आँच-37चक्रव्यूह से आगेआचार्य परशुराम राय |
![]() गीत की भावभूमि विषम परिस्थितियों में सृजन की आस्था है। वैसे भी सृजन पीड़ा के गर्भ से ही सम्भव होता है। पीड़ा सृजन की आवश्यकता है। आवश्यकता होती है - पीड़ा में अपने उत्साह और धैर्य के प्रति सजग रहने, दृढ़ होने की। धैर्य और उत्साह दोनों के संयोग से सृजन की समझ या विवेक उत्पन्न होता और यही सृजन में गुणात्मकता ले आता है। जहाँ हम सौन्दर्य का, आनन्द का साक्षात करते हैं। इस जीवन दर्शन को बड़ी ही सुन्दर शब्द-योजना के साथ दो पंक्तियों में कहा गया है:- सृजन पीड़ा के गर्भ से ही सम्भव होता है। पीड़ा सृजन की आवश्यकता है। आवश्यकता होती है - पीड़ा में अपने उत्साह और धैर्य के प्रति सजग रहने, दृढ़ होने की। धैर्य और उत्साह दोनों के संयोग से सृजन की समझ या विवेक उत्पन्न होता और यही सृजन में गुणात्मकता ले आता है। जहाँ हम सौन्दर्य का, आनन्द का साक्षात करते हैं। 'इस व्यूहचक्र से आगे ही सुन्दरता परिभाषित होती है' वियोग की वेदना हमारे अन्दर की अभिव्यक्ति के नए-नए आयामों की अर्गलाएं खोलती जाती है। यहाँ वियोग शृंगार के एक भेद तक सीमित नहीं है। यह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और परिवेशों में अभावजन्य व्यक्तिगत और समष्टिगत अनुभूति है। निम्नांकित काव्यांश का प्रयोग निबंध लेखन में हमें वियोग को एक सीमित अर्थ में ही बताया गया था- वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। कवि की पीड़ा अपने विशुद्ध रूप में व्याप्त समष्टि की पीड़ा है। यही कारण है कि व्याध द्वारा क्रौञ्च जोड़े में एक के मारे जाने पर आदि कवि महर्षि बाल्मीकि के मुँह से उनका शोक श्लोक के रूप में प्रस्फुटित हुआ था - या निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती:समा:। यत् क्रौंञ्चमिथुनादेकामवधी: काममोहितम्॥ 'तेभ्यो ब्रह्माण्डमुत्पन्नं तैरेव परिवर्तते। विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुन:॥ अर्थात् पंच महाभूतों से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। उन्हीं के द्वारा यह परिवर्तनशील रहता है। उन्हीं में लय होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। तो इस प्रकार अमरत्व कोरी कल्पना नहीं, बल्कि समग्रता में यथार्थ की ठोस भूमि हैं। मैंने अविरल अश्रुलड़ियों को शब्द शृंखला सा रचा है। ............................................. ............................................ मिटा न पाए उसकी क्रूरता भले निर्मम समय हर रचना पर हँसा है। अगले अर्थात् दूसरे बन्द में पुरातन की कठोर सोच पर नवीनता की खोज के कोमल भाव की सुगबुगाती कुण्ठा को मुक्त करने के लिए बहुत ही स्वाभाविक और सुन्दर आयाम दिया गया है- क्या लिख लेंगे नया हम जीवन कमल कीचड़ के बीच खिला और सदा से वहीं फंसा है इस व्यूहचक्र से आगे ही सुन्दरता परिभाषित होती है। इस बन्द की अंतिम दो पंक्तियाँ एक आश्चर्य को जन्म देती हैं कि भुगतते तो हम यथार्थ हैं, लेकिन जीते हैं कल्पनालोक में। यही आश्चर्य हमारे कल्पनालोक की परिकल्पना को यथार्थ में परिवर्तित करता है। बिजली, रेडियो, टी.वी. या अन्य सामान्य से लगने वाले साधन इसी के परिणाम हैं। यथार्थजनित कल्पना अन्तस के भाव को भाषा प्रदान करती है। जिस प्रकार वृक्ष के प्राण का मूल जड़ में ही है और जड़ के लिए मिट्टी आवश्यक है। इसी प्रकार भाव के लिए यथार्थ की भूमि का होना आवश्यक है। रहीम कवि भी यही कहते हैं:- एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। रहिमन सींचे मूल को, फूलहिं फलहिं अघाय। यही भाव-सुधा मानव को द्वैत से परे अपनी मंजिल अमरत्व की ओर ले जाती है, क्योंकि जीवन अपने आप में एक प्रेरक नशा है, सनक है जो हमारी अन्तर्निहित समस्त सम्भावनाओं को यथोचित विकास प्रदान करता है। प्रस्तुत कविता के उपर्युक्त आयामों की यात्रा में जो कठिनाइयाँ दिखीं, उनकी ओर संकेत करना आवश्यक है। इन्हें निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है:- शब्द संयम:- पहले बन्द की पहली पंक्ति में 'मैंने', तीसरी में 'कई', पाँचवी में 'मैं', छठवीं में 'कि' सातवीं में 'उसकी' शब्दों को हटा देने से कविता इन शब्दों के बोझ से हल्की हो सकती है। छठवीं पंक्ति से 'कि' के स्थान पर केवल एक हाइफन (-) 'कि' का अर्थबोध करा सकता है। दूसरे बन्द की अन्तिम पंक्ति में 'यूँ' शब्द अपनी शब्द योजना पर बोझ है। इसी प्रकार अन्तिम बन्द की तीसरी पंक्ति में 'है' और सातवीं में 'सुनहरी' शब्द अनावश्यक रूप से बन्द को बोझिल बनाए हुए हैं। क्योंकि 'मंजिल' हमेशा आदर्श, सुन्दर और आकर्षक होती हैं उसके लिए किसी विशेषण की आवश्यकता मुझे नहीं लगती। प्रथम बंद की अंतिम पंक्ति में ‘निर्मम समय’ के स्थान पर ‘निर्मम जगत’ अधिक उपय़ुक्त होता। प्राञ्जलता:- कई पंक्तियों में प्रांजलता का अभाव है। ऊपर सुझाए गए शब्दों को हटा देने पर प्रांजलता में सुधार हो सकता है और कहीं-कहीं शब्दों को आगे-पीछे कर देने से भी। उदाहरण के तौर पर दूसरे बन्द की पहली पंक्ति में यदि 'क्या' को 'नया' शब्द के पहले रखा जाता हो प्रांजलता थोड़ी बढ़ जाती। इसी प्रकार तीसरे बन्द में 'अंतस्त ऊपर दी गई विटामिन की गोलियाँ सुझाव मात्र हैं, वह भी मेरे विचार से। कवयित्री और पाठकों का उससे सहमत होना आवश्यक नहीं है। |
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
आँच-37चक्रव्यूह से आगे
बुधवार, 29 सितंबर 2010
देसिल बयना - 49 : नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे...
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
शौक
सोमवार, 27 सितंबर 2010
खामोश यूँ लेटे हुए….
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तेरे अक्स
खामोश यूँ लेटे हुए यादों में सोचता हूँ उस गुलशन में तेरे साथ गुज़रे पल और
दबे पांव तेरा आना। कभी देखा था ख़ाब कि तमाम उम्र इसी बगिया में हम साथ चलते रहेंगे..... पर हाथ छुड़ा कर जो गुम हुए तुम तबसे
बिस्तर पर तन्हां से हम लेटे ज़रूर पर तुम्हारी यादों की सरसराहट बन्द पलकों को खोल देती है या मानों तेरी यादें आंखों में अंटक-सी गईं हैं!! |
रविवार, 26 सितंबर 2010
काव्यशास्त्र (भाग-3) - काव्य-लक्षण (काव्य की परिभाषा)
काव्यशास्त्र (भाग-3)काव्य-लक्षण (काव्य की परिभाषा)
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भारतीय काव्य शास्त्र में परिभाषा को लक्षण शब्द से अभिहित किया गया है। अतएव यहाँ परिभाषा के स्थान पर लक्षण शब्द का ही प्रयोग किया जा रहा है। किसी लक्षण की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें कोई दोष न हो। परिभाषा (लक्षण) के तीन दोष कहे जाते हैं- अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव। इसे स्पष्ट करने के लिए यदि हम एक उदाहरण लें- ‘मनुष्य एक साँस लेने वाला प्राणी है।’ इस परिभाषा में अव्याप्ति और अतिव्याप्ति-दोनों दोष मौजूद हैं। अव्याप्ति इसलिए कि मनुष्य में साँस लेने के अतिरिक्त चिन्तन करने की क्षमता, विवेक आदि भी है, जो उसे अन्य प्राणीयों से अलग करता है और उक्त परिभाषा पूर्णरूपेण मनुष्य को परिभाषित नहीं करती। अतएव यह परिभाषा अव्याप्ति दोष से दूषित है। अतिव्याप्ति इसलिए कि मनुष्य के अलावा अन्य प्राणी भी साँस लेते हैं और इस प्रकार यह परिभाषा मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों पर भी लागू होती है। इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी वर्तमान है। इसी प्रकार असम्भव दोष से ग्रस्त वह लक्षण माना जायगा जो परिभाषित की जाने वाली वस्तु या विषय को स्पर्श ही न करे, यथा ‘मनुष्य अमर हैं।’ काव्य एवं काव्यांगों की परिभाषा करते समय सभी आचार्यों ने बड़े सजग होकर यह प्रयास किया है कि उनके द्वारा प्रतिपादित लक्षण अथवा सिद्धान्त निर्दोष हों। विभिन्न आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य के लक्षण इस प्रकार हैं: ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’
-आचार्य भामह (शब्द और अर्थ का समन्वय काव्य है या शब्द और अर्थ का समन्वित भाव काव्य है।) ‘शरीरं तावदिष्टार्थ-व्यवच्छिन्ना पदावली।’ -आचार्य दण्डी (इष्ट अर्थ से युक्त पदावली (शब्द समूह) ) काव्य का शरीर है अर्थात् मनोरम हृदय को आह्लादित करने वाले अर्थ से युक्त शब्द समूह काव्य का शरीर है।) ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ -आचार्य वामन (रीति (शैली) काव्य की आत्मा है।) ‘काव्यस्यात्मा ध्वनिः’
-आचार्य आनन्दवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि है।) “शब्दार्थौ ते शरीरं संस्कृतं मुखं प्राकृतं बाहुः जघनम्पभंशः पैशाचं पादौ उरो मिभ्रम्। समः प्रसन्नो मधुर उदार ओजस्वि चासि। उक्तिगणं च ते वचः रस आत्मा रोमाणि छन्दांसि प्रश्नोत्तर-प्रवाहलकादिकं च वाक्केलिः अनुप्रासोपमादयश्च त्वामलङ्कुर्वन्ति।” -आचार्य राजशेखर यहाँ आचार्य राजशेखर ने शब्द और अर्थ को काव्यपुरुष का शरीर, संस्कृत (भाषा) को मुख, प्राकृत भाषा को बाहु, अपभ्रंश को जंघा, पैशाचिकी भाषा से पैर और गद्य-पद्य को वक्षस्थल कहा है। उक्तिवैशिष्ट्य काव्यपुरुष की वाणी, रस आत्मा, छन्द रोम, प्रश्नोत्तर और पहेली आदि आमोद-प्रमोद और अनुप्रास-उपमा आदि आभूषण हैं। ‘शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिर्नि बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाहलादकारिणी।।’ -आचार्य कुन्तक
आचार्य कुन्तक ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य के सभी लक्षणों का समावेश कर काव्य का लक्षण नियत किया है। इसमें भामह का ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’, दण्डी की ‘इष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली’ और वामन की ‘रीति’ दोनों को ‘तद्विवदाह्लाद कारिणि’ के अन्तर्गत, आचार्य आनन्दवर्धन के ‘व्यंञ्जनव्यापार-प्रधान ध्वनि’ और आचार्य राजशेखर के ‘रस’ को ‘वक्रकविध्यापारशालिनि’ के अन्तर्गत समावेश किया है। ‘औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्।’ -आचार्य क्षेमेन्द्र आचार्य क्षेमेन्द्र रसयुक्त काव्य में औचित्य को काव्य का जीवन अर्थात् आत्मा मानते हैं। ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती क्वापि” (इति काव्यम्)
-आचार्य मम्मट अर्थात् दोषरहित, गुणसहित, कहीं अलंकार का अभाव होने पर, शब्द और अर्थ (दोनो का समष्टि रूप) काव्य है। ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ -आचार्य विश्वनाथ अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य है। ‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ -आचार्य (पण्डितराज) जगन्नाथ अर्थात् रमणीय अर्थ प्रतिपादित करने वाला शब्द काव्य है। उक्त सभी लक्षणों को देखने पर यह विचार करना आवश्यक है कि अन्ततोगत्वा काव्य की सर्वोत्तम परिभाषा किसकी है। यदि आचार्यों द्वारा विरचित ग्रंथों को देखा जाए तो प्रायः सभी परवर्ती आचार्यों ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षणों का खण्डन करते हुए अपने मत को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। उनके द्वारा किए गए खण्डन और मण्डन से भरे शास्त्रार्थों की चर्चा न करते हुए इसका निर्णय इक्कीसवीं शताब्दी के पाठकों पर छोड़ता हूँ। अगर पाठकों ने इसकी आवश्यकता समझी तो अलग से इस पर चर्चा की जाएगी। वैसे इतना अवश्य है कि अधिकांश विद्वानों की सहमति है कि आचार्य मम्मट ने अपने काव्य-लक्षण में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षणों में वर्तमान अस्पष्टता का निवारण करके काव्य के स्वरूप को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण की विशेषताओं का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। |
शनिवार, 25 सितंबर 2010
फ़ुरसत में …. बड़ा छछलोल बाड़ऽ नऽ
फ़ुरसत में ….बड़ा छछलोल बाड़ऽ नऽआचार्य परशुराम राय |
दरवाजे पर मेरा और उक्त वाक्य का मेरी श्रवणेन्द्रिय में एक साथ ही प्रवेश हुआ करीब चार-पाँच साल पहले जब मैं वाराणसी से अपने गाँव गया था। सन्-संवत तो सटीक याद नहीं। खैर, जन्मकुण्डली तो बनानी नहीं हैं। अतएव चार साल पहले की बात हो या पाँच साल पहले की, कोई अर्थ नहीं रखती। वाक्य माँ के ही थे। वह भी शायद छोटे भाई के प्रति। यह स्मरणीय वाक्य उपेक्षा में ही कहा गया जान पड़ता था। जो भी हो, मुझे आकर्षित किया 'छदलोल' शब्द ने। दो साल के बाद घर पहुँचा था। अतएव जल्दी-जल्दी में जो कुछ बन पड़ा, माँ ने जलपान कराया और साथ ही मेरे स्वास्थ्य का मीन-मेख (मेष) निकालती रही। थोड़ी देर में समाचार पर्व समाप्त हुआ, पर 'छछलोल' शब्द मेरे कण्ठ से लगा रहा।
बेचारा गाँव की माटी से सना नंगा विशेषण 'छछलोल' पूनम की स्निग्ध चाँदनी में स्नान करके पावन हुआ और 'शशिलोल' का रेशमी परिधान धारण किया। गाँव में मैं अधिक दिन ठहरता नहीं। दो दिन रुका। वह भी अपने परम मित्र सुरेन्द्र जी के साथ ही गपशप में बीता। तीसरे दिन प्रात: सात बजे ही बक्सर-वाराणसी शटल पकड़ने के लिए घर से निकल पड़ा। मेरे गाँव का काम गंगा नदी के किनारे ही गड़ा है। मेरे घर से नदी की दूरी करीबन एक फर्लांग होगी। रास्ते में एक महिला एक बच्चे का कान उमेठे डाँट रहीं थी। बात क्या थी, समझने का प्रयास नहीं किया या यों कहिए कि मेरे शहरी बेदर्द कानों ने बच्चे की दर्द जानने में निष्क्रियता बरती। आप चाहें तो उन्हें ‘प्रसाद’ जी के शब्दों में उलाहना दे सकते हैं:- मुख कमल समीप सजे थे दो किसलय दल पुरइन के जल बिन्दु सदृश कब ठहरे इन कानों में दु:ख तिनके। किन्तु वे 'तुम सुमन नोचते रहते, करते जानी अनजानी।' की भाँति भी न रह सके। वह महिला एक शबद पर काफी जोर दे-दे कर डाँट रही थी। शब्द था ' 'बकलोलऊ'। इसका विकास 'बकलोल' शब्द से हुआ है। कर्णेन्द्रिय ने इस शब्द को मानस-सागर में बेहिचक झोंक दिया। बेचारा छपाक से गिरा और मानस-सागर में विक्षोभ उत्पन्न हो गया। पर बुद्धि ने उसे अव-चेतन की तली में डूबने न दिया। चेतन के उथले जल से ही चील-झपट्टा मार कर बचा लिया। आश्रय देने के लिए नाम, पता पूछा। किन्तु ठोस उत्तर न पाकर जाँच पड़ताल करने के लिए उसे भी भाषा विज्ञान की प्रयोगशाला में पकड़ ले गयी। भाषा वैज्ञानिक रसायन डालते ही 'बकलोल' तिलमिलाता हुआ 'बक' और 'लोल' बन गया। 'बक' के पूर्वजन्म का निवास खोजने में कठिनाई होने लगी क्योंकि 'बक' कभी 'वक' = बगुला की ओर उंगली उठाता तो कभी उसका क किर्र से वक्र की ओर संकेत करता। अस्तु 'वक' और 'वक्र' का सूक्ष्म निरीक्षण प्रारम्भ हुआ। पहले बुद्धि ने लोल शब्द का शोध कर लेना उचित समझा। इतने में देखा कि मल्लाह डोंगी खोल चुका है। चेतना ने विलासिनी बुद्धि को झटका दिया। बुद्धि ने 'बकलोल' को 'बक' और 'लोल' बनाकर तथा 'बक' के मस्तिष्क परिवर्तन के लिए 'वक' और 'वक्र' के इन्जेक्शन की शीशी भाषा विज्ञान के ऑपरेशन
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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
स्वरोदय विज्ञान - 10
स्वरोदय विज्ञान – 10आचार्य परशुराम राय |
स्वरोदय विज्ञान के कतिपय अंकों में पाठकों ने स्वरोदय विज्ञान की साधना के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की थी। उसी के परिणामस्वरूप यह अंक लिखने का विचार आया, अन्यथा नौवे अंक के बाद इस विषय पर अत्यन्त प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रंथ 'शिवस्वरोदय' का हिन्दी भाष्य सहित ब्लॉग पर प्रकाशित करने का विचार था। अब यह कार्य इस अंक के बाद किया जाएगा।
इंटरनेट पर वेबसाइट http://swarayoga.org/ पर अंग्रेजी भाषा में इस सम्बन्ध में बहुत सी जानकारियाँ दी गयीं हैं, यथा - स्वरचक्र (Swara Cycle), स्वर लयबद्धता से लाभ (Benefits of Swar Rhythms), भौतिक शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के स्वर चक्र (Physical Subtle and causal body Swar Cycles), स्वर बदलने के तरीके (Methods to change Swara), जन्म नाड़ी और तत्व गणक (Birth Nadi and Element Calculator), पंचांग गणक (Panchang Calculator), स्वर पंचाग गणक (Swar Panchang Calculator), जन्म काल में कारण शरीर का स्वर गणक (Causal Body Swar Calculator during birth), आदि को बड़े ही सुन्दर और सरल ढंग से दूसरी वेबसाइट श्री प्रेम निर्मल जी द्वारा दी गयी है। इनका पता नीचे दिया जा रहा है:- TAO, Krishna Building, Laxmi Industrial Complex, Vartak Nagar, Pokhran Road, - I, THANE फोन सं0 25363118, 9892572804 भारती जी 9224127682 श्री प्रेम निर्मल जी इस वेबसाइट पर स्वर योग कार्यशाला के भाग हैं। भाग-1 में प्रारम्भिक प्रशिक्षण 6 सत्रों का है जिसमें निम्नलिखित विषय अभ्यास के लिए रखे गए हैं -
उक्त प्रशिक्षण के बाद सक्षम साधकों के लिए उच्च कार्यशाला में स्थान दिया जाता है। यह आठ सत्रों का होता है और इसमें निम्नलिखित विषयों और साधनाओं का अभ्यास कराया जाता है- (1) तत्वदर्शी से तत्वविद् (2) स्वर योग और शिशु का जन्म (3) स्वर योग और मन को पढ़ना (Mind reading) (4) स्वरयोग और छायोपासना, (5) स्वर योग और नाड़ियों और चक्रों से सम्बन्धित उच्च मानसिक (Super psychic) ज्योतिष विज्ञान तथा वास्तु (6) स्वर योग और आन्तरिक गुरु तत्व का जागरण (7) स्वर योग और जीवन, आयुष्य एवं मृत्यु और (8) स्वर योग, अभिज्ञा और ज्ञानोदय (enlightenment½ उक्त दोनों पाठयक्रमों का प्रशिक्षण 14 सत्रों में दिया जाता है। एक सत्र तीन घंटें का होता है। उक्त दूरभाषों पर आगामी कार्यशाला की जानकारी ली जा सकती है।
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गुरुवार, 23 सितंबर 2010
आभार! (आंच ३६)
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मेदक में इनके साथ एक के बाद ऐसी दुखद घटनाएँ हुई, जो अच्छे-अच्छे लोगों को विचलित कर दें। किन्तु श्री मनोज कुमार जी का धैर्य देखकर आश्चर्य हुआ और मन में महाकवि कालिदास की पंक्ति 'विकार हे तौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीरा:' बार-बार कौंध जाती थी। सन् 2001 में श्री मनोज कुमार जी का स्थानान्तरण चंडीगढ़ हो गया। फिर भी इनके साथ सम्पर्क बना रहा। पुन: ये स्थानान्तरित होकर कोलकाता स्थित मुख्यालय चले गए। विभिन्न अवसरों पर बातचीत हो जाया करती थी। अक्टूबर-2009 में इन्होंने बताया कि एक हिन्दी का साहित्यिक ब्लाग शुरू किया है और उसमें प्रकाशित करने के लिए हम लोग अपनी रचनाएँ भेजें। मुझे इसके विषय में अपनी कोई भी जानकारी नहीं थी। ब्लाग जगत से पूर्णतया अनभिज्ञ था। लेखनी भी रख दिया था। आवश्यकता पड़ने पर कभी कभार अपने विभाग की गृह पत्रिका के लिए वर्ष में एक आर्टिकल लिखना पहाड़ मालूम पड़ता था। लेकिन श्री मनोज कुमार जी की जिज्ञासा और अनुरोध को टालना मेरे लिए थोड़ा कठिन हो जाता है और इस प्रकार धीरे-धीरे मैं और मेरे परम आत्मीय श्री हरीश प्रकाश गुप्त अपनी-अपनी लेखनी लिए ब्लाग में प्रवेश किए। करण 'समस्ततीपुरी' पहले ही इससे जुड़ चुके थे। इस प्रकार 'मनोज' ब्लॉग का कारवाँ बनता गया। एक वर्ष में इस ब्लॉग पर 386 रचनाएँ विभिन्न स्तम्भों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। जो इस ब्लाग के लिए और प्रकारान्तर से हिन्दी ब्लॉग जगत के लिए गौरव की बात है।
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बुधवार, 22 सितंबर 2010
देसिल बयना - 48 : गयी बात बहू के हाथ
देसिल बयना-48गयी बात बहू के हाथ
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मार बढ़नी.... ई परव-तिहार के.... ! बाप रे बाप ! दम धरे का भी फुरसत नहीं मिल रहा है। हाह...चलिए कौनो तरह सब व्यवस्था-बात हो गया। अब निकले हैं न्योत-हकार देने। हौ मरदे... ! आप भी भकलोले हैं... ! इधर-उधर पतरा-कलंदर का देखे लगे, अरे कल हमरे ब्लॉग का हैप्पी बर्थ डे है ना.... ! उतरवारी टोला में हो गया। मझकोठी भी दे दिए। गाछी टोल में चौबनिया गया। पकौरी लाल दखिनवारी टोल गया है। कुटुमैती का जिम्मा जुगेसरे हजाम को दे दिए हैं। ओह... ! पुरबारी टोल बचले है। दहरू काका, बुधना, चासनी लाल, भाकोलिया माय, चिकनी देवी, छबीली मामी, नकछेदिया, बटेसर को हो गया। अब ई लाइन में चौक पर वाला कड़की सेठ, लहरू भाई और लुखिया ताई बची हैं। चलो जल्दी-जल्दी हकार दे के वर्ष-गाँठ के जोगार में लगेंगे। का बात है कड़की सेठ का फाटक खुला मगर कौनो आदमी का दरस नहीं है.... ? अरे उधर से किसान आवाज आ रही है ? ओह.... लहरू भाई का भी घर खाली.... ? ओह्हो.... ! लुखिया ताई के ड्योढ़ी से आवाज आ रही है। अच्छा तो अरोसी-परोसी उन्ही का रमैन सुन रहे हैं का... ? अरे हाँ.... हऊ.... देखो.... लहरनी भौजी कैसे अंचरा से आधा मुँह ढंके आनंद लूट रही हैं। सचे जब से बकरचन भाई की बिलैती लुगाई आयी थी लुखिया ताई कने रमैन तो रोजाना हो गया था। अब बस फ़ाइनल महाभारते बांकी था। वैसे था तो जबर्दस हरबरी मगर ऐसन परसंग छोड़ के आगे भी कैसे बढ़ जाएँ... ? ओह का रस बरस रहा था... भैय्या-खौकी.... मैय्या-खौकी.... रं..........ई.... हरजाई...... ! दुन्नु पाटी के मुँह से एकदम रसगुल्ले टपक रहा था। बकरचन भई दाव-दाव के मुँहदुस्सा बीच में मुखदर्शक बने हुए थे। अभी तो कीर्तन-भजन और चलता मगर ई लटकन ठाकुर बीचे में कड़क गए, "अई... ! चुप रहेगा तुम लोग कि बोलाएँ दफेदार को ?" सब सकदम। ठाकुर जी फिर कड़के, "ऐ लुखिया भौजी ! अरे का बात है ? जुआनी में तोहरे मुँह का सिसकारी सुने के लिए कान तरसता था और बुढ़ारी में ई कौन राग भीम-पलासी छेड़े रहती हो ?"
'माई-बाप सिखाये रहे, 'रहिमन वे नर मर चुके जे कहिं मांगन जाहिं... !' इहाँ ससुराल में ई कपूतनेरहा के दादा हमेशा यही जपते थे, 'साहिब इतना दीजिये जा में कुटुम समाई... !' बाढ़-सुखार सब में आज तक सब का मान रखा ई द्वार। मगर आज इत्ते बड़े राज-पाट में जलाली बाबा के दरगाह के फ़कीर को एक मुट्ठी दाना के बिना लौटना पड़ा। हाय हो राम !" काकी का कलेजा फटने लगा। छी-छी.... राम-राम.... ! और कोई कुछ बोले उ से पहिले ही बिलैती भौजी बीचे में बात लारने लगी, "एं... कौनो फ़कीर को भगाए का... ? बूढी का कौनो हिसाब किताब नहीं है.... उ कुछ जानती है... ? घर हम संभालते हैं तो भीख देने वाली उ कौन... ? उ फकीरचन को न देखिये, मांगता है भिच्छा और देने चला सिच्छा। महतारिये के हाथ से लेगा... ! हम कहते हैं, सब कुछ करेंगे हम और भीख देने का हक़ किसी और को ? हम कहे, 'धत तोरी के ! ई कौनो बात हुआ... !" "बात न हुआ तो का.... आप का बुझियेगा अभी ? बाबूजी के होटल चलता है, निट्ठल्ला ई टोला - उ टोला घूमते हैं तो का बुझाएगा..... लुगाई आएगी आके चानी तोड़ेगी और तब जाके सेर भर अनाज कमाइयेगा तब पता चलेगा... ! उ में भी हम कौनो मन किये थे देने से... खाली यही न कहे कि हम खुदे देंगे.... ! यही बूढी न सात गाँव परचार के बात का बतंगर कर रही है।" लटकन ठाकुर का मुँह भी बसिया जिलेबी जैसे लटक गया था। गला भरिय गया था। किसी तरह बोले, "भौजी अब का करोगी ? समझ लो कि 'गयी बात बहू के हाथ !' अब संन्यास लेलो ई दीन-दुनिया से। मिले तो दू दाना खाओ और राम-राम करो... !" लुखिया ताई खाली 'हूँ' बोल पायी थी। अंचरा से पूरा मुँह ढांप ली। एकाध बार हिचकी का आवाजो आया था। लटकन ठाकुर डपट के भीड़ को भगा चुके थे।
हमरा भी मोन भरिया गया। लेकिन फिर सोचे, धन ई परसंग। एगो नया कहावत तो सीखे। "गयी बात बहू के हाथ।" और ताई जब ई कहावत दोहरी थी तो उनके आवाज में अधिकारच्युत होने का जो दरद था उ से ई का मतलब भी समझ में आएगा आसानी से। "गयी बात बहुत के हाथ ! मतलब अधिकार का हस्तांतरण। बलात या असामयिक या अपारंपरिक।" आप लोग समझे कि नहीं... ? समझे तो ठीक है और नहीं समझे तो बहुत बढ़िया.... ! और जा.... हे भूलिए गए... ! अरे महराज ! अब आपलोग भी ई मत कहियेगा कि भीतरी जा के हकार दे दो। सब लोग को सप्रेम निमंत्रण है। कल 23 सितम्बर को हमरे प्यारे ब्लॉग के पहले वर्षगाँठ पर जरूर आइयेगा। "हैप्पी बर्थ डे टू माय डियर ब्लॉग। हैप्पी बर्थ डे टू यू।" |
जी हां मित्रों! आपके प्यार, स्नेह और प्रोत्साहन के बल पर हम आज एक साल पूरा कर रहे हैं। पिछले साल २३ सितंबर को हमारा यह ब्लॉग अस्तित्व में आया था। इन ३६५ दिनों में ३८६ पोस्ट के साथ हम कल से दूसरे साल में प्रवेश करेंगे। सदा की तरह आपके प्रोत्साहन, मार्ग दर्शन और हौसला आफ़ज़ाई का निवेदन रहेगा। इन ३६५ दिनों को |