शुक्रवार, 14 मई 2010

त्यागपत्र - 29

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती! फिर पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! विवाह की सहमति ! विवाह ! अब पढ़िए आगे !! -- मनोज कुमार
परिणय की उल्लासमयी निशा के बाद अलस प्रभात। माधोपुरवासी मिथिलांचल के आतिथ्य से पुलकित मिथालिनियों की रसगालियों के साथ भातखाई का आनंद लेते हैं। फिर मधुर-मिष्ठान एवं तिरहुतिया पान। विधि-विधान करते विदा होने का मर्मस्पर्शी समय आ गया। गीत अभी भी हो रहे हैं पर स्वर की खनक की जगह ले ली है भावुकता ने। "बड़ा रे जतन से हम सिया धिया पोसल..... सेहो धिया राम लेने जाय... !!" दोनों समधी गले मिले। एक-दूसरे को बधाई दी। पारम्परिक अश्रु, रुदन, क्रंदन।
हाय ! विधि ने ये कैसा नियम बनाया.... ! दो आत्मा का मिलन.... एक आत्मजा के बिछुड़ने के बाद। आँगन में स्त्रियों के विहंगम विलाप का आवेग द्वारे होंठों को सीये पुरुषों के आँखों के रास्ते बह रहा है। गोवर्धन बाबू विदाई की भीर से अलग गायों को बाँधने के स्थान पर बैठे हैं। दोनों बैलों ने आज नाद में मुँह भी नहीं दिया है। चारा जस का तस पड़ा है। काली गय्या नन्ही बछिया का सर चाट रही है। गोबर्धन बाबू की निरंतर बह रही आँखें अब और खुली रहने का साहस नहीं जुटा पाती। सर की पगरी खोल चेहरे को ढांप लेते हैं।
बंद आँखों में रामदुलारी के जन्म से विवाह तक का दृश्य सिनेमा के रील की तरह चल पड़ता है। पहली बार फूल सी रामदुलारी को गोद में लेते हुए भी कैसे डर गए थे.... ! पायल और चूड़ियों से छम-छम समवेत स्वर करती रामदुलारी कैसे घुटनों के बल कैसे उनके पीछे भागती थी... ! उन्होंने ही तो उसे अंगुली पकड़ा कर चलना सिखाया था। जब भी उसके कदम डगमाते थे... गिरने से पहले ही उसे अपनी गोद में उठा लेते थे। पहली बार उन्होंने अपनी लाडली को पटना जाने के लिए जिद पर डांटा था... ! प्राण समान प्यारी बिटिया को उन्होंने डांटा भी था... यह याद आते ही अश्रुधारा के साथ रुद्ध कंठ से घुटा हुआ रुदन भी फूट पड़ता है।
जरसी गाय रंभाती है। नारी समुदाय का क्रंदन हवेली की दीवारों को कोमल कलेजे की भांति चीर गौहाली को कम्पायमान कर देता है। काली गाय दूर खड़ी नन्ही बछिया तक पहुँचने के लिए कुलाछें भर रही है। लगता है लोहे के खूटे में बांधे मोटी रस्सी को तोड़ देगी। गोबर्धन बाबू पगरी से चेहरे को पोछ दरवाजे की तरफ बढ़ जाते हैं।
मोटर खरखरा रहा है। बांके बिहारी के दुपट्टे से रामदुलारी की गाँठ जुडी हुई है। पर अभी भी मृग शावक की भांति मैय्या के सीने से चिपकी है। मेहँदी रंजित हाथों से उसने छोटकी चाची का आँचल पकड़ रखा है। उर्मिला देवी की चीत्कार हवेली के दीवारों का भी सीना चीर देती है। नारी वृन्द मोटर की तरफ बढ़ती हैं। रामदुलारी का कम्पित स्वर बाबा-बाबा पुकार उठता है। लगभग बेसुध सुहासिनियों को याद आता है...अरे वर-दुल्हिन ने तो बाबा का आशीर्वाद लिया ही नहीं.... !
नारी समुदाय बांके और रामदुलारी को ले प्रजापति बाबू की कोठरी में जाती हैं।
बाबा का मुँह आग दिवार की तरफ है। बांके परश्वसुर के चरण स्पर्श करते हैं। रामदुलारी रोते-रोते बाबा से लिपट जाती है। सौ-सौ रूपये के पांच नोटों के ऊपर एक रुपया का सिक्का रख ठाकुर जी दामाद को आशीष देते हैं। बाहर मोटर वाला भोंपू बजता है किन्तु रामदुलारी तो बाबा से अलग हो ही नहीं रही। बाबा पोती का मुख चन्द्र निरख दोनों हाथों में भर लेते हैं। फिर अपनी लाडली को कलेजे से लगा उसका सिर थपथपाने लगते हैं। बाबा के आँखों का निर्मल जल रामदुलारी के माथे पर गिर उसे आशीर्वाद से अभिषिक्त कर रहा है। आज पहली बार रघुपुर वालों ने प्रजापति ठाकुर की आँखों में आंसू देखा था।
बापू और दोनों चाचा को भी प्रणाम करने के बाद रामदुलारी ने पकड़ना चाह था... ! कलेजा पत्थर कर के तीनो भाइयों ने कदम पीछे कर लिए थे। उफ़... बिटिया का जन्म ही क्यूँ दिया विधाता ने... ! बांके मोटर की ओर बढ़ते हैं। उन्होंने रामदुलारी को बगलों से पकड़ रखा है। वह कुहुक-कुहुक कर रोते हुए पीछे ही देख रही है। सखियाँ पीछे छूट गयी हैं... अब बहने भी छूट रही हैं.... ! रामदुलारी हाथ बढ़ा कर बहनों को पकड़ लेना चाहती है।
छोटका चाचा मोटर के पास स्त्रियों को बलात रोक रहे हैं। मझली चाची चांदी के लोटे से रामदुलारी को पानी पिलाती हैं। एक घूंट भर कर रामदुलारी उन्ही से लिपट जाती है। बड़ी मुश्किल से मुरली बाबू ने दोनों को अलग किया था। वर दुल्हिन मोटर में बैठे। रामदुलारी दहार पड़ीं। लक्ष्मण भी साथ जा रहा है। अभी तक गुम-सुम लक्ष्मण भी दीदी-दीदी कर के रोने लगता है। तीन बार आगे-पीछे कर मोटर हुर्र से दौड़ पड़ता है। बेसुध उर्मिला देवी मोटर की पीछे भागती है। गिरधारी बाबू भाभी को संभालते हैं। रोता-सिसकता कन्यागत समुदाय धुल के गुवार में भी अपनी प्यारी बिटिया का एक झलक पाने की उम्मीद से आँख फैलाए हैं।

सात जन्मो के बंधन मे बंध बहू माधोपुर आ गई। घर में काफी धूम-धाम थी। झुकी आंखें, लज्जा में डूबी रामदुलारी ने गाँव में ससुराल में प्रवेश किया। इसकी लज्जा में सजीवता थी। गोटा-सितारे में टकी लाल जोड़े में उसका शशि-सा मुख चमक रहा था। भविष्य के सपने उसकी भाव-सरिता में हिलोरें उत्पन्न कर रहे थे। जीवन एक नये परिवेश में बढ़ने वाला था। जहां एक ओर बांके को रामदुलारी का दिव्य सौंदर्य स्तम्भित किए था, वहीं रामदुलारी के नैन बांके के शांत एवं कांतयुक्त चेहरे पर फूल पर मंडराती तितलियों की भांति चिपक रहे थे। वर-वधू घर के दरवाजे पर आ गए।
सुनीता देवी सूप में जल का कलश, थाली में धी का दीया, सिंदूर की डिबिया, फूल-अक्षत लेकर द्वार पर खड़ी हो पुत्र-वधू को निहूंछती हैं। सास ने रामदुलारी का परिछन किया। महिलायें बहू का अभिनन्दन मंगल गान से करती हैं, "आज सुदिन बड़ सुन्दर हे.... लक्ष्मी गृह आयेल !"

जल की झरी से वधू के सिर पर वार कर पानी एक ओर गिराती हुई वे अन्य गीत-गवाइनों का साथ भी दे रहीं हैं। फिर वे घी के दीये से वधू की आरती करती हैं। इसके पश्चात् वे फूल-अक्षत धरती पर बिखेरती घर के अंदर तक बढ़ती जाती हैं। पीछे-पीछे रामदुलारी और रामदुलारी के पीछे बांके उन्हीं फूल-अक्षतों पर पांव रखते घर में प्रवेश करते हैं। स्त्रियों द्वारा मंगलगीत गाया जा रहा है, "दुल्हिन धीरे-धीरे चलियऔ ससुर गलिया, ससुर गलिया हो गलिया.... ससुर गलिय हो अनार कलिया.... ! दुल्हिन सासु से बोलियौ मधुर बोलिया... !!" इस प्रकार नववधू का घर में प्रवेश होता है।

बांके की बहने सुहाग-कक्ष का द्वार छेके गा रही हैं, "द्वार के छेकाई पहिले बहिने के दिययौ यौ दुलरुआ भैय्या... तब जैययौ कोहबर अपन हे दुलरुआ भैया... !! बांके बहनों को नेग दे अपनी वधु के साथ सुहाग कक्ष में प्रवेश करते हैं। परिवार-समाज की श्रेष्ठ महिलायें बधू को आशीष एवं मुँहदिखाई का तोहफा देते हैं। फिर आती है जीवन-प्रतीक्षित मधु-यामिनी।
बांके ने पहली रात को उससे कहा था, “रामदुलारी, तुम वही हो जिसे मैं पत्नी के रूप में ढ़ूंढ़ रहा था। आज तुम्हें पाकर मेरा वर्षों का संजोया सपना साकार हो गया।”

रामदुलारी को लगा वक़्त यहीं ठहर जाए। जी भर जी ले वह इस पल को। अपनी सुहागरात और होने वाले पति को लेकर जितनी सशंकित थी, उसके विपरीत उसे सुनने को मिला। उसे भावनात्मक राहत मिली।

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रामदुलारी के जीवन का अगला अध्याय पढ़िए, अगले हफ्ते ! इसी ब्लॉग पर !!

11 टिप्‍पणियां:

  1. पढ़कर आनन्द आया!
    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है!

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  2. बहुत बढ़िया लगा! अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है!

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  3. यह अंक अच्छा लगा.आगे की प्रस्तुति का इन्त्ज़ार है.

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  4. आगे की प्रस्तुति का इन्त्ज़ार है. पढ़कर आनन्द आया!

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  5. मिथिला की रिति रिवाज़ों का भरपूर मज़ा लिया और लगता है इस विदाई के साथ आप अब बाहर निकल रहे हैं। राम्दुलारी के अगले पड़ाव पर हम आपके साथ होंगे...

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  7. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है!

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  8. पढ़कर आनन्द आया!
    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है!

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