गुरुवार, 4 जुलाई 2024

5. मांस खाने की आदत

 

गांधी और गांधीवाद



अपनी गलती स्वीकार करना बहुत कठिन है; लेकिन फिर स्वयं को शुद्ध करने का कोई और उपाय नहीं है। - महात्मा गांधी

5. मांस खाने की आदत

 गांधी जी मांस खाने की आदत को अपने जीवन की एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना मानते हैं। कुसंगति में पड़कर गांधीजी चोरी-छिपे मांस खाने लगे थे। इसके लिए उन्हें काफ़ी पश्चाताप होता रहा। उनके भाई का एक दोस्त था। उसका नाम शेख महताब था। वह गांधीजी से काफ़ी बड़ा था किन्तु उनका सहपाठी था। उसी ने उन्हें इस जाल में फंसाया था। वह लड़का कहता था कि यदि हिन्दू मांस खाना शुरु कर दे, तो भारत की सारी कठिनाइयां दूर हो जाएगी। अपनी बात सिद्ध करने के लिए वह एक कविता सुनाया करता था--

देखो बलशाली अंग्रेज

करें लघु हिंदुस्तानी पर राज
खाता मांस, तभी तो है
वह लम्बा पांच हाथ।

वह गांधी जी से बलशाली था। खेल-कूद में भी उनसे काफ़ी आगे था। उसे किसी चीज़ से डर नहीं लगता था। बात-बात में वह उन्हें अपनी मांसपेशियां दिखाता रहता था। उसके कसरती बदन और साहसी प्रकृति ने मोहन पर सम्मोहन कर रखा था। उसने गांधीजी को बताया कि कई हिन्दू शिक्षक छुप-छुपाकर मांसाहार और मद्यपान करते हैं। गांधीजी को लगा कि उस मित्र की तरह वह भी बलवान हो जाएं तो कितना अच्छा हो! उससे प्रभावित हो बालक गांधी ने मांस खाने की ठान ली। उसने मोहन को मांस खाने के तरह-तरह के फायदे गिनाते हुए कहा, शक्तिशाली अंग्रेज़ इसलिए ठिगने हिन्दुस्तानी पर राज कर रहा है, क्योंकि अंग्रेज़ अपनी भीम जैसी क्ति पशुओं के मांस से प्राप्त करते हैं। इन बातों के असर में गांधीजी यह मानने लगे कि मांसाहार अच्छी चीज़ है। उन्हें लगा कि इससे वे ताकतवर हो जाएंगे, और भारतीय भी शक्तिशाली हो जाएंगे। मांस-भक्षण एक सुधार कार्यक्रम होगा और अगर सारा देश मांसाहार करे तो अंग्रेजों को हराया जा सकता है। गांधीजी को बलवान और साहसी बनना था और अंग्रेजों को हराकर भारत को आज़ाद कराना था। उस समय गांधीजी को यह भान नहीं हुआ कि मांसाहार करने में माता-पिता को धोखा देना होगा। मांस-भक्षण का दिन तय हुआ। दोनों नदी किनारे पहुंचे। गांधी जी ने बकरे के मांस का एक टुकड़ा खाया। उन्हें उबकाई आने लगी। वे वहां से चले आए। उस रात गांधी जी को सपने आते रहे कि बकरा उनके पेट में लातें मार रहा है।

बाद में वह लड़का जब-तब मांस लाता और गांधीजी उसे खाते। उन्हें अब स्वाद आने लगा था।  पर बाद में उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया। इसलिए नहीं कि वे इसे खराब मानते थे, बल्कि इसलिए कि इसके लिए उन्हें अपने धर्मपरायण  मां-बाप से झूठ बोलना पड़ता था। एक तो उनका वैष्णव परिवार था उसपर से गांधी जी पर जैन प्रभाव था। मांस खाना तो उनके लिए अत्यंत ही घृणित काम था। उन्हें यह महसूस हुआ कि मांस खाने से भी ज़्यादा बुरा वे माता-पिता से चुरा कर खाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया। उनका मांसाहार हमेशा के लिए छूट गया। माता-पिता यह कभी नहीं जान पाए कि उनका बेटा मांसाहार कर चुका है।

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मनोज कुमार

पुरानी कड़ियां

बुधवार, 3 जुलाई 2024

4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती

 

गांधी और गांधीवाद

                                   महात्मा गांधी

 

 

 

 




4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती


गांधीवाद क्या है?

गांधीवाद क्या है? गांधीवाद एक दर्शन समझा जाता है। पर गांधीजी ने किसी वाद को जन्म नहीं दिया। बल्कि वे किसी वाद या सम्प्रदाय में विश्वास नहीं रखते थे। वे तो सभी वादों में से उसके सार तत्व को निकाल कर मानवता के कल्याण के लिए उपयोग करते थे। वे जीवन भर सत्य का प्रयोग करते रहे। उनका सत्य किसी एक सम्प्रदाय का सत्य नहीं था। सत्य के प्रति उनका दृष्टिकोण ज़रूर नया था। 1936 में गांधी सेवा संघ के सदस्यों को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने स्वयं कहा था, गांधीवाद नाम की कोई वस्तु नहीं है। मैं अपने बाद कोई सम्प्रदाय नहीं छोड़ना चाहता। मैंने कोई नया सिद्धांत नहीं चलाया है। केवल मैंने सच्चाई को अपने दैनिक जीवन और समस्याओं पर प्रयोग करने का प्रयास किया है। आप इसे गांधीवाद नहीं कहेंगे, क्योंकि इसमें कोई वाद नहीं है।केवल एक अवसर पर, कराची अधिवेशन में 25 मार्च 1931 को गांधीजी ने कहा था, गांधी मर सकता है परन्तु गांधीवाद सदा जीवित रहेगा।परन्तु इस कथन से गांधीजी का मतलब कोई वाद (ism) नहीं बल्कि सत्य और अहिंसा था। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था, गांधीवाद सिद्धांतों, वादों, नियमों और आदर्शों का संग्रह नहीं वरन्‌ जीवनयापन की एक शैली या जीवन दर्शन है। गांधीजी ने सिद्धांत रूप में जिन विचारों को अभिव्यक्ति दी है, उन्हीं को ‘गांधीवाद कहा जाता है गांधी-विचारधारा का नाम ही गांधीवाद है गांधीजी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत पर चलकर आज अनेकों  बेमिसाल संघर्ष के उदाहरण हमारे सामने हैं। लोग कहते हैं आज गांधीजी भुला दिए गए हैं। जब हम इरोम शर्मिला, अन्ना हजारे और सुंदरलाल बहुगुणा जैसे लोग और उनका सत्याग्रह देखते हैं तो हमें हैली सेलेसी का कथन याद आता है, जब तक स्वतंत्रता और न्याय के चाहने वाले लोग रहेंगे, तब तक महात्मा गाँधी को सदा याद किया जायेगा।

नकल करने की ठानी

गांधीजी के दर्शन उनके जीवन को कई छोटी-बड़ी घटनाओं में देखने को मिलता है ऐसी ही एक घटना उनके स्कूल जीवन की है राजकोट में स्कूल का निरीक्षण करने इंस्पेक्टर जाइल्स  का अगमन हुआ। बड़ी ज़ोर-शोर से तैयारी की गई। तेज़ छात्रों को आगे की बेंच पर बिठाया गया था। इंस्पेक्टर को प्रिंसिपल बारी-बारे से हर कक्षा में ले जा रहे थे। जब वे गांधीजी की कक्षा में पहुंचे तो वर्तनी की जांच के लिए जाइल्स ने छात्रों को पांच शब्द लिखने को कहा। उनमें से एक शब्द था ‘केटल’ (Kettle)। गांधीजी को इस शब्द की स्पेलिंग ठीक से मालूम नहीं थी। गांधीजी ने उसका हिज्जे ग़लत लिखा था शिक्षक ने बूट की ठोकर मार कर इशारा करके उन्हें बगल के छात्र की स्लेट से नकल करने को कहा। गांधीजी ने ऐसा नहीं किया। दूसरे सभी लड़कों की स्पेलिंग सही थी। केवल गांधीजी की ही ग़लत थी। जब इंस्पेक्टर चले गए तो अध्यापक ने गांधीजी को डांट लगाई। लेकिन बेईमानी गांधीजी के स्वभाव के ख़िलाफ़ थी। उनका मानना था कि बेईमानी और धोखेबाज़ी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती। उनका कहना था कि सबसे सीधा रास्ता ही सबसे छोटा होता है।

अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति

1878 के बाद भारत सरकार ने भारत की सीमाओं के बाहर कई बड़े सैनिक अभियान किए। अनेक लड़ाइयों में भारत की सेनाओं का इस्तेमाल किया गया। इन सैनिक अभियानों के कारण भारत का सैनिक ख़र्च तेज़ी से बढ़ा। इससे ने केवल भारतीय जनता पर अतिरिक्त आर्थिक दबाव पड़ा, बल्कि यह राजनीतिक नैतिकता की दृष्टि से भी ग़लत था। आख़िर जो लड़ाइयां ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार और उसके आर्थिक हितों की वृद्धि के लिए लड़ी जा रही थीं, उनसे भारत की जनता को क्या मतलब हो सकता था? 1878-80 के दौरान द्वितीय अफ़ग़ान युद्ध लड़ा गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था, यह विशुद्ध आक्रमण है। यह उन सर्वाधिक अन्यायपूर्ण युद्धों में से एक है, जिन्होंने इतिहास को गंदला किया है। चूंकि यह अन्यायपूर्ण युद्ध ब्रिटेन के साम्राज्यवादी लक्ष्यों और नीतियों के तहत छेड़ा गया है, अतः उसे ही इसका ख़र्च उठाना चाहिए

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मनोज कुमार

 पुरानी कड़ियां

 


मंगलवार, 2 जुलाई 2024

गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन

 

गांधी और गांधीवाद

                          महात्मा गांधी

 

 

 











3. गांधीजी का बचपन (1870-81)

 मनोज कुमार

प्रारंभिक शिक्षा

बाल्यकाल में मोहनदास एक जगह स्थिर हो कर नहीं बैठ पाते थे या तो वे खेलने में व्यस्त रहा करते थे या फिर घूमने फिरने में मोहन को पोरबंदर के एक प्रारंभिक विद्यालय में दाखिल किया गया। वहां उन्हें पहाड़े याद रखना बड़ा कठिन लगता था। वह एक औसत दर्ज़े के छात्र थे। स्वभाव से शर्मीले और दब्बू थे। बात करने से घबराते थे और खेलकूद से दूर रहते थे। सात साल की उम्र में गांधी जी को पोरबंदर छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके पिताजी राजकोट के दीवान बना दिये गए। पोरबंदर से उनके पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट आए। बालक मोहन को पोरबंदर की याद आती थी, उसे नीला समुद्र और बंदरगाह में जहाज़ों की याद आती थी। राजकोट में गांधीजी ने प्रारंभिक शिक्षा पूरी की और आगे की शिक्षा अल्फ्रेड स्कूल में प्राप्त की। हर सुबह वह समय पर स्कूल जाते थे और स्कूल खत्म होते ही वापस घर भाग जाते थे। किताबें ही उनकी एकमात्र साथी थीं और वह अपना सारा खाली समय अकेले ही पढ़ने में बिताते थे। गांधीजी मेहनत और लगन से अपने पाठों को पढ़ा करते थे। लेकिन वह रटकर नहीं सीखते थे। संस्कृत में कमजोर थे। ज्यामिति उन्हें सबसे अच्छी लगती थी क्योंकि इसमें तर्क करना पड़ता था।

पिता का प्रभाव

गांधीजी के पिता करमचंद गांधी स्कूली शिक्षा ज़रा भी नहीं पाई थी। लेकिन उन्हें दुनियादारी का बहुत ज्ञान था। वह एक सांसारिक आदमी थे। धर्म और आध्यात्म में उन्हें कोई खास रुचि नहीं थी। हां उनके घर पर जैन मुनियों, पारसी दरवेशों और मुस्लिम औलियों का आना जान लगा रहता था। यदा-कदा उनकी चर्चाओं को सुनने का अवसर गांधीजी को मिल जाया करता था। इस तरह कई धर्मों के विद्वानों को साथ बैठकर मैत्रीपूर्ण ढंग से चर्चा करते देख धार्मिक सहिष्णुता की छाप बालक गांधी के मन पर अंकित हो गई।

माता का प्रभाव

माता पुतली बाई एक योग्य महिला थीं। रनिवास में उनकी इज़्ज़त थी। राजपरिवार की महिलाओं से उनकी मैत्री थी। घर-परिवार के कामों में रमे रहना उन्हें काफी सुहाता था। कपड़ों और गहनों का शौक उन्हें ज़रा भी नहीं था। पढी-लिखी वो खास नहीं थीं। धर्मग्रंथों में भी पारंगत नहीं थीं, लेकिन वह एक धार्मिक महिला थीं। प्रार्थना करना, मंदिर जाना, व्रत-उपवास करना उनके रोज़ाना के कार्यक्रम थे। उनका गांधीजी के व्यक्तित्व पर काफ़ी प्रभाव था। गांधीजी ने भी नियम-संयम, व्रत-उपवास और प्रार्थना उनसे ही सीखी थी। इसके अलावा जो बात उन्होंने अपनी माता से सीखी वह थी अपने और दूसरों के बच्चे में अंतर नहीं करना। बाद में सबको एक नज़र से देखना बापू के आश्रम जीवन का अंग बन गया। उन्होंने कहा भी है, मैंने सदाचार और पवित्र जीवन का पाठ अपने माता-पिता से सीखा।

सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना

बचपन में माता पुतलीबाई उन्हें भगवान शिव, विष्णु और जैन मंदिरों के साथ-साथ पीर-पैगम्बरों की समाधियों पर ले जाया करती थीं। काबा गांधी के मकान में सभी धर्मों के अनुयायी आते-जाते रहते थे। हिन्दू पंडितों, जैन साधुओं, मुसलमान मुल्लाओं और पारसी सन्तों का घर में आना-जना लगा रहता था। उनकी बातें बालक मोहन बड़े ध्यान से सुनते। इसका उन पर यह असर पड़ा कि वे सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने लगे। वे यह समझ चुके थे कि सभी धर्म ईश्वर की ओर जाने के रास्ते हैं।

श्रवण पितृ-भक्तिनाटक का प्रभाव

एक बार उनके मन में कोई बात बैठ जाती तो उसको निकाला नहीं जा सकता था। बचपन में गांधीजी नेश्रवण पितृ-भक्तिनामक नाटक पढ़ा था। इससे वे बहुत प्रभावित हुए। श्रवण कुमार का अपने माता-पिता को कंधे पर बहंगी में बिठाकर तीर्थ कराने ले जाने वाले दृश्य ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला। उनहोंने निश्चय किया, 'मुझे भी श्रवण जैसा बनना है।' माता-पिता की सेवा को उन्होंने अपना आदर्श बना डाला। माता-पिता की आज्ञा का पालन उनका मूल-मंत्र हो गया।

"सत्यवादी हरिश्चन्द्र नाटक का प्रभाव

एक नाटक मंडली गांधीजी के शहर में आई थी। इस मंडली ने ‘सत्यवादी हरिश्चन्द्र’ नाटक दिखलाया था। हरिश्चन्द्र” ने सत्य के लिए हर चीज़ का बलिदान कर दिया तथा प्राण त्यागने के पूर्व उन्हें दारुण दुखों का निरंतर सामना करना पड़ा था।  नाटक सत्य हरिश्‍चंद्र का गांधीजी के व्यक्तित्व पर काफी प्रभाव पड़ा। गांधीजी के मन में हमेशा चलता रहता की हरिश्चंद्र की तरह सब सत्यवादी क्यों नहीं होते? उन्होंने यह मान लिया कि हरिश्चंद्र पर जैसी विपत्तियाँ पडीं वैसी विपत्तियों ओ भोगना और सत्य का पालन करना ही जीवन का वास्तविक सत्य है हरिश्चंद्र की सत्यवादिता और वचन-पालन ने बालक मोहनदास को सत्य का पुजारी बना दिया।

भविष्य का गांधी

हालाकि गांधीजी अपने बचपन में भारत में पैदा हुए लाखों अन्य बच्चों से अलग नहीं दिखते थे, फिर भी वह कोई साधारण बच्चा नहीं थे। धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा था। उन्हें एक महान साम्राज्य से लड़ना था। और उनकी लड़ाई अहिंसक होने वाली थी। उन्हें बिना हथियार उठाए अपने देश को आज़ाद कराना था। लोग उन्हें महात्मा कहने वाले थे। उस महात्मा को देश के लिए अपना जीवन बलिदान करना था।

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