-- करण समस्तीपुरी
"कुछ रज कण ही छोड़ यहाँ से चल देते नरपति सेनानी !
सम्राटों के शासन की भी रह जाती संदिग्ध कहानी !!
रह जाती हैं जंग लगी, वीर-सूरमाओं की तलवारें !
पर है युगों-युगों तक, अमर कवि की वाणी !!"
इस सप्ताहांत में लम्बी छुट्टी मिली। सप्ताह के पाँच दिन तक कार्यालयी मशीन बने रहने के बाद दो दिन मनुष्य की तरह जीने का अवसर मिलता है। सुबह देर तक सोना... दो-तीन अखबारात की हर एक ख़बर के साथ दो-तीन कप चाय की चुस्कियां। फिर बुद्धू-बक्से के उबाऊ कार्य-क्रम भी बड़े चाव से देखना। स्नान में चिरपरिचित आलस्य.... कभी तो जल संरक्षण के नाम पर बिना नहाए ही दो-दिन काट लेना। दिन भर में दो-तीन बार छक कर तर माल पर हाथ फेरना। फिर बड़े गर्व से उदर पर हाथ फेरते हुए मुड़े-तुड़े बिछावन पर इस शान से बैठना....तुर्रा अकबर-ए-आजम तख़्त-ए-हिन्दुस्तान पर आसीन हो रहे हों। फिर कुछ नीन्द की झाप्पियों के बीच अपने पास फुर्सत ही फुर्सत होती है.... और इस फुर्सत में मेरे हमनसीब होते हैं, वर्षों पुरानी डायरी और गिफ्ट या किसी से टिप कर लिए क़लम, जिससे मैं उस पुरानी डायरी के सफेद पन्नो को उसके कवर की तरह ही काला किया करता हूँ।
यह सप्ताहांत भी अपने पुराने ढर्रे पर शुरू हुआ। क्रिसमस की छुट्टी मिला कर यह तीन दिनों का हो गया था। चाय- अखबार के बाद हस्बेमामूल छोटे परदे का परदा अपनी अँगुलियों के इशारे पर बदलने लगा। छोटे-बड़े नेताओं की क्रिसमस की बधाइयां, फिल्मी सितारों का फेवरिट क्रिसमस केक, फेवरिट क्रिसमस डेस्टिनेशन, क्रिसमस शौपिंग से लेकर हर रंग, साइज और डिजाईन के संता टीवी-स्क्रीन पर मंडरा रहे थे। जीसस के जन्म-दिन का मुबारक मौका था। २५ दिसंबर। इस दिन को शत-शत नमन। यह दिन एक और विभूति के जन्म का साक्षी है।
अटल बिहारी वाजपेयी। २५ दिसंबर १९२४ को ग्वालिअर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधान मंत्री बने। दशकों तक भारतीय राजनीति के एक ध्रुव के शिखर पर विराजमान रहे। देश और विदेशों में भी सम्मानित श्री वाजपेयी की उपलब्धियों की फेहरिस्त में 'पोखरण परमाणु परीक्षण', 'लाहौर घोषणा-पत्र, 'कारगिल विजय' की मुहर लगी है। लेकिन अधिकाँश चैनलों पर 'कवि अटल' को ही याद किया जा रहा था। लगभग हर खबरिया चैनल पर अटल जी की कवितायें गूंज रही थी। तो बरबस मुझे एक भूली-बिसरी कविता की पंक्तियाँ याद आने लगी, " है युगों-युगों तक अमर कवि की वाणी !" सच में अटल की विदेश-नीति से भले कोई इत्तेफ़ाक़ न रखे पर "आओ मन की गांठे खोलें...." पर किसी को ऐतराज नहीं। लाहौर-यात्रा भले किसी को ना जंची हो पर "अपने मन से ही कुछ बोलें...." तो सबको पसंद है। "कारगिल-युद्ध" की भले ही चाहे जितनी आलोचना हुई हो पर हर कोई गीत नया गुनगुना उठा था,
"हार नही मानूंगा ! रार नही ठानूंगा !!
काल के कपाल पर, लिखता हूँ ! मिटाता हूँ !!
गीत नया गाता हूँ !!"
आख़िर मेरा यकीन और पक्का हो गया। विश्व के विशालतम लोकतंत्र के शिखर पुरूष पर एक 'कवि' की छवि हावी थी। लेकिन आज यह कहने में मुझे कुछ संकोच हो रहा है। मित्रों ! आज है, २७ दिसंबर। शायर-ए-आजम ग़ालिब का जन्मदिन। बात-बात पर उर्दू व हिन्दी के अदीब जिस 'ग़ालिब' के अश'आर मिसाल में पेश करते हैं, उनके लिए आज उन्ही की एक शे'र मुफीद है,
"हम भूल गए उसकी विरासत को दोस्तों !
बड़ा बेगाना हुआ ग़ालिब अपने ही शहर में !!"
फिर भरोसा हुआ कि कौन कहता है कि ग़ालिब नही है ? आज हम उन्हें याद भी करते हैं तो उन्ही के अलफ़ाज़ में। सच में, "है युगों-युगों तक अमर कवि की वाणी !" यूँ तो अभी अपन फुर्सत में भी है और फुरक़त में भी। लेकिन एक 'आधुनिक सामजिक प्राणी' की तरह 'नव वर्ष' के अभिनन्दन की तैय्यारी भी करनी है। लेकिन पहले इस साल को विदाई भी तो देनी है। तो आईये हम 'कवि अटल' की कविता के साथ ही इस वर्ष को सबसे पहली विदाई दे दें !
झुलसाता जेठ मास !
शरद चाँदनी उदास !!
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया !
एक बरस बीत गया !!
सींकचों में सिमटा जग !
किंतु विकल प्राण विहग !!
धरती से अम्बर तक,
गूँज मुक्ति गीत गया !!
एक बरस बीत गया !!
पथ निहारते नयन !
गिनते दिन, पल, छिन !!
लौट कभी आएगा,
मन का जो मीत गया !!
एक बरस बीत गया !!
-- अटल बिहारी वाजपेयी
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