मंगलवार, 30 नवंबर 2010

लघुकथा :: ईष्ट देव

लघुकथा :: ईष्ट देव

 

-- --- मनोज कुमार

भोलू प्रतिदिन की भांति उस दिन भी अपने ईष्ट देव पर चढ़ाने के लिए फूल लेने घर से निकला था। आहाता पार कर सड़क के पास पहुंचा ही था कि उसे सड़क के इस पार काफी भीड़ दिखाई दी। उस पार फुटपाथ पर मालन बैठती है, जिससे वह फूल लेता है। उसका यह प्रतिदिन का नियम है। पर आज वह जाए तो कैसे जाए ? सड़क के किनारे की भीड़ तो रास्ता रोके खड़ी है ही ऊपर से पुलिस भी डंडा लिए लोगों को सड़क पार जाने नहीं दे रही है। भोलू ने वहां खड़े एक व्यक्ति से पूछा, “माज़रा क्या है...।” वह व्यक्ति भी थोड़ी ठिठोली करने के मूड में था, .... बोला “हमारे माई-बाप, मतलब...मेरे कहने का मंतरी जी आ रहें हैं। उहे से रास्ता रोक दिया गया है।” भोलू को लगा अब तो जब रास्ता साफ होगा तभी वह सड़क पार कर सकेगा। वह पास के चबूतरे पर बैठ गया। इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर बाद उसे सायरन की आवाज़ सुनाई देने लगी, फिर गाड़ियों का काफिला दिखा। सबसे आगे पुलिस की गाड़ी, बंदुकों से लैस जवान। फिर सफेद लाल बत्ती वाली गाड़ी। उसके पीछे फिर से पुलिस और बंदूक वाले जवानों की गाड़ियां। तेज़ी से चिल्ल-पों करते हुए काफिला गुज़र गया।

भोलू सड़क की ओर बढ़ा। पर भीड़ अभी-भी टस-से-मस नहीं हुई थी। पुलिस वाले अब भी लोगों को जाने नहीं दे रहे थे। भोलू ने फिर उसी, भीड़ और सारे माज़रे का मज़ा ले रहे व्यक्ति से पूछा, “अब क्या है...जाने क्यों नही दे रहे?” इस बार बग़ैर किसी ठिठोली के वह बोला, “एक दुर्दांत अपराधी पकड़ा गया है। उसने पूरे राज्य में तबाही मचा रखी थी। उसे ही अपराध शाखा के मुख्यालय ले जाया जा रहा है...।” भोलू चबूतरे पर आकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद फिर सायरन, फिर पुलिस और बंदुकों से लैस जवान की गाड़ियां, फिर बरबख़्तबंद गाड़ी, उसके पीछे फिर से पुलिस और बंदूक वाले जवानों की गाड़ियां। भोलू को लगा फ़र्क सिर्फ लाल बत्ती के होने-न-होने का था। बांक़ी सब तो समान ही था।

.... काफिला गुज़र गया था। भीड़ छंट चुकी थी। रोड पर सन्नाटा पसरा था। सड़क के उस पार फुटपाथ पर मालन फूल की दुकान सजा चुकी थी। पर पता नहीं क्यों भोलू के मन पर एक अवसाद सा छाया था। वह अपने घर की तरफ लौट चला। सोच रहा था आज ईष्ट देव को बिना फूल-माला के ही पुजूंगा। ... ...

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सोमवार, 29 नवंबर 2010

गज़ल :: कुछ बढाई गयी कुछ घटाई गयी

ज्ञानचन्द मर्मज्ञ

कुछ  बढाई   गयी    कुछ   घटाई    गयी,

ज़िंदगी   हर   अदद    आज़माई     गयी।

फ़ेंक  दो   ये    किताबें   अंधेरों   की    हैं,

जिल्द उजली किरण   की   चढ़ाई   गयी।

टांग देते  थे  जिन   खूटियों  पर   गगन,

वो    पुरानी     दीवारें     गिराई     गयी।

जब भी  आँखों  से  आंसू  बहे  जान   लो,

मुस्कुराने   की   कीमत    चुकाई    गयी।

घेर   ली  रावणों   ने     अकेली    सिया,

और लक्ष्मण  की   रेखा   मिटाई   गयी।

यूँ  तो चिंगारियों  में  कोई  दम  न   था,

बिजलियों  की    अदाएं   दिखाई   गयी।

झील   में    डूबता    चाँद    देखा  गया,

और  तारों   पे   तोहमत   लगाई   गयी।

झूठ की इक गवाही को सच मान कर,

जाने   कितनी    सजाएं   सुनाई   गयीं।

देश की  हर  गली  में  भटकती  मिली,

वो  दुल्हन जो तिरंगे  को ब्याही गयी।

राम  की  मुश्किलों   में   हमेशा   यहाँ,

बेगुनाही   की    सीता    जलाई    गयी।

रविवार, 28 नवंबर 2010

भारतीय काव्यशास्त्र - काव्य के भेद - ध्वनि काव्य

भारतीय काव्यशास्त्र - काव्य के भेद - ध्वनि काव्य

आचार्य परशुराम राय

प्रारम्भ में आचार्य मम्मट ने काव्य के तीन भेद - उत्तम, मध्यम और अधम बताए थे। उत्तम शब्द ध्वनि और काव्य को कहा गया है जिसका स्वरूप हम अब तक देख चुके हैं। इन तीनों मुख्य भेदों अर्थात् उत्तम काव्य - ध्वनि काव्य, मध्यम काव्य - गुणीभूत - व्यंग्य काव्य और अधम - चित्रकाव्यों के अन्य अवान्तर भेद भी हैं। इस क्रम में अब हम ध्वनि काव्य के अवान्तर भेदोपभेद की चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम अवान्तर से ध्वनि काव्य के दो भेद किए गए हैं - अविवक्षित वाच्य ध्वनि और विवक्षितवाच्य ध्वनि।

अविवक्षित वाच्य ध्वनि का ही दूसरा नाम लक्षणामूलक ध्वनि है। लक्षणामूलक ध्वनि में वाच्य अर्थात् शब्दार्थ विवक्षित नहीं होता अर्थात् शब्दार्थ (अभिधार्थ) अभिप्राय को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। बल्कि उसके लिए दूसरा अर्थ लिया जाता है। जैसे:- 'उसका चेहरा ओज से खिला है' में हम 'खिला' का अर्थ 'प्रसन्न' लेते हैं। जबकि 'खिलना' का अर्थ 'प्रसन्न होना' नहीं होता। अतएव जहाँ वाच्य विवक्षित नहीं होता, उसे अविवक्षित वाच्य ध्वनि या लक्षणामूलक ध्वनि कहते हैं। अविवक्षित वाच्य ध्वनि के पुन: दो भेद किए गए हैं - अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि और अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि।

अर्थान्तन्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि - जहाँ वाच्यार्थ का सीधा अन्वय नहीं हो पाता वहाँ शब्द अपने सामान्य अर्थ को छोड़कर अपने से सम्बन्धित किसी विशिष्ट अर्थ का बोध कराता है। अर्थात् जब वाच्यार्थ अर्थान्तर (दूसरे अर्थ) में संक्रमित हो जाये उसे अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि कहेंगे। जैसे:-

त्वामस्मि वच्यि विदुषां समवायोऽच तिष्ठति।

आत्मीयां मतिमास्थाय स्थितिमत्र विधेहि तत्॥

यहाँ एक विद्वान व्यक्ति अपने शिष्य को सचेत करते हुए कहता है:-

'मैं तुम्हें बताता हूँ कि यहाँ विद्वानों का समुदाय है। अतएव अपनी बुद्धि को ठीक करके रखना।'

उक्त उदाहरण में देखने की बात यह है कि 'मैं तुम्हें बताता हूँ' इन पदो को बिना प्रयोग किए भी बात कही जा सकती थी। यहाँ वक्ता और बोद्धा दोनों आमने-सामने बैठे हैं। अतएव इतना कहना पर्याप्त होता - 'यहाँ विद्वानों का समाज है। जरा संभल कर रहना।' पर यहाँ प्रयुक्त 'तुम्हें' शब्द उस शिष्य को अन्य उपस्थित शिष्यों से अलग करता है और उसकी विशेषता को सूचित करता है। वह विशेषता शिष्य के लिए विशेष कृपापात्रता भी हो सकती है और उसकी अनुभवहीनता भी हो सकती है। 'मैं' शब्द से भी उसी प्रकार वक्ता की विशेष हित-भावना और अनुभवशीलता आदि अभिव्यक्त होता है। इसी प्रकार 'बताता हूँ' क्रिया पद से सामान्य सूचना देने से अलग अर्थ 'उपदेश देता हूँ' व्यक्त हो रहा है। अतएव यहाँ अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि होगी।

जहाँ पर वाच्यार्थ को तिरस्कृत कर एकदम विपरीत अर्थ लिया जाए अर्थात् विपरीत सम्बन्ध मूलक लक्षणा से उन शब्दों का एकदम उल्टा अर्थ लिया जाएं, वहाँ अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि होती है। जैसे:-

उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवतापरम्।

विदधदीयदृशमेव सदा सखे सुखित मास्स्व तत: शरदां शतम्।

यहाँ एक व्यक्ति का अपने मित्र के प्रति कहा गया वाक्य है जिसके साथ मित्र ने धोखा किया है, उसका अपकार किया है, ऐसे मित्र के प्रति वह कहता है कि -

हे मित्र, मैं आपकी कहाँ तक प्रशंसा करूं, आपने मेरा बहुत उपकार किया है। ऐसा करते हुए आप सैकड़ों वर्ष तक सुखपूर्वक इस संसार में रहें।

यहाँ विपरीत लक्षणा से व्यक्ति अपने मित्र से कहना चाहता है कि तुमने मेरे साथ धोखा किया है इतना बड़ा अपकार किया है कि उसकी जितनी निंदा की जाए, कम होगी। तुम्हारे जैसे लोग संसार को जितना जल्दी छोड़ दे उतना ही अच्छा होगा। यहाँ यही व्यंग्य है और यहाँ अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि है।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

फ़ुरसत में .... मुज़फ़्फ़रपुर फिर एक बार!

फ़ुरसत में ....

मुज़फ़्फ़रपुर फिर एक बार!

मनोज कुमार

एक ब्लॉगर मित्र ने बात-चीत (अंतरजाल पर) के दौरान कलात्मक ढंग से उजागर किया कि उनका भी मुज़फ़्फ़रपुर से संबंध है। बताया तो उन्होंने यही था कि कभी समस्तीपुर से उनका संबंध था। उन्होंने मुझसे जानना चाहा था कि क्या अब भी मैं समस्तीपुर जाता-आता रहता हूं? वह मेरी जन्मभूमि है इसलिए जाना-आना तो लगा ही रहता है। मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने मेरी उत्सुकता कम करते हुए कहा कि उनके पिताजी कभी इस शहर में पोस्टेड थे और इसी नाते उनका भी इस शहर से लगाव है।

बात-चीत के क्रम में उनका मुज़फ़्फ़रपुर से जुड़ा होना मेरे लिए एक रहस्योद्घाटन से कम नहीं था। जब से ब्लॉग से जुड़ा हूं, उनकी पोस्ट पर जाता रहा हूं। उनकी लेखनी ने सदैव ही मुझे प्रेरित किया है। यह सब तो उन्हें मालूम रहा ही होगा और मेरा मुज़फ़्फ़रपुर से भावनात्मक लगाव है शायद उन्हें यह भी मालूम रहा होगा। पहले की अगर छोड़ भी दें तो हाल ही में मेरी संस्मरणात्मक पोस्ट ‘बूटपॉलिश’ की उन्होंने न सिर्फ़ प्रशंसा की थी बल्कि अलग से मुझे बधाई भी दी थी। पर, उन्होंने तब भी यह ज़ाहिर न होने दिया कि यह आलेख कहीं-न-कहीं उनके मुज़फ़्फ़रपुर से जुड़े होने के कारण अधिक भाया था। बल्कि उनका इस शहर से जुड़े होने का रहस्य जब उनके कथाकार व्यक्तित्व की तरह परत-दर-परत खुलता गया तब मैं जान पाया कि उनका संबंध कितना घनिष्ठ है इस शहर से!

पहले तो उन्होंने बताया कि मेरे स्कूल के पास ही उनका स्कूल था। फिर यह कि मेरे संस्मरण में जिस कॉलेज का ज़िक्र आया है वह उनका भी कॉलेज था। यहां तक तो यह वार्तालाप मेरे लिए प्रसन्नता का विषय बना हुआ था, पर अगला रहस्योद्घाटन मेरे लिए चौंकने का कारण भी बना कि उनका ब्याह भी मुज़फ़्फ़रपुर निवासी से हुआ है। एक बार में सब कुछ न बताना शायद मुज़फ़्फ़रपुर वासियों की आदत का हिस्सा हो।

इतना लगाव जिस शहर से किसी का हो उसका किस्तों में रहस्य खोलना मुझे रोचक लगा। .... और उस दिन जब मैं अपने गांव के एक छोटे से कमरे में अकेला बैठा था तो दूर से आ रही छठ गीतों की आवाज़ के बीच उस वार्तालाप की याद आने पर कभी मुस्कान, कभी हंसी तो कभी प्रसन्नता मेरे चेहरे पर तिरने लगी थी। आख़िर एक ‘स्टोरी टेलर’ इतनी आसानी से ‘क्लाइमेक्स’ थोड़े ही आने देता है!

हद तो तब हुई जब मैंने उनसे कहा कि इस वर्ष छठ पर्व के अवसर पर घर जाऊंगा तो आपके शहर, जिसे मैं अपना भी मानता हूं, जाऊंगा और उसके ताज़ा हालात से आपको अपडेट करवाऊंगा। इसपर उनका जवाब था ... शहर के गड्ढे अब भी वहीं हैं, वैसे ही! कुछ नहीं बदला है!!

तब मुझे ज्ञात हुआ कि मैं दो दशक से भी अधिक समय के बाद जिस शहर में दुबारा जाने का कार्यक्रम बना रहा था, वहां उनका तो आना जाना लगा ही रहता है। तभी तो उन्होंने मेरे शहर को ‘गड्ढों का शहर’ बताया। अब तो मेरी उत्सुकता और बढ गई। देखूं तो उस शहर को .... एक बार फिर ... !

जाने के लिए गांव से भाड़े पर क्वालिस ठीक की गयी। अपनी श्रीमती जी और दोनों बच्चों के साथ करण, जिसे आप ‘करण समस्तीपुरी’ के नाम से ज़्यादा जानते हैं, भी थे। गांव की सड़कें गांव की दशा-दुर्दशा का बयान करती हैं, अतः वहाँ चलने के लिए क्वालिस ही माकूल सवारी है। सुबह दस बजे शुरु हुई यात्रा हमें NH-28 से एक-डेढ घंटे में मुज़फ़्फ़रपुर के मुहाने तक ले आयी, जिसे भगवानपुर कहते हैं। और यहीं से शुरु हुआ भगवान भरोसे चल रहा शहर का यातायात। नाहक जाम के कारण हम 200 मीटर की दूरी क़रीब एक - सवा घंटे में तय कर पाए। उस समय मुझे यह लगने लगा था कि उस ब्लॉगर मित्र की बात सच है ... कुछ नहीं बदला है!

आगे बढते ही बदलाव के लक्षण भी दिखने लगे। कुछ फ्लाई ओवर, अधिक भीड़-भाड़, व्यापारिक प्रतिष्ठान, दुकानें, मकान। लीचियों के बगानों का कट जाना, उन पर कंक्रीट के जंगल उग आना और रास्तों का वन-वे हो जाना। हम अधिक विकसित जो हो गए हैं! और आधुनिक भी!!

047कंक्रीट के बढते जंगल के कारण अपने शहर में ही भटक गए हम। रास्ता ऐसा भूले कि अपने शहर के हृदय स्थल में प्रवेश करने के चक्कर में हम सीधे उस मुहल्ले के निकट पहुंच गए जहां अपने जीवन के क़रीब 30 बरस गुज़ारे थे। ‘ब्रह्मपुरा’ – जहां मिडिल स्कूल की पढाई की और रेलवे कॉलोनी - जहां नौकरी में आने से पहले तक का जीवन जिया था। मिडिल स्कूल तो ढूंढे नहीं मिला, क्योंकि जिसे मैं खोज रहा था, उसका तो कायाकल्प हो चुका था। किसी पक्की इमारत को देख हमने सोचा कि जिन झोंपड़ियों वाली कक्षा में हम पढे थे, उसकी क़िस्मत अब बदल चुकी है! लेकिन उसे हम पहचान नहीं पाए और संजय टॉकिज तक आगे बढ गए जहां ‘गोलमाल-3’ चल रही थी। इधर हमारे साथ भी गोलमाल ही हो रहा था।

039हम अपने पुराने मकान तक पहुंचे। ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी के टाइप-टू का क्वार्टर संख्या 168-ए! उसमें गुज़ारे सारे दुख-सुख घनीभूत हो एक-एक कर याद आते गए। उस क्वार्टर के वर्तमान निवासी काफ़ी सहृदय निकले। गृहस्वामी तो कार्यवश दफ़्तर में थे – गृहस्वामिनी का जबरन मेहमान बन हमने तकरीबन डेढ घंटे उनके ड्रॉइंग रूम में बिताए। इस दरम्यान चाय-बिस्कुट और लौंग-इलायची का रसास्वादन भी हुआ। घर का वह ड्रॉइंग रूम, जिसे घेरा हुआ बारामदा कहना अधिक उचित होगा, हमारे जीवन के अधिकांश समय का साक्षी रहा है। गृह स्वामिनी को यह बताते हुए हमें गर्व हो रहा था कि उस बारामदे को, जो पहले बिल्कुल खुला हुआ था हमने ही घिरवाया था और वही मेरा शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष और घर में आने वाले मेहमानों के लिए विश्राम कक्ष भी था। मेरे जीवन की साधना भी यहीं सुफल हुई थी इसलिए यह मेरे लिए किसी मंदिर से कम नहीं था।

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042इस घर के लोगों से मिलकर मेरी यह धारणा एक बार फिर से पुख्ता हुई कि सज्जनों की कमी नहीं है इस शहर में। ... मुज़फ़्फ़रपुर के आतिथ्य सत्कार की मिसाल का लाभ उठाकर हमने उनसे विदा ली। हमारा अगला पड़ाव था अपने कॉलेज और विश्वविद्यालय का कैम्पस। पर वही गोलमाल यहां भी जारी रहा। मुज़फ़्फ़रपुर की सारी सड़कों की कायाकल्प-योजना प्रगति पर थी अतः आने-जाने के लिए आधी सड़क का इस्तेमाल किया जा रहा था। उस आधी सड़क पर जमा भीड़-भाड़ हमारी गति में बाधा बन रही थी। उसपर तुर्रा यह कि वन-वे ट्राफ़िक ने फिर हमें किसी अनजाने रास्ते पर मोड़ दिया। कुछ दिशा भ्रम, कुछ शहर का विकास और उससे अधिक अपनी याददाश्त का कमज़ोर हो जाना हमें कई बार ऐसी जगहों पर ले जाता रहा जहां से हमें पीछे जाना पड़ा। माड़ीपुर-छाता चौक की तरफ़ जाने की जगह हम जूरन छपरा, इमली चट्टी होते हुए पहुंच गए उस महान देशभक्त की समाधि की मूर्ति के पास जिसने स्वतंत्रता संग्राम मे अपना नाम स्वर्णाक्षरों से अंकित कराया है। शहीद खुदीराम बोस ने अंग्रेज़ सांडर्स पर बम यहीं फेका था। उनकी मूर्ति को देखते-देखते हम बड़े हुए थे। उन दिनों स्वाधीनता संग्राम के वीर हमारे हीरो हुआ करते थे और हम लोग उनसे प्रेरणा पाकर देश के लिए कुछ करने का ज़ज़्बा पाला करते थे। आज इतने सालों बाद क़िस्मत का ऐसा संयोग कि मैं जिस दफ़्तर में काम करता हूँ वह भी कोलकाता में शहीद खुदीराम बोस रोड पर ही है और दफ़्तर के बगल में शहीद की मूर्ति हमें उनकी और अपने इस शहर की याद रोज़ ही दिलाती है।

खैर, हम फिर रास्ता भूले और हमने पीछे का रुख किया। इस क्रम में हमें न सिर्फ़ ड्राइवर की झिड़की सुननी पड़ी, बल्कि अपने ही शहर में जगह-जगह अपने ही कॉलेज का रास्ता पूछने की शर्मिन्दगी भी उठानी पड़ी। बीवी और बच्चे अलग खिल्ली उड़ा रहे थे कि यही है आपकी ‘मेमोरी’, और ‘इसी के भरोसे लाए थे हमें यह सब दिखाने!’

शहर के कुछ-एक नए बनते फ्लाई ओवरों ने यातायात ज़रूर बाधित कर रखा था, पर कुछ दिनों बाद उस शहर की सुंदर, समतल सड़कें और उनपर तेज़ी से आते-जाते यातायात के दृश्य नज़रों के सामने साकार-से होने लगे। यह मेरे लिए ख़ुशी की बात थी और उस ब्लॉगर मित्र को मैं मन-ही-मन बताना चाह रहा था कि देखिए आपके शहर में मेरा सपना साकार होने जा रहा है!

जन्तु विज्ञान विभाग, एल एस कॉलेजखैर, किसी तरह पूछते-पाछते हम अपने एल.एस. कॉलेज पहुंचे। कॉलेज में घुसते ही सड़क के दोनों तरफ़ बढे जंगल, मुझे सशंकित कर रहे थे कि यहां कक्षाएं होती भी हैं या नहीं। ड्यूक हॉस्टल की खिड़कियां टूटी पड़ी थीं। प्रशासन भवन जर्ज़र अवस्था में दिख रहा था। सामने का लॉन जंगल में तबदील हो चुका था। ... और हमारे ज़ूऑलॉजी डिपार्टमेंट की दीवारों पर वृक्ष उग आए थे। पता नहीं इस माहौल में कक्षा चलती भी हैं या नहीं? यह बताने वाला कोई नहीं था। .......छुट्टियां चल रहीं थी।

052विश्वविद्यालय का कैम्पस जीवंत तो नहीं, ज़िन्दा ज़रूर था और जन्तु विज्ञान विभाग लाचार सा कोने में पड़ा था। सारा उत्साह ठंडा हो गया हमारा। गाड़ी में बैठे-बैठे ही हमने उसे निहारा। मंद-मंद कुटिल मुस्कान बच्चों के चेहरे पर छा चुकी थी। करण ने तर्क दिया – ‘यह सब छुट्टियों के कारण है। खुलते ही सब ठीक हो जाएगा।’

हां, उस सारे दिन में एक ही अच्छी और खुशी देने वाली बात हुई। ज़िला स्कूल का विशाल कैम्पस देखकर सब के चेहरे पर खुशी साफ़ दिखी। मैं हर्षित था। इसी हर्ष को समेटे हम निराला निकेतन पहुंचे। वहां एकान्तवास में लीन आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के दर्शन और आशीर्वचन प्राप्त करने के बाद शाम तक वापसी की यात्रा हुई।

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वापसी में मन में कोई द्वन्द्व नहीं था। शहर में एक तरफ़ विकास की छाया थी तो दूसरी तरफ़ उसका बांकपन भी अभी बाकी था। एक तरफ़ विकास का विस्तार था तो दूसरी तरफ़ मूलभूत सांचा और ढांचा भी बरकरार था। बिल्कुल एक काव्य की भांति यह पूरा शहर सम-विषम छंदों में से रचित हमारे सामने अनेक संकल्प और विकल्प छोड़ता प्रतीत हो रहा था।

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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

शिवस्वरोदय-19

शिवस्वरोदय-19

आचार्य परशुराम राय

गुरुशुक्रबुधेन्दूनां वासरे वामनाडिका।

सिद्धिदा सर्वकार्येषु शुक्लपक्षे विशेषतः।।69।।

अन्वय- शुक्लपक्षे विशेषतः गुरुशुक्रबुधेन्दूनां वासरे वामनाडिकासर्वकार्येषु सिद्धिदा (भवति)।

भावार्थः शुक्ल पक्ष में विशेषकर सोम, बुध, गुरु और शुक्रवार को चन्द्रनाड़ी अर्थात् वायीं नासिका से स्वर के प्रवाह काल में किए गए सभी कार्यों में सफलता मिलती है।

English Translation- Any work done during the flow of left nostril, especially on Monday, Wednesday, Thursday and Friday in bright fortnight, will be successful.

अर्काङ्गारकसौरीणां वासरे दक्षनाडिका।

स्मर्तव्या चरकार्येषु कृष्णपक्षे विशेषतः।।70।।

अन्वयः कृष्णपक्षे विशेषतः अर्काङ्गारकसौरीणां वासरे चरकार्येषु दक्षनाडिका स्मर्तव्या।

भावार्थः कृष्ण पक्ष में विशेषकर रवि, मंगल और शनिवार को सूर्यनाडी के प्रवाह काल में किए गए अस्थायी फलदायक कार्यों में सफलता मिलती है।

English Translation: One gets success in all he work of temporary nature or work pertaining to temporary results if they are performed during the flow of right nostril, specially on Sunday. Tuesday and Saturday in dark fornight.

प्रथमं वहते वायुः द्वितीयं च तथानलः।

तृतीयं वहते भूमिश्चतुर्थं वरुणो वहेत्।।71।।

अन्वयः प्रथम वायुः वहते द्वितीयं च तथानलः तृतीयं भूमिः वहते चतुर्थं वारुणो वहेत्।

भावार्थः यहाँ प्रत्येक नाड़ी के प्रवाह में पंच महाभूतों के उदय का क्रम बताया गया है, अर्थात् स्वर प्रवाह के प्रारम्भ में वायु तत्त्व का उदय होता है, तत्पश्चात् अग्नितत्त्व, फिर पृथ्वी तत्त्व, इसके बाद जल तत्त्व और अन्त में आकाश तत्त्व का उदय होता है।

English Translation: Here rising order of five tattvas has been described, i.e. in the beginning of flow of any nadi Vayu (Air) tattva rises, there after Agni (fire), then Prithivi tattva, after that rises Jala (water) tattva and at the last rises Akasha (ether) tattva.

सार्धद्विघटिके पंचक्रमेणैवोदयन्ति च।

क्रमादेकैकनाड्यां च तत्त्वानां पृथगुद्भवः।।72।।

अन्वयः श्लोक अन्वित क्रम में है। इसलिए इसके अन्वय की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थः जैसा कि तिरसठवें श्लोक में आया है कि हर नाड़ी में स्वरों का प्रवाह ढाई घटी अर्थात् एक घंटे का होता है। इस ढाई घटी या एक घंटे के प्रवाह-काल में पाँचों तत्त्व पिछले श्लोक में बताए गए क्रम से उदित होते हैं। इन तत्त्वों का प्रत्येक नाड़ी में अलग-अलग अर्थात् चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी दोनों में अलग-अलग किन्तु एक ही क्रम में तत्त्वों का उदय होता है।

English Translation: As it was described in the verse No. 63 that period of breath flow in each Nadi is two and Half Ghatis, i. e. one hour. During this period five tattvas rise in the order stated in previous verse. During the flow of breath in every Nadi these tattvas rise separately but in the same order.

अहोरात्रस्य मध्ये तु ज्ञेया द्वादश संक्रमाः।

वृष-कर्कट-कन्यालि-मृग-मीना निशाकरे।।73।।

अन्वयः अहोरात्र्यस्य मध्ये तु द्वादश सङ्क्रमाः ज्ञेयाः। (तेषु) निशाकरे वृष-कर्कट-कन्यालि-मृग-मीना (राशवः वसन्ते)

भावार्थः दिन और रात, इन चौबीस घंटों में बारह संक्रम अर्थात् राशियाँ होती हैं। इनमें वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियाँ चन्द्रनाडी में स्थित हैं।

English Translation: Twelve Rashis appear during 24 hours of day and night. Out of these twelve Taurus, Cancer, Virgo, Scorpio, Capricorn and Pisces are related to Chandra Nadi.

मेषसिंहौ च कुंभश्च तुला च मिथुनं धनुम्।

उदये दक्षिणे ज्ञेयः शुभाशुभविनिर्णयः।।74।।

अन्वयः मेषसिंहौ च कुम्भश्च तुला च मिथुनं धनुं दक्षिणे उदये शुभाशुभविनिर्णयः।

भावार्थः मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुम्भ राशियाँ सूर्य नाड़ी में स्थित हैं। शुभ और अशुभ कार्यां के निर्णय हेतु इनका विचार करना चाहिए।

English Translation: Remaining six Rashis- Aries, Gemini, Leo, Libra, Sagittarius and Aquarius are related to Surya Nadi. Thus, auspicious and inauspicious work can be decided in terms of Rashis accordingly.

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

आँच-45 (समीक्षा)–पर जन्मगाथा गीत की

आँच-45 (समीक्षा)

जन्मगाथा गीत की

आचार्य परशुराम रायimage

बांस का जंगल जला, फिर बांसुरी ने गीत गाए। तुम कहां हो गीत की यह जन्मगाथा मन सुनाए। तीर्थ से लौटी नहीं है श्वांस पश्चाताप की, दूर तक फैली हुई पगडंडियां है पाप की, पोर गिन-गिन उंगलियां डाकिन चबाए। अस्थियां इतिहास की कलश देहरी पर धरा है। और आंगन में अधूरे कत्ल का शोणित भरा है। कौन? आंखों के दिए में आग भर के प्रेत को फिर से जगाए।

पिछले दिनों 'राजभाषा हिन्दी' ब्लाग पर प्रकाशित स्व. पं. श्याम नारायण मिश्र का नवगीत 'जन्मगाथा गीत की' को आँच के इस अंक में समीक्षा के लिए लिया जा रहा है। मिश्र जी के गीतों में उनके परिवेश, चाहे वह गाँव हो, शहर हो या गाँवों और शहरों के भौतिक व सूक्ष्म स्वरूप, उनकी अन्त: और बाह्य प्रकृति से सह-सम्बन्ध सभी मुखरित हुए हैं। मिश्र जी एक छोटे से गाँव में जन्म लिए। जीवन की आवश्यकता ने हम सभी की तरह उन्हें भी सजाया, सँवारा और डावाँडोल किया। पर, गीत के प्रति उनकी अनुरक्ति तीव्रतर ही होती गई। ऐसा नहीं कि उन्होंने गद्य नहीं लिखा। उनकी गद्य-रचनाओं में भी गीत की प्राञ्जलता ने दम नहीं तोड़ा। वे भी गीतों से कम प्राञ्जल नहीं हैं। उन्हें पूरी प्रकृति संगीतमय लगती थी। उनकी शब्द योजना में अनुस्यूत बिम्ब हर जगह भाषा की ताजगी को गुम्फित किए रहते हैं। जीवन और प्रकृति के हर रूप उनके गीतों के विषय हैं। फिलहाल आँच के इस अंक का विषय है उनका एक गीत 'जन्मगाथा गीत की'

मिश्र जी के साथ यदि पाँच-छ: वर्ष न बिताए होते तो इस गीत की समीक्षा कुछ और होती। अभिव्यक्ति की उनकी अद्भुत प्रतिभा और उनका गीत से अलग प्रकृति के अस्तित्व की कल्पना न कर पाना, उनकी इस फितरत से परिचित होने के कारण समीक्षा अधिक आसान हो गयी है और इसके आयाम के नियतन काफी सुविधाजनक हो गया है।

विनाश के गर्भ से ही सृजन का जन्म होता है और सृजन से ही विनाश का या दूसरे शब्दों में कहा जाये तो सृजन और विनाश अन्योन्याश्रित हैं। एक के अभाव में दूसरे की कल्पना असम्भव है। गीत के प्रथम बन्द में बाँस का जंगल जलाकर बाँसुरी के सृजन और क्रमान्तर से बाँसुरी से गीत के स्वरों के प्रस्फुटन में से इसी सिद्धान्त की बात निकलकर आती है। सात स्वरों का नियतन, फिर उनके क्रम-भेद से अनेक राग-रागिनियों का प्रादुर्भाव और पुन: उनमें विचलन से उनके भेदोपभेद तथा गायन काल का निर्धारण आदि गीत के एक लम्बे इतिहास की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जिसे मिश्र जी ने दो पंक्तियों में कहा है -

बाँस का जंगल जला,

फिर बाँसुरी ने गीत गाए।

आदिकालीन गीतों को लेकर इसके शास्त्रीय स्वरूप को कालान्तर में आयाम मिला। शास्त्रीय संगीत का स्वरूप लोगों के लिए इतना जटिल हो गया कि यह गाने वालों और समझने वालों दोनों के लिए धीरे-धीरे दुरूह होता गया और यहाँ से सुगम संगीत ने जन्म लिया।

पुन: स्वरों में आरोह-अवरोह के अवकाश को घटाकर तान द्वारा पश्चिमी शैली पर रॉक म्यूजिक युवा वर्ग की पहिचान बना। धीरे-धीरे इस संगीत के प्रति इतना आकर्षण बढ़ा कि प्राय: सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों में इस शैली में गीत बनाए गए और गाए जाने लगे हैं और इस प्रकार गीत-जगत में विभिन्न मान्यताओं और अवधारणाओं ने जन्म लिया होगा। आजकल हमारे सामाजिक, धार्मिक आदि अवसरों पर फिल्मी गीतों का लगभग एकाधिकार हो गया है। अपनी परम्पराओं के प्रति नयी पीढ़ी की अनासक्ति के कारण सुसंस्कृत पारम्परिक गीत प्रायः लुप्त हो चले हैं। एक ओर मान्यताओं और अवधारणाओं की विविधता को विकास के रूप में उदारवादी देखते हैं, तो दूसरी ओर अन्य शैलियों को पसन्द और नापसन्द करने वाले इसके अन्तर्विरोध को लेकर एक दूसरे की निन्दा करते हैं। लेकिन यदि निष्पक्ष भाव से देखें तो कृत्रिम गीत, अर्थात् स्वरों में मनमाने ढंग से मैनिपुलेशन कर गीत के नैसर्गिक स्वरूप एवं विकास को विकृत रूप देने वाले झोलाछाप संगीतज्ञों का बोलबाला अधिक दिखाई पड़ता है। इनकी 'डाकिन' अर्थात् विकार रूपी चुड़ैल संगीत की नैसर्गिक पावनता को आए दिन विद्रूप करती दिखती है। इन्हीं तथ्यों को मिश्र जी ने गीत के दूसरे बन्द में व्यक्त किया है -

तीर्थ से लौटी नहीं है श्वास पश्चाताप की,

दूर तक फैली हुई पगडंडियाँ हैं पाप की,

पोर गिन-गिन उँगलियाँ डाकिन चबाए।

गीत के उपर्युक्त परिवर्तित परिवेश में गीत के प्रेमियों को लगता है कि कहीं नैसर्गिक गीत लुप्त न हो जाये। यदि आज के तथाकथित कृत्रिम गीत पर कोई उँगली उठाता है तो लोग-बाग भड़क उठते हैं। गीत प्रेमियों की इसी पीड़ा को गीतकार ने अंतिम बन्द में व्यक्ति किया है -

अस्थियाँ इतिहास की कलश देहरी पर धरा है।

और आँगन में अधूरे कत्ल का शोणित भरा है।

कौन? आंखों के दिए में आग भर के

प्रेत को फिर से जगाए।

नवगीत के शिल्प पक्ष की यहाँ चर्चा नहीं की जा रही है, क्योंकि नवगीतकार स्वयं इसकी रचना शिल्प पर एकमत नहीं हैं। कुछ लोग गीत में नये बिम्बों के प्रयोग मात्र को ही नवगीत की आवश्यकता समझते हैं, तो कुछ लोग अपने-अपने ढंग से इसे व्याख्यायित करते हैं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि 'नयी कविता' की ही तरह छठवे दशक के बाद लिखे गए गीत ही नवगीत हैं। मिश्र जी की दृष्टि से प्रस्तुत गीत भी नवगीत है। हालाकि इसमें मात्राओं के किसी एक क्रम का विधान नहीं दिखता है। इसके अतिरिक्त दो सींगों वाला 'ह' अर्थात् पाँचवी, आठवीं और नौवी पंक्तियों में प्रयुक्त 'है' अनावश्यक है। मिश्र जी स्वयं 'है' का प्रयोग तब तक उचित नहीं मानते थे जब तक कि 'है' स्वमेव क्रियापद के रूप में प्रयुक्त न हो।

यदि उक्त बातों को छोड़ दिया जाये तो गीत का बिम्ब-विधान भाषा में नवीनता और ताजगी के सौरभ से युक्त है। मेरे लिए अफसोस की बात यह है कि यह समीक्षा ऐसे समय पर आ रही है जब पं. श्याम नारायण जी हमारे बीच नहीं हैं। मिश्र जी ने कई बार मुझसे अपने गीतों पर समीक्षात्मक विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा था। लेकिन वह हो नहीं पाया। यदि वे आज होते तो इस समीक्षा पर उनके विचार जानने को मिलते जो हमारे लिए बहुमूल्य होते।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

देसिल बयना - 57 : आयी न गयी, बाबू बहू भयी....

-- करण समस्तीपुरी


"बहे पुरबैय्या बयार.... धान काटे चलो रे किसनमा.... ! पियर-पियर हो गईल पोआर.... धान काटे चलो रे किसनमा.... !!" गाँव में तो आज-कल यही गीत गूंज रहा हैदीनानाथ के अरघ चढ़ा के गंगा नहाय लिएअब घर आयेगा अगहन्नी (अगहन मास का अन्न)। ससुर मूसबो मार रहा है मूछ पर ताव


"अगहन महीना, नया धान ! भौजी कूटे मूसल तान !! बोल बदरुआ सीताराम !!! अगहन के पुरबैय्यातनिक-तनिक सिहरे शरीरबाहर छतौना वाली, बुद्दर दास, अवध और चुनचुनिया धान झाड़ रही थी झमाझम और अंगना में दुन्नु भौजी चिउरा कूट रही थी दनादनपकौरी लाल, कटोरिया और बदरू के साथे हम तो सरपट अंगने घुस गएमूसल के चोट से गरम चिउरा का भूसा छोड़ा कर खाने का मजा.... का बताएं... ? आहाहा..... नयका चिउरा के मिठास पर मोहनभोग को भी बारौं और अनुपम दिरिस के आगे सात खंड स्वर्ग के भी लात मारौंभले कहे गुपुत जी, "अहा ग्राम्य जीवन..... !"


भौजी सब हे-हे करती रही और हमलोग फटाक से बकोटा भर चिउरा अंगोछा में बांधे और कहे चलो धनिक लाल के दोकान से दालमोट लेकर चिउरा में मिला कर खायेंगेबगल में सुंघनी साहू के मूली का खेत भी हैराम कहो


अभी चौबटिया से दक्खिन हुए ही थे कि कटोरिया उचक के बोला, "अरे तोरी के ! बसंती काकी कने इत्ती भीड़ काहे की है....? चलो ज़रा चल के देखें.... ।" अब लड़िकन झुण्ड सियारान केजौन दिश एगो गया उधरे सब हुल गया बात में तो कौनो शक-सुबहा नहीं होना चाहिए कि ऐसन भीड़-भाड़ गाँव में सबसे बड़ा मनोरंजन होता हैहिहियाना-खिसियाना-हाथ चमकाना, आँखें मटकाना, और डायलोग तो ऐसन-ऐसन बजरता है कि मुग़ल--आज़म फेल


हम लोग तो तिनफुटिया थे हीबाम-दहिन करते हुए आड़े-तिरछे भीड़ को चीर कर सर्किल में पहुँचिये गएअरे तोरी के तो सच में गजब तमाशा था में तो एगो हिरोईनी भी थीपांच हाथ लम्बी, कमर तक केश, गोर दक-दक.... और देखो पहिनी है का.... कुरता-पैजामा.... हाय राम ! कौन देश की है ? खी... खी...खी...खी.... ! पकौरिया की हंसी दबाने से भी नहीं रुकीहम तो चुप्पे मुँह पर हाथ रख लिए


मगर है कौन... ? कहाँ से और काहे आयी है ? और बसंती काकी रह-रह के पर बमक काहे रही हैं ? हम लोग एक बार औरतिया को निहारें और एक बार भीड़ में इधर-उधर खिसक-खिसक के के प्रयोजन जानने की चेष्टा करेंआखिर बुझाउन ठाकुर कौन दिन काम आयेंगे तो काकी के चिनवार पर इस्कुले खोले थेजौन नया दर्शक आये फुसफुसा के सब को माजरा समझा रहे थे.... तो बात है मंगरू भाई की लुगाई है। मगर बसंती काकी पर इतना बिगड़ काहे रही हैं ? अरे पतोहिया पहली बार ससुराल आयी हैउन्हें तो सन्देश-मिठाई बांटनी चाहिए.... !"


बाते-बात में मुखिया सरपंच सभे गएगाँव समाज के दू-चार मान्य जन भी जुट गए जनानी ओढ़नी से माथा झाँपे रोय-रोय के सब को अपना व्यथा सुना रही थीबीच-बीच में काकी घुड़क रही थी तो छोटका लहरुआ उको शांत करा देता थाअच्छा... ! तो मंगरू भाई परदेस गए रहे कमाए मगर उहाँ जा के घरे बसा लिए और इहाँ किसी को कानो-कान खबर नहीं.... धत तोरी के !


खैर बिन बोलाए पंच लोग सारा बात सुन के काकी से पूछे, "मंगरू है कहाँ ? आखिर वही बताएगा कि की लुगाई है कि नहीं... !" काकी कलेजा ठोक के बोली थी, "धान का बोझा बनवा रहा है चौर मेंअभी ही रहा होगाफिर चुड़ैल का सारी चाल उतर जायेगी।"


तब तक एगो आदमी मंगरू भाई को साइकिल चढ़ा के चौर से ले आया था...हा....हा.... ! मंगरू भाई को देखते ही औरतिया का सुबकना और बढ़ गया बेचारी मंगरू लाल का हाथ पकड़ के अपना माथा पर रख ली और से पहिले कुछ बोले कि काकी झट से मंगरुआ को खींचते हुए दहार पड़ीं, "बंद करो कमरू कामख्या का काला जादू।" फिर मंगरू भाई के मुखातिब हो बोली, " बेटा ! जादूगरनी के मायाजाल को चीर दोबोलो दो का सच्चाई का है ?" मंगरू भाई एकदम सकदमफिर जनानी बोली, "बोलिए ना ! आप चुप काहे हैं ? कह दीजिये सकल समाज के सामने कि हमरा-आपका रिश्ता क्या है ?"


मंगरू भाई एकबार माई को देखे और एकबार लुगाई कोआखिर सरपंच बाबू और झोटकन झा को बुला के एक किनारे ले गएहमलोग भी धीरे-धीरे उधरे सरक गएहई देखो.... ! को कहते हैं नेह और परेमआखिर मंगरू भाई सब सच कबूले ना... ! अब तो भौजी को कोई नहीं लौटा सकता हैअब देखें बसंती काकी कौन सा आग उगलती हैं


झोटकन झा सरपंच बाबू का दूत बन के गए सुलहनामा लेकर काकी के पासमगर काकी तो एकदम अगिया बैताल हो गयीझाजी को पड़े धकेल कर गयी मैदान मेंबोली, "हम भी देखते हैं कि हमरे जीते जी हरजाई कैसे हमरे दुआर का चौखट छूती हैहमरे बेटा पर वशीकरण मंतर मार दीया और भोला-भाला लड़का के परेम-जाल में फँस गया तो हम भी मान लेंगे का... ? कहता नहीं कि "आयी गयी, बाबू बहू भयी !"


रे तोरी के काकी सो इस्टाइल में हाथ चमका के बोली थी कि सब बच्चा-बुतरू हिहिया-हिहिया के लगा दोहराए। "आयी गयी, बाबू बहू भयी !" काकी का फकरा सुन के बेचारे सरपंच बाबू भी बिहंस पड़े थेकाकी को और बल मिलाकहे लगी, "सहिये .... ! कौन गया को ब्याहे ? कौन लाया को गौना करा के.... ? सत्य-हरिश्चंदर के पोती है कि इहाँ के मुँह चीर दी और हम मान गए।"


सरपंच बाबू पूछे, "तो मतलब कि आपका बेटा भी कहे तब भी आपकी पतोहू नहीं हुई ?" काकी ठायं पर ठायं बोली, "बेटा के बोले से का हो जाएगाहम ब्याह करेंगे तब हमरी पतोहूऔर 'आयी गयी, बाबू बहू भयी' वाली बात हम नहीं ना मानेंगे।"


सरपंच बाबू भी अपना कानूनी नोख्ता फेंके, "मतलब आप ब्याह गौना कराईयेगा तब मानियेगा कि आपकी पतोहू हुईबिना आये-गए में नहीं मानियेगा ?" काकी ठुनुक के बोली, "एकदम नहींबिना ब्याह गौना के घर बसे वाली औरत की भी कोई इज्जत है ?"


फिर सरपंच बाबू सब को मिला जुला के ही फैसला दीये, "सुनिए बसंती भौजी ! लड़की में कौनो दोष नहीं हैबेचारी परदेस से आयी है और आपका लड़का भी को अपनी लुगाई कबूल किहिस हैअब रहा बात आने जाने कि... तो आप अबही रस्मपुराई कर लीजियेआप भी औरत हैं एक औरत का मर्यादा रखिये।"


आखिर सरपंच बाबू का मोहरा सही घर में बैठा थाकाकी का हिरदय भी पसीज (पिघल) गयाबोली, "ठीक है अपने मर्याद से हमरे घर में ही रहेहम दस समाज को बुला के मंगरू के साथ का गठबंधन करा देंगेतब जा कर हमरे परिवार का अंग होगीवैसे अभी रगड़ करेगी तो "आयी गयी, बाबू बहू भयी !" वाली बात हम नहीं होने देंगे।"


बेचारी परदेसी औरत को से ज्यादा का चाहिए फट से काकी के पैर पर गिर गयीकाकी उको उठा के देहरी पर ले गयीअगले पक्ख में दस समाज मंगरू भाई और की परदेसी लुगाई को आशीष दे घर पैसार करा दीयेतब भी सरपंच बाबू ठिठोली करने से नहीं चूके, "का हो बसंती भौजी ! अब तो 'अब तो आयी गयी, बाबू बहू भयी' नहीं कहिएगा न ?" बसंती काकी इठला के बोली थी, "मार लुच्चा... बुढ़ापा में भी मश्खरी नहीं गया है...!"


तरह से मंगरू भाई का घर तो बस गया मगर काकी 'आयी ना गयी, बाबू बहू भयी' को काकी नहिये मानी। देखिये सुनने में कनिक गड़बड़ जरूर लगता है मगर बात कोई खराब है नहींआखिर सब कुछ की एक प्रक्रिया होती हैबिना प्रक्रिया के प्रतिफल का सम्मान नहीं होताइसीलिये बिना उचित व्यवहार के आयी असली बहू का भी सम्मान नहीं हुआ समझे.... ! नहीं समझे तो समझते रहियेहम चले चिउरा-चीनी फांकनेजय राम जी की !