'स्वान्तः सुखाय' की अवधारणा से तुलसी ने 'निगमागम सम्मत' श्री रामचरित मानस की रचना की। शीघ्र ही यह 'कीरति भनित भूति भल सोई, सुरसरी सम सबकर हित' करने वाला लोक ग्रन्थ बन गया। इतिहास के पन्ने बदले, पीढियां बदली, परम्पराएं बदली, युग बदला किन्तु तुलसी की 'रामचरित मानस' आज भी जन-मन का कंठाहार है। भक्ति की वल्कल धारा से लेकर निति की सम्यक मीमांशा.... अध्यात्म के अमृत से लेकर विज्ञान के अस्त्र तक..... राजनीति से रणनीति तक......... इतिहास हो या साहित्य.......... प्रमाण तो बस श्री रामचरित मानस की महज एक चौपाई है। निर्माण-भूमि की धार्मिक संवेदना ने विश्व के सबसे लोकप्रिय साहित्य को 'अध्यात्म' की चादर भले ओढ़ा दिया किन्तु समय-समय पर इसकी उपयोगिता ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में सिद्ध होती रही। समर्थ साहित्य के मौलिक गुण 'देश और काल से निर्बन्धता' को तो इस ग्रन्थ ने ऐसा जिया कि अब एक नयी परिभाषा गढ़नी पड़ेगी। पांच सौ वर्षो से यह विश्व के कोने-कोने में अविरल फ़ैल 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को व्यवहारिकता प्रदान कर रहा है। भारत की विविधवर्णा संस्कृति के अमर गायक तुलसी की अमर कृति 'श्री रामचरित मानस' को लोक ग्रन्थ की संज्ञा अनायास मिल गयी। तुलसी के राम लोक-नायक हैं। तभी तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लेकिन विष्णु के वर्णित अवतार 'राम' के प्रति श्रद्धा ने रामचरित मानस को लोगों के सम्मान का पात्र बनाया। यह एक धर्म ग्रन्थ हो गया। तुलसी के जीवन के करील अनुभव ने नीति के तत्व से इसे विभूषित किया। विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर नीतिगत दोहे और चौपाइयां प्रमाण में प्रस्तुत होने लगीं। काव्य-शास्त्रियों ने 'यमक-श्लेष-अनुप्रास-उपमा-उपमेय' पर विचार किया। कुछेक साहित्यालोचकों की दृष्टि 'सुघर प्रकृति चित्रण' पर भी गयी। किन्तु जिस संस्कार में इस ग्रन्थ का सृजन हुआ वह 'लोक संस्कृति' वांछित विवेचना न पा सकी। तुलसी की 'रामचरित मानस' का एक-एक शब्द संस्कृति का एक-एक अध्याय है। 'धरती सौं कागद और लेखनी सौं वनराई' करके भी भी इसकी पर्याप्त विवेचना नहीं की जा सकती। फिर भी आईये देखते हैं, "रामचरित मानस में लोक-संस्कृति की झलक।" गोस्वामीजी रामचरित मानस का श्रीगणेश ही करते हैं आंचलिक कहावत 'अपने दही को खट्टा कौन कहता है' से। 'निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होऊ अथवा अति फीका॥' -- बालकाण्ड | दोहा-7| चौपाई-6 रामचरित मानस में लोक-संस्कृति की 'जंह-तंह छवि' सुवर्णित है। प्रश्न यह है कि शुरू कहाँ से करें ? मेरी क्षुद्र-मति आकर ठहरती है, 'शिव-सती संवाद' पर। सती के पिता दक्ष प्रजापति महायज्ञ कर रहे हैं। सभी देव, नर, नाग, किन्नर आमंत्रित हैं, सिवाए महादेव के। सती अपने पति से पिता-गृह जाने की दिक् करती है। महादेव सती से कहते हैं, "तुम्हारा प्रस्ताव कोई बुरा नहीं है। मुझे पसंद भी है। लेकिन ससुराल से निमंत्रण नहीं आना तो अनुचित है। तुम्हारे पिता ने अपनी सभी बेटियों को बुलाया और मुझ से बैरवश तुम्हे भी बिसरा दिया। अनामंत्रित हम वहाँ कैसे जाएँ ? 'कहेहुँ नीक मोरे मन भावा। यह अनुचित नहि नेवत पठावा॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरे बैर तुम्हाउन बिसराईं॥' बालकाण्ड | दोहा-61| चौपाई - 1 हमरे मिथिलांचल में एक कहावत प्रचलित है, "बिना बुलाये कोहबर धाये ! दुल्हन की माँ पूछी, पाहून, कहाँ आये?" व्याह के रात दुल्हे का ऐसा अनादर... सिर्फ इसलिए कि बिना बुलाये सुहाग कक्ष चले गए ? सही है भी। बिना बुलाये कहीं नहीं जाना चाहिए। और सती पति की अवज्ञा कर अनामंत्रित गयीं तो परिणाम सामने है। वापस नहीं आयी। अस्तु॥ सती के देह त्यागोपरांत पर्वतराज के घर गौरी अवतरित हुई। त्रिलोक विचरनकर्ता देवर्षि नारद आये। संतान के भविष्य के जिज्ञासु पिता ने कन्या की हस्तरेखा देवर्षि को दिखवाई। जोगी, जटिल, अकाम, नग्न और अमंगल वेश वाला -- इस कन्या का पति होगा। नारद ने बता दिया, वर के सभी गुण 'शिव' में हैं। 'मृषा न होहि देव-ऋषि वाणी।' पार्वती चल पड़ीं शिव को वरने हेतु घोर तपस्या करने। सप्त ऋषि आये परीक्षा को। क्या कहते हैं, 'नारद अर्थात सन्यासी, योगी। उनकी सीख जो मानेगा वो भी सन्यासी ही होगा।' जैसा गुरु वैसा शिष्य' की कैसी अद्भुत व्यंजन है, 'नारद सिख जे सुनहि नर-नारी। अवसि होहि तजि भवन भिखारी॥' बालकाण्ड | दोहा-78| चौपाई - 2 बात यहीं नहीं रुकी। माता-पिता शुभ चिन्तक कन्यादान से पहले वर के औकात की पूर्ण तौल-परख करते हैं। तब भी करते थे। घर न द्वार। वर भीख मांग कर खता है। उसके घर स्त्री क्या बसेगी ? 'सहज एकाकिंह के भवन, कबहुँ कि नारी खटाहिं !! बालकाण्ड | दोहा-79 किन्तु पार्वती का सफल हठयोग, 'वारौं शम्भू न त रहौं कुमारी'। शिव मान गए। विवाह की तैयारी। बारात सज रही है। शिवगण वर महादेव का श्रृंगार कर रहे हैं। निज-निज वाहन सजे देवगण बाराती बने हैं। यद्यपि शिव वर और देव बाराती हैं। फिर भी सम्मान की चिंता नहीं जाती। 'वर अनुहारी बारात न भाई। हंसी करैहौंह पर-पुर जाई॥' बालकाण्ड | दोहा-92| चौपाई 1 यहाँ एक और देसी कहावत है, 'जैसा वर वैसी बारात।' 'जस दूलहु तस बनी बराता। कौतुक विविध होहिं मग जाता॥' बालकाण्ड | दोहा-93| चौपाई - 1 बारात तो चल पड़ीं। कन्यागत की भी तैयारी कम नहीं है। हिमगिरी ने सब को निमंत्रित किया है। सिर्फ मनुष्य ही नहीं, वन, सागर, नदी और तालाब भी आमंत्रित हैं। आज भी अवध और मिथिलांचल में किसी भी शुभ कार्य में इन प्राकृतिक शक्तियों को निमंत्रित करने की प्रथा है। 'बन सागर सब नदी तलबा। हिमगिरी सब कहूँ नेवत पठावा॥' बालकाण्ड | दोहा-93| चौपाई - 2 बारात को जनवासे पर यथोचित सम्मान दिया जाता है। लेकिन द्वार-लगाई की रस्म पर ये क्या हो गया ? कौन सी माता अपनी मयंकमुखी सुकुमारी का हाथ बूढ़े-बौराहे बार के हाथों मे देगी। मैना माई ने भी घोषणा कर दिया। उन्हें अपयश का भय नहीं। पुत्री समेत प्राण त्याग देगी परन्तु ऐसे 'अयोग्य' वर से गौरी का व्याह नहीं करेगी। 'तुम्ह सहित गिरी तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि मंह परौं। वरु जाऊ अपजस होऊ जग, जीवत बिबाहू ना करौं ॥' बालकाण्ड | दोहा-95| छंद- 1 विवाह में कन्यागत का सारा कोप मध्यस्थ पर ही फूटता है। नारद तो ठग मध्यस्थ के रूप में रूढ़ ही हो गए हैं। अगुआ ही सबसे बड़ा दुश्मन बनता है, 'गौरी दाई के अगुआ भेल मुदैय्या ! ठग लिहले रुपैय्या... !! हमारे मिथिलांचल में तो नारद अभी तक हर व्याह में गाली सुनते हैं। ये परम्परा पार्वती-मंगल से ही शुरू हुई। 'नारद का मैं काह बिगारा। भवन मोर जिन्ह बसत उजारा॥' पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कर पीरा॥' बालकाण्ड | दोहा-96| चौपाई-1-2 शिव-पार्वती का आचारपूर्वक व्याह हुआ। उत्तर भारत में विवाह के एक रस्म में 'ज्योनार' भी होता है। बाराती भोजन करते हैं और सराती महिलायें रसीली गालियाँ बरसाती हैं। तुलसी ने यह सरस दृश्य कितनी सहजता से खींचा है, 'नारिवृन्द सुर जेवँत जानी। लागी दें गारीं मृदु वाणी॥' बालकाण्ड | दोहा-98| चौपाई-4 देवता गण गलियों के मधुर रस के साथ षडरस का आनंद ले रहे हैं। बिलकुल हमारे गाँव की बारात की तरह। भोजन के बाद पान 'अवधि-मैथिल' संस्कृति का अभिन्न अंग। देव-पितर की पूजा पान के बीना नहीं होती। 'अन्चावाई दीन्हे पान गवाने बास जंह जाको रह्यो॥' बालकाण्ड | दोहा-98| छंद-1 वर बौरह है, बारात देवताओं की है, लेकिन लोक-विधि तो वही है। अग्नि की वेदी, सात फेरे, सिंदूर-दान, नारियों का सुमंगल गान। व्याह का एक विधि भी बांकी नहीं रहा। 'बेदी-वेद बिधान संवारी। सुभग सुमंगल गावहीं नारी॥' बालकाण्ड | दोहा-99| चौपाई-1 आज भले ही दहेज़ विद्रूप हो दानव बन चुका है पर ये प्रथा तभी आदर और स्नेह का प्रतीक थी। हिमालय ने भी निर्विकार शिव को दहेज़ दिया था। और उस दहेज़ में भी विनय था, उपराग और कष्ट का लेश भी नहीं। 'दाइज दियो बहुत भांति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। का देऊँ पूरण काम संकर चरण पंकज गहि रह्यो॥' बालकाण्ड | दोहा-100| छंद-1 भारत के उत्तरी भागों में आज भी दामाद के पैर पूजने की प्रथा जीवित है। अस्तु॥ शिव-पार्वती विवाह तो हो गया। अब चलें अयोध्या नगरी। पुत्र-काम यज्ञोपरांत महाराज दशरथ के घर रामलला चारो भाइयों का जन्म होता है। अवध में उछाह है। बालकों के जन्म के अवसर पर होने वाले बधाई और न्योछाबर का एक चित्र, 'कनक कलश मंगल भरि थारा। गावत पैठेहिं भूप दुआरा॥ करि आरती न्योछावरि करहिं। बार-बार शिशु चरनन्हि परहिं॥' बालकाण्ड | दोहा-193| चौपाई-2-3 चारो कुंवर कुछ बड़े होते हैं। यज्ञोपवीत होता है। फिर गुरु गृह जाते हैं विद्याध्ययन को। फिर विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा के लिए चल पड़ते हैं, राम लक्ष्मण। और पहुंचते हैं जनकपुर, जहां हो रहा है सीता के स्वयंवर के लिए धनुष-यज्ञ। मिथिला में लक्ष्मण की सुबह कैसे होती है... ? 'मुर्गे की बांग सुन कर। आज भी मिथिलांचल में कहावत है, 'जहां मुर्गा नहीं वहाँ प्रात नहीं ?" अभी अलार्म और घड़ी और इस से पहले घंटा बजा करता था। लेकिन प्राचीन काल में मुर्गे की बांग को ही सुबह के आगमन का संकेत समझा जाता था। 'उठे लखन निशि विगत सुनि 'अरुण-शिखा' धुनी कान।' बालकाण्ड | दोहा-226| राम-लक्ष्मण नित्य पूजा हेतु फूल लेने जाते हैं। उधर जानकी को माँ सुनयना सखियों के साथ 'गौरी-पूजन' को भेजती हैं। सुहागन महिलायें तो पति की दीर्घायु के लिए 'माँ गौरी' की पूजा करती ही हैं। लेकिन हमारे मिथिलांचल में रिवाज है कि विवाह पूर्व तालाव या कुँए में स्नान कर गौरी की पूजा कर कुमारी कन्या उन्ही की तरह मनोनुकूल पति मांगती हैं। यहाँ मिथिला की लोक संस्कृति का यही दृश्य चल रहा है। 'मज्जन करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥' बालकाण्ड | दोहा-227| चौपाई-3 विदेह राज के दरबार में धनुष यज्ञ हो रहा है। सभी भूप-महीप, महाभट धनुष भंग कर सीता के वरण की आकांक्षा लिए धनुष तक जाते हैं और मुँह लटकाए चले आते हैं। टूटना तो दूर "भूप सहस दस एकही बारा" मिल कर भी धनुष को हिला तक नहीं सके। 'वीर-विहीन मही मैं जानी'- जनक का पश्चाताप। लक्ष्मण का प्रतिवाद। फिर गुरु की आज्ञा से राम धनुष की ओर बढ़ते हैं। नर-नारी वृन्द की उत्कट अभिलाषा - राम धनुष को तोड़ें और सीता से विवाह करें। सीता तो फुलवारी से ही सुध-बुध खो चुकी है। माँ गिरिजा से 'मन जाहि राच्यों मिलहिं सो वर' का आशीष भी ले चुकी है। किन्तु परिणय मार्ग में बाधक, 'शिव-धनु'। कितनी सुघर आंचलिकता है.... अपनी मनोकामना पुराने के लिए आज भी युवती-महिलायें देवी-देवताओं की चिरौरी करती हैं। जानकी जी भी कर रही हैं। अराध रही हैं सबको कि राम धनुष को तोड़ने में सफल हों। सबसे पहले प्रथमपूज्य को। 'गणनायक बरदायक देवा। आजू लगे किन्हीऊँ तुअ सेवा।' बालकाण्ड | दोहा-246| चौपाई-4 वैदेही तो निष्प्राण शिव-धनु को भी गोहरा रही हैं। 'सकल सभा के मति भै भोरी। अब मोहि शम्भू चाप गति तोरी॥ निज जड़ता लोगन पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥' बालकाण्ड | दोहा-257| चौपाई-3-4 धनुष-भंग हुआ। सीता-राम विवाह की तैय्यारी है। दशरथ को न्योत गया। बारात प्रस्थान। गाय, नेवला और दही-मछली देख कर यात्रा का सगुन किया जा रहा है। आज भी उत्तरी भारत (ख़ास कर मिथिलांचल) में दही-मछली के दर्शन से ही यात्रा का उत्तम योग बनता है। 'चारा चाषु बाम डीसी लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥ दाहिन काग सुखेत सुहाबा। नकुल दरस सब काहूँ पावा॥ सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बार नारी॥ लोवा फिर-फिर दरस देखावा। सुरभि सन्मुख सिसुहि पिआवा॥ सनमुख आएऊ दाढ़ी और मीना। कर पुस्तक दुई विप्र प्रवीण॥' अवधपुर से बारात चल पड़ीं है। विदेह राज्य में जायेगी बारात तो हम मैथिल संस्कृति की झलक देखेंगे फिर कभी। |