शुक्रवार, 21 मई 2010

त्याग पत्र भाग ---30--- मनोज कुमार

त्याग पत्र भाग

---28---

--- बचन सिंह के

मित्र का प्रसंग ---

माधोपुर में दो-तीन सप्ताह बिताने के बाद ठाकुर बचन सिंह का पूरा परिवार पटना आ गया। अनीसाबाद में उनका फ्लैट था। रामदुलारी भी साथ में ही थी। यह शहर उसके लिए अब तक अपना शहर बन चुका था। इसके हर अच्छे-बुरे पक्ष उसको अपने लगते थे। और नव विवाहिता रामदुलारी को उन दिनों दुनियां इंद्रधनुष की तरह सात रंगों वाली लगती थी। कुछ अपने संकोच कुछ बांके की व्यस्तता के कारण बांके दम्पत्ति हनीमून के नाम पर बस राजगीर-नालंदा घूम आए। इच्छा तो थी कश्मीर या गोवा जाने की पर सब इच्छानुसार तो नहीं होता न!

उसकी ससुराल का घर काफी सलीके से बना हुआ था। ड्राइंग रूम, डायनिंग रूम, किचन और तीन बेड रूम नीचे वाले तल पर। ऊपर में भी दो बेड-रूम बने थे। ऊपर के दो बेड-रूम में एक छोटा था, एक बड़ा। बड़ा वाला बेड रूम बांके और रामदुलारी को दे दिया गया था। उसका एक दरवाजा बाहर के बरामदे में खुलता था, एक बगल के गलियारे में। एक छोटे बेड रूम से जोड़ता था। बाथ रूम साथ लगा था। नीचे के एक कमरे में बचन सिंह और उनकी श्रीमती सुनीता देवी रहते थे। एक में बांके का छोटा भाई कृष्ण बिहारी। एक गेस्ट रूम के रूप में व्यवहृत होता था। हां जब कभी बांकी की व्याहता बहन सुजाता अपने परिवार के साथ बरौनी से आती तो उसी निचले तले वाले रूम में रहती। उसके पति राकेश बरौनी रिफायनरी में अभियंता थे।

रामदुलारी का दैनिक जीवन चलता रहा। सुबह उठने की उसकी पुरानी आदत थी। बाबा के साथ उसे पराती गाने का नियम जो था। चार बजे उठ कर साढ़े जार तक तैयार हो जाती थी। बाबा के साथ गंडक नदी के तट तक टहलने चल देती थी। रास्ता प्रायः सुनसान होता। पर बाबा के साथ डर कैसा ? दो-ढ़ाई मील की दूरी तय कर जब वे नदी तट पर पहुँचते तो कुछ-कुछ उजाला हो जाता। बचपन के दिनों से ही नदियां उसे लुभाती, आमंत्रित करती। प्रातः काल नदी में स्नान करना उसे अच्छा लगता। बाबा पता नहीं क्या-क्या मंत्रोच्चारण करते रहते? स्नान भी करते रहते। भजन भी गाते रहते। बाबा को देखते रहने में ही उसे परम सुख की अनुभूति होती। मानों उसकी पूजा पूरी हो रही हो और उचित फल भी उसे मिल ही जाएगा। ऐसा उसका विश्वास था। एक बार तो बाबा उसे प्रयाग ले जाकर संगम स्नान भी करा आए थे। गंडक से स्नानादि कर घर लौटते-लौटते सूर्योदय हो जाता था।

... यहां ससुराल में तो वह उठ चार बजे ही जाती और नित्कर्मों से निवृत हो साढ़े चार तक तैयार भी हो जाती। पर उसके बाद उसका समय काटे नहीं कटता। क्या करे ? स्नानादि से निवृत्त हो दैनिक कामों में लग जाती। घर के अन्य सदस्य अलसाते हुए छह बजे तक उठते। अख़बार आ जाता तो सब अख़बार पढ़ने में लग जाते। रामदुलारी सबके लिए चाय बनाती। चाय के साथ कुछ गप-शप हो जाता। आठृ साढ़े-आठ तक नाश्ते से सब निवृत्त हो जाते। फिर अकेले में बैठी रामदुलारी सोचती कोई सार्थक काम तो किया नहीं --- लिखने पढ़ने का। कभी सोचती घर के काम भी तो सार्थक ही हैं। अब शादी के बाद सास-ससुर की देख-भाल, पति-देवर की सेवा भी तो मेरा ही काम है। मन में भी तो चिंतन मनन चलता ही रहता है।

कुछ महीने यूं ही बीत गए। एक दिन ठाकुर बचन सिंह के एक अंतरंग मित्र राधेश्याम पोद्दार पधारे। दोनों की मैत्री वर्षों पुरानी थी। सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए पांच वर्ष बीत चुका था।

शरीर से दुबले-पतले, कद में नाटे, रंग में सांवले, बड़ी-बड़ी आँखें, चौड़ा ललाट, चौड़ी नाक, फैला मुँह, छोटी सी ठोढ़ी। ओठ के किनार से मुंह के पान के पीक की निशानी के रूप में लाल दाग लिए राधेश्याम पोद्दार जी का स्वागत ठाकुर बचन सिंह ने बड़े ही गर्मजोशी के साथ किया।

“अरे! पोद्दार बाबू! आप? वाह मज़ा आ गया, आप आ ही गए!”

पोद्दार बाबू बचन सिंह के गले मिलते हुए बोले,

“आप बोलाइएगा, तो आएंगे नहीं!”

“हां, लेकिन बांके की शादी में तो नहीं आए थे न।”

“हां सिंघ जी ! आपकी शिकायत वाजिब है। का करें... घरेलू समस्या आज तक पीछा नहीं छोडी है। बाराती बन कर बांके के विवाह में तो नाहीये गए... लेकिन वह कमी आज पूरा कर लूंगा।”

उनको बिठाते हुए बचन सिंह बोले,

“आइए-आइए। बैठिए। रास्ते में कोनो तकलीफ़ तो नहीं हुआ?”

“नहीं-नहीं । एकदम मज़ा से पहुंचे। दुल्हिन कहां है? बुलाइए उसे।”

राधेश्याम जी के स्वर में गम्भीरता, संतुलन, निश्चितता एवं ठोसपन था। पर कहीं न कहीं एक रिक्तता का अनुभव कर रहे थे। बचन सिंह की पुत्रवधू को देख कर उसे आशीष देते हुए कहा,

“जुग जुग जिए। दूधो नहाओ पूतो फलो।”

राधेश्याम जी को रामदुलारी काफ़ी पसंद आई! वो कई क्षण मुंह बाये उसे ताक रहे थे फिर बचन सिंह से बोले,

“आप का किस्मत तो लहलहा रहा है सिंघ जी! इतना कद्दावर, सुंदर, सुशील बेटा और उस से भी बढ़ कर बहुत... ! और बाल बच्चा सहित भरा पूरा परिवार साथ में रहते हैं ! तकदीर तो इसको कहते हैं.... है कि नहीं..!”

अपनी प्रशंसा सुन रामदुलारी भी भीतर से खुश हुई। उसके चेहरे पर सलज्ज मुस्कान खेल गई। उसकी व्यावहारिक बुद्धि ने उसे वहां से चले जाने को प्रेरित किया।

रामदुलारी के चले जाने के बाद राधेश्याम बोले,

“चाह पिलवाइए।”

अभी उनके मुंह से बात खत्म भी नहीं हुई थी कि रामदुलारी चाय के साथ हाज़िर थी।

“वाह! दुल्हिन हो तो ऐसन।”

पोद्दार बाबू चाय का प्याला मुंह से लगाकर चाय सुरके। फिर बोले,

“चाह तो बहुत बढिया है, लेकिन कनिक चिन्नी कम है।”

रामदुलारी ने चिनी लाकर दिया।

सुरुक-सुरुक कर चाय पीते समय पोद्दार बाबू के गोले से मुंह पर परम तृप्ति के भाव थे। चाय खत्म कर बोले,

“पनबट्टा निकालिए। तनी पान खाया जाए।”

बचन सिंह द्वारा दिए गए पान को बांया कल्ला में दबा कर बोले,

“बेटा बुलाया था। उसी से मिलने शहर गए थे। इसीलिए नहीं आ सके बांके के बियाह में।”

“अच्छा। तभी तो, हम सोचे कि पोद्दार क्यों नहीं आया? कैसा रहा आपका वहां का प्रवास?।”

“कैसा रहेगा, खाक! अपना डेरा-डंडा ही बढिया है। बड़ा विषाक्त लगा वहां का वातावरण। लोगों का आपस में मिलना-जुलना नहीं। भरदिन फ़्लैट में काटना बड़ा ही मुश्किल था।”

बचन सिंह के कुछ बोलने के पहले ही पोद्दार बाबू बोले,

“कुच्छो हो सिंघ जी, मानिए चाहे नहीं मानिए , लेकिन यह सच है कि हम बिहारी जब किसी अनजान से भी पहली बार मिलते हैं तो हमारे चेहरे पर जिज्ञासा का नहीं स्वागत का भाव होता है, पर उस शहर में तो वर्षों से दोनों अगल-बगल में रहते हैं पर कोई जान-पहचान, आगत-स्वागत नहीं। आपसे मिलकर खुशी हुई वाली औपचारिकता से दुखी होकर हम त भाग आए। अरे! हम बिहारी तो गलबहिया डालकर बातें करते हैं।”

बचन सिंह बोले,

“हां पोद्दारजी, लोगों में परस्पर प्रेम तो होना ही चाहिए।”

ऐसे ही दोनों दोस्तों में बात-चीत होती रही, फिर यकायक पोद्दार बाबू बोले,

“सच्चा सुख तो आप ही को मिला है सिंघ जी !”

बचन सिंह यह सुन थोड़ा असहज हुए और उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि राधेश्याम जी के चेहरे पर जा लगी।

बचन के प्रश्‍न को भांपते वो बोले,

अपने पुत्र-पुत्रवधु को अपनी वृद्धावस्था में अपने समीप देखने का सुख! … … आजकल तो विवाह के बाद पुत्र अपनी पत्नी को लेकर अलग घर बसाता है। … … फिर यदा-कदा ही अपने माता-पिता को देखने, हाल-चाल जानने आता है..। … … या फिर लिख भेजेगा … समय हो तो यहीं आ जाइए।”

उनके स्वर में शायद उनका दर्द छुपा हुआ था। स्वर ही नहीं आंख भी भींग रहे थे। नमी को रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थीं।

थोड़ी देर के लिए कमरे का वातावरण शांत हो गया और उनकी कही बातें सब पर असर करने लगी।

उस नीरवता को बचन सिंह ने भंग किया,

“सब बिध-बिधाता के खेल है पोद्दार बाबू !

कहानी अभी बांकी है मेरे दोस्त ! त्याग पत्र की अगली कड़ी पढ़िए अगले हफ्ते !! इसी ब्लॉग पर !!!

त्याग पत्र के पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥

8 टिप्‍पणियां:

  1. अगली कड़ी का इन्तजार, या यूँ कहूँ कि कहानी में त्यागपत्र का इन्तजार रहेगा , मनोज जी

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  2. बहुत अच्छा जी आगे का इंतजार रहेगा

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  3. वाह बहुत बढ़िया लगा और अब अगली कड़ी का इंतज़ार है!

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  4. अगली कड़ी का इन्तजार के साथ इसका चरमोत्कर्ष
    भी शीघ्र दिखाए।

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  5. अच्छा लगा. अगली कडी जरुर पढूंगा.

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  6. एक सुन्दर अन्क . आगे देखना है क्या होगा.

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