभाग में उनका कार्य राजनीतिक विभाग से कम मूल्यवान नहीं था, रिपन कॉलेज के माध्यम से हजारों युवा उनके प्रत्यक्ष प्रभाव में आये और उन्होंने उदार शिक्षा प्राप्त की।  उन्होंने अपने छात्रों को नवजात भारतीय राष्ट्रवाद की एक नई भावना से प्रेरित किया।   वे भारत के अब तक के सबसे वाक्पटु वक्ता थे। उन्होंने अपने छात्रों में राष्ट्रवाद के विचारों को प्रज्वलित करने और जागृत करने के लिए कक्षा का उपयोग एक माध्यम के रूप में किया। बनर्जी ने विधवाओं के पुनर्विवाह और लड़कियों के लिए विवाह की आयु सीमा बढ़ाने के लिए भी लड़ाई लड़ी।

पत्रकारिता में गहरी पैठ

पत्रकारिता में उनकी गहरी पैठ थी। 1879 में उन्होंने द बंगाली (जिसकी स्थापना 1862 में गिरीश चंद्र घोष ने की थी) अखबार खरीदा और 40 साल तक उसका संपादन किया। अंग्रेज़ी दैनिक बंगाली के माध्यम से उन्होंने सरकारी दमनात्मक कार्रवाइयों, जैसे, वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट, आदि के विरुद्ध आवाज़ उठाई। वह मानते थे कि विभिन्न वर्गों में बंटी भारतीय जनता को एक करने में आधुनिक उद्योग बहुत मददगार होंगे। 1902 में उन्होंने अपने अखबार ‘बंगाली में लिखा था, राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई भारत की विभिन्न जातीयताओं को कुछ समय के लिए तो ज़रूर एक सूत्र में बाँध सकती है, लेकिन जैसे ही ये अधिकार मिल जाएंगे, उन सबके अपने-अपने हित फिर अलग-अलग हो जाएंगे। इन जातीयताओं के आर्थिक हितों को अगर एक सूत्र में पिरो दी जाएं, तो यह सूत्र फिर कभी नहीं टूटेगा। इसलिए वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियाँ बहुत मज़बूत एकता का सूत्र होती हैं और इस कारण भारतीय राष्ट्र की स्थापना के लिए ये बहुत महत्त्वपूर्ण कारक हैं। पत्रकारिता के लिए उन्हें सज़ा भी हुई। उन्हें एक मुक़दमें के खिलाफ लिखने के लिए सज़ा हुई थी। वे जेल जाने वाले पहले भारतीय पत्रकार बने। कलकत्ता के उच्च न्यायालय में शालिग्राम की प्रतिमा को लेकर एक मुक़दमा चल रहा था। जज नौरिस ने अपने निर्णय में यह बताया की वह प्रतिमा सौ साल से ज़्यादा पुरानी नहीं है। उसकी इस कार्रवाई से हिन्दुओं की भावना को ठेस पहुंची। 2 अप्रैल 1883 को बनर्जी ने अपने अखबार ‘बंगाली में संपादकीय टिप्पणी लिखी, नौरिस ने सबूत दे दिया है की वह इस उच्च और जिम्मेदार पद के लायक नहीं हैं। इस युवा और नौसिखिया न्यायाधीश की सनक पर लगाम लगाने के लिए कुछ-न-कुछ किया ही जाना चाहिए। उनके खिलाफ मानहानि का मुक़दमा चलाया गया। उन्हें दो मास क़ैद की सज़ा दी गयी। जेल जाते समय उन्होंने दावा किया, स्वराजवादी अब कारावास को सार्वजनिक सेवा के लिए योग्यता बना रहे हैं"। इस सज़ा के खिलाफ कलकत्ता में उग्र-प्रदर्शन और जबरदस्त हड़ताल हुई थी। आगरा, फ़ैज़ाबाद, अमृतसर, लाहौर और पुणे जैसे भारतीय शहरों में भी विरोध प्रदर्शन और हड़तालें भड़क उठीं। स्टेट्समैन ने विशेष रूप से उनके समर्थन और फैसले के खिलाफ कई लेख प्रकाशित किए। स्टेट्समैन के संपादक रॉबर्ट नाइट को न्याय के लिए लड़ने वाले एक चैंपियन के रूप में सम्मानित किया गया और उन्हें भारत की जनता का भरपूर समर्थन मिला। प्रिंट में उनके मुद्दे का समर्थन करने के अलावा, नाइट ने व्यक्तिगत रूप से भी बनर्जी के लिए अपना समर्थन प्रदर्शित किया। 

कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गए

भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। कांग्रेस की स्थापना के बाद वह इसकी राजनीति में सक्रिय हो गए। समान हितों के कारण सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने संगठन का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय कर दिया। दो बार, 1895 (पूना) और 1902 (अहमदाबाद) में, वह कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए। उन्होंने सरकार से संवैधानिक सुधारों की मांग की। आई.सी.एस. की परीक्षा में प्रवेश की आयु बढाने के लिए उन्होंने आन्दोलन चलाया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने अख़बार बंगालीके ज़रिए ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और आर्म्स एक्ट की आलोचना की। उन्होंने इल्बर्ट बिल के ख़िलाफ़ भी अभियान चलाया।

बंगाल विभाजन का विरोध

वह बंगाल प्रांतीय विधान सभा के सदस्य भी बने। 1905 में बंगाल प्रांत के विभाजन का विरोध करने वाले सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक नेताओं में से एक थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 'बंगाली' अख़बार द्वारा विभाजन के प्रस्ताव की आलोचना की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा कि ‘घोषणा बम के गोले के सामान गिरी’ विभाजन का जमकर विरोध हुआ। लेकिन तुरत ही यह महसूस किया गया कि मात्र विरोध प्रदर्शन निरर्थक था। बहिष्कार की शपथ तैयार की गई और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लोगों से इस पर हस्ताक्षर करने की अपील की: "मैं शपथ लेता हूँ कि मैं आज से कम से कम एक साल तक सभी अंग्रेजी निर्मित वस्तुओं की खरीद से दूर रहूँगा, भगवान मेरी मदद करें।" बंगाल विभाजन के समय सर सुरेन्द्रनाथ ने अतुलनीय सेवाओं के द्वारा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया। यह तब था जब सर सुरेन्द्रनाथ ने अपने देशवासियों से "आत्मसमर्पण न करने वाले" की उपाधि अर्जित की। विभाजन के सबसे काले दौर में भी सर सुरेन्द्रनाथ कभी नहीं डगमगाए, कभी उम्मीद नहीं खोई। उन्होंने पूरी ताकत से आंदोलन में खुद को झोंक दिया। उनके उत्साह ने पूरे बंगाल को प्रभावित किया। ‘तय तथ्य’ को बदलने का उनका दृढ़ संकल्प अडिग था। उन्होंने लोगों को साहस और संकल्प का आवश्यक प्रशिक्षण दिया। उन्होंने उन्हें सत्ता से न डरना सिखाया। उन्होंने बंगाल और भारत भर में विरोध प्रदर्शन, याचिकाएँ और व्यापक सार्वजनिक समर्थन का आयोजन किया, जिसने अंततः 1912 में अंग्रेजों को बंगाल के विभाजन को उलटने के लिए मजबूर किया।  बनर्जी स्वदेशी आंदोलन का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। उन्होंने भारतीय निर्मित वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा दिया और विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया।

गांधीजी से मिलन

गांधीजी जब 1896 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे, तो कलकत्ते में वे बंगाल के देव’ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी से मिले। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी बंगाल के बेताज बादशाह थे। उस समय के बंगाल के वे एक सुविख्यात नेता थे। उन्होंने 1895 के पूना (पुणे) के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक सत्र की अध्यक्षता की थी। जब गांधीजी उनसे मिले उनके आसपास और भी मिलने वाले बैठे थे। उन्होंने गांधीजी से कहा, हो सकता है लोग आपके काम में रुचि न लेंफिर भी आप ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिए। इस काम में आपको महाराजाओं की मदद की जरुरत होगी। राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी और महाराज ज्योतीन्द्र मोहन ठाकुर से भी मिलियेगा। दोनों उदार वृत्ति के हैं और सार्वजनिक काम में काफी हिस्सा लेते हैं। 1902 अहमदाबाद अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने दक्षिण अफ्रीका पर एक नया प्रस्ताव पारित किया: "इन भारतीय प्रवासियों की स्वीकार्य निष्ठा और युद्ध के दौरान उनके द्वारा दी गई सहायता तथा सबसे महत्वपूर्ण समय में भारत द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को दी गई अमूल्य सहायता को देखते हुए, कांग्रेस हृदय से प्रार्थना करती है कि भारत सरकार दक्षिण अफ्रीका में भारतीय प्रवासियों के साथ न्यायपूर्ण, समतापूर्ण और उदार व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक व्यावहारिक कदम उठाने की कृपा करेगी।"

राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार

अन्य उदारवादियों की तरह वह भी ब्रिटिश राज के समर्थक थे। इसके बावजूद राष्ट्रीयता की भावना के प्रसार करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। वे ‘भारतीय राष्ट्रीयता के अग्रदूत’ माने जाते हैं। गांधीजी कहते हैं, सर सुरेंद्र जैसे अग्रदूतों द्वारा किए गए अमूल्य कार्य के बिना वर्तमान समय के आदर्श और आकांक्षाएँ असंभव थीं। उनके सामने पहला लक्ष्य यही था कि भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ने और भारतीय जनता के रूप में उनकी पहचान बनाने की प्रक्रिया आगे बढाई जाए। वे कहा करते थे, ‘भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है। वे मानते थे कि राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद की भावना को बढावा देकर ही राष्ट्र का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

स्वशासन की प्राप्ति के लिए सुधार

1915 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की पहल पर कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया कि अब समय आ गया है कि स्वशासन की प्राप्ति के लिए सुधार के पूर्ण उपाय किए जाएं। इसके लिए सरकार की प्रणाली को उदार बनाया जाए। प्रस्ताव ने कांग्रेस को सुधार की एक योजना बनाने के लिए अधिकृत किया।

तिलक के संघर्ष की सराहना

नरमपंथी होते हुए भी उनके दिल में गरमपंथी नेता तिलक के लिए बहुत इज्ज़त थी। जब तिलक को राजद्रोह के मुक़दमे में  सज़ा दी गयी तो 1897 में अमरावती कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने बहुत भावुक होकर तिलक के संघर्ष की सराहना करते हुए कहा था, उन्हें सज़ा मिलने पर आज सारा देश रो रहा है। जब 1917 में एनी बेसंट को गिरफ्तार कर लिया गया, तो नरमपंथी होते हुए भी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी होम रूल लीग में शामिल हो गए। उन्होंने एनी बेसंट की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज़ उठाई।

नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना

सुरेन्द्रनाथ ने कांग्रेस के मतों के विपरीत मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का समर्थन किया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में कान्ग्रेस के कई वरिष्ठ  नेता सरकारी प्रस्तावों को स्वीकार करने के पक्ष में थे। इस कारण वे कांग्रेस से अलग होकर 1919 में नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना की थी।  1921 में वे बंगाल में स्थानीय स्वशासन के मंत्री बने और नागरिकों की सेवा के लिए कलकत्ता नगर निगम की स्थापना की। बंगाल सरकार में मंत्री का पद स्वीकार करने के कारण उन्हें राष्ट्रवादियों और आम जनता का गुस्सा झेलना पड़ा और वे 1923 में स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवार बिधान चंद्र रॉय से बंगाल विधानसभा का चुनाव हार गए,  जिससे उनका राजनीतिक जीवन पूरी तरह से समाप्त हो गया। जिसके बाद उन्होंने अपनी आत्मकथाए नेशन इन मेकिंग (1925) लिखने के लिए राजनीति से संन्यास ले लिया।

निधन

6 अगस्त, 1925 में बैरकपुर में उनका निधन हुआ। उनकी मृत्यु ने भारतीय राष्ट्रवाद के एक युग का अंत कर दिया। बनर्जी ने ब्रिटिश नीतियों में नस्लीय भेदभाव की निंदा करके और पूरे भारत में अपने भाषणों में इन अन्यायों को संबोधित करके व्यापक लोकप्रियता हासिल की। भारतीय राजनीतिक जीवन पर उन्होंने अपने व्यक्तित्व की गहरी छाप छोड़ी है। भारत में शुरुआती राष्ट्रवादी आंदोलन को आकार देने में उनका योगदान आधारभूत था। उन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक के रूप में सदैव याद किया जाएगा।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

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