शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

त्याग-पात्र : भाग 5

पिछले सप्ताह आपने पढ़ा --- सी.पी.डब्ल्यू.डी. केअभियंता बांके बिहारी सिंह की इच्छा थी कि एक पढ़ी लिखी लड़की से उसकी शादी हो। उसके पिता ठाकुर बचन सिंह ने जब राघोपुर के गोवर्धन बाबू की कन्यारामदुलारी के बारे में सुना तो उसे अपने घर की बहू बनाने के लिए लालायित हो गए। रामदुलारी ने जब महाविद्यालय में पढ़ाई करने का मन बनाया तो घर के सदस्यों की राय उसकी इच्छा के विपरित थी। लेकिन बाबा के आदेश ने दिया रामदुलारी के अरमानो को जीने का मौका ... अब आगे पढ़िए ....
-- मनोज कुमार


खुशी के मारे रामदुलारी को तो मानो पर ही लग गए। महाविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया में छोटके चाचा ने बड़ी मदद की। पटना दौड़-भाग करते रहे। पर अंत भला तो सब भला। पटना महाविद्यालय में दाखिला हो गया। और छात्रावास में जगह भी मिल गई। दो दिनों के बाद पटना जाना था। पटना जाने के पहले अपनी सहेलियों के साथ तो उसने अंतरंग क्षण बिताए ही, फुलौना जाकर नानी से भी आशीर्वाद लेने का विचार किया और बुद्दर दास के तांगे से फुलौना के लिए प्रस्थान किया। ईंट की टूटी सड़को पर ठप-ठप घोड़े के चरण-थाप के साथ ताल मिलाते गले के घुंघरुओं के मनोहर संगीत में तो रामदुलारी जैसी खो ही गयी। रास्ते भर में कहीं झुके हुए खजूर के पेड़ और कहीं बिजली के तारों पर झुण्ड से बैठे पंडुक जैसे रामदुलारी का रास्ता ही देख रहे थे। ठप-ठप-झाम-झाम करता हुआ बुद्दर का तांगा आगे बढ़ा, पंडुक उड़ते गए आगे और आगे, मानो नानी को रामदुलारी के आगमन की सूचना देने की जल्दी हो। राघोपुर से फुलौना की दूरी छः-सात कोस की थी। रामदुलारी का बचपन फुलौना में रस्सी कुदते, झूला झूलते, गुड़ियों की शादी करते, गिटा और बुढ़िया कबड्डी खेलते बीता था। नानिगाओं का रास्ता, पेड़-पौधे परिंदे, बियावान सब तो अपने ही लग रहे थे। ठप...ठप...ठप... लय को मद्धिम करता हुआ तांगा एक पर्णकुटीर के आगे रुका। जीर्ण-वस्त्रों में लिपटी एक क्षिन्नकाय अबला गाय को सानी-पानी दे रही थी। अचानक एक जोड़ी आँखें ऊपर उठी। रामदुलारी की आँखों से टकराई और चारों आँखें सजल हो गयीं। बुद्दरदास सामान उतारने लगा। रामदुलारी ने झुक कर नानी के पैर छुए। 'जुग-जुग जियो, बच्ची मेरी।' नानी को रामदुलारी को देखकर हर्ष और अचरज का ठिकाना न रहा। अंक में भर नातिन को आंगन में ले आई। पीछे-पीछे राम दुलारी का थैला लिए बुद्दर भी आया। दोनों ने पूरी दोपहरी जी भर कर बातें की।
नानी की झोपड़ी के नीचे झुके छप्पर से सांझ के सूरज की किरणे उनके बूढी आँखों के स्नेह की तरह झाँक रही थी। झोपरी में सीधा खड़ा होना भी किसी योगासन से कम नहीं था पर रामदुलारी के लिए तो नानी की गोद ही शान्ति का शिविर था जिसकी ममता के आँचल में वो आँख मूंदे पुराने पलों को याद करती रही। पेड़ो की टहनियों को बांधकर, सरपत घास और टाट के पत्तों से बनाई गई झोंपड़ी नानी के हाथों की कला थी। वैसे नानी के हाथों की मूंज की बनी चटाई और पौती भी रामदुलारी को खूब प्रिय थे। उस पर से पेड़ पौधों की पत्ती, फूल की पखुड़ियों के रस से रंग कर देने में नानी को महारत हासिल थी। मिथिला पेंटिग की कुछ बहुत ही अच्छी चित्रकारी रामदुलारी के शयनकक्ष की दीवारों की शोभा बढ़ाती हैं और उन चित्रों से हमेशा नानी का चेहरा झांकता होता है। नाना तो नानी को पांच वर्ष के वैवाहिक जीवन का फल वैधव्य के रूप में देकर रामधाम चले गए थे। नानी के पास यही सम्पति बची थी, पर्णकुटीर !
शाम होते-होते आकाश पर बादल मंडराने लगे। मौसम फिर भी काफी सुहाना था। पक्षियों के कलरव वातावरण में आनन्द घोल रहे थे। देर शाम तक बादल गड़गड़ाने लगे थे। रात का भोजन करते-करते मूसलाधार वर्षा आरंभ हो गई। बरसात की भींगी धरती पर रामदुलारी को कलेजे में लगाए नानी अपने आंचल से ढांकर बौछारों से बचाने का निरर्थक प्रयास करती रही। पर्णकुटीर इस मूसलाधार वर्षा को कहां सह पाती। थोड़ी देर की हवा-पानी से उस झोंपड़ी का ढांचा चरमराने लगा। सारी रात नानी को उसकी मरम्मत करते ही बीत गई। कभी इस कोने को संभालती तो उस कोने से बगावत की परेड शुरू हो जाती। जब तक उस किनारे की मरम्मत की तो बीच का पाया हिलने लगा। ऐसे में मामा होते तो थोड़ी मदद भी होती पर वो तो समस्तीपुर में ही रहते हैं। कचहरी का कार्य है। भोरका पसेन्जर से रविवार को आ जाते हैं और संझका वाला से वापस चले जाते हैं। ऐसे मे बुद्दर दास बड़ा सहारा बना। थोड़ी बीती बातें हुई। कुछ भविष्य के सपने बुने गए। श्रद्धा और आशीष के शब्द बदले गए। आँखों मे सारी रात कट गयी।
बरसात के बाद की सुबह की धूप काफी तीखी होती है। रामदुलारी सीराघर में देवी को प्रणाम कर नानी का चरण-स्पर्श किया। नानी ने उसके लिलार चूमे। चुनरी के खूट मे कागज़ जैसी कोई चीज बांधी। फिर बुद्दर दास को एक मुट्ठा बीड़ी और रास्ते मे चाह पीने के लिए, दुटकिया सिक्का दिया। बुद्दर का टम-टम एक बार फिर उसी कच्चे-पक्के रास्ते पर दौड़ पड़ा। लेकिन इस बार दिशा उल्टी थी।

छूटेगा गाँव ! अब जायेगी शहर !! किन से मिलेगी ? कैसे रहेगी ? रामदुलारी की जिन्दगी का एक नया अध्याय होगा शुरू ? मगर कैसे ?? पढिये.. अगले हफ्ते ! इसी ब्लॉग पर !!

त्याग पत्र के पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥



25 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगता है,आपकी लेखनी पढ़कर। फिर अगले हफ्ते का इंतजार रहेगा।

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  2. गांव के जीवन का चित्रण पूर्व के अंकों से प्राप्त करता रहा हूं । आज भी कितनी ही रामदुलारी हमारे बीच विद्यमान है । आपकी कहानी से
    रामदुलारी जैसे परिवार को कुछ ग्रहण करना चाहिए । शुभकामनाएं।

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  3. बहुत रोचल लगा जी, अगली कडी का इंतजार है

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  4. हर द्ष्टी से उत्तम कोटि की रचना । आज का यह भाग भी सुंदर बन पड़ा है ।

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  5. Bahut sundar aur colourful lagi raamdulari aur nani ki yeh khubsurat rishtein ko lekar likhi gayi aapki yeh rachna.Nani aur natni ki snehhil paati padh kar mann gadd gadd ho gaya.

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  6. रोचक है , खासकर गाँवों का चित्रण

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  7. बहुत अच्छी रचना है।पढ के बहुत अच्छा लगा।

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  8. इस बार भी रोचक और सरस रहा। अगले अंक की प्रतीक्षा है।

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  9. ग्रामीण परिवेश, दुरावस्था, स्नेह एवं आचार का सुन्दर चित्रण

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  10. एक निर्मल कथा बहुत ही मनोरम होती जा रही है!

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  11. कथा बड़ नीक बनि रहल अछि. गाम-घरक सुन्दर चित्रण मन मोहि लेलक !!

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  12. आपकी लेखनी में जादू है. पढ़कर इस कदर खो गया कहानी के हर चरित्र में की प्रशंसा के एक भी शब्द बन पा रहे हैं.

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