जनवरी का महीना नये साल की शुभकामनाओं, आशा, उल्लास, बधाइयां आदि से शुरु होता है, पर जाते-जाते दे जाता है एक दुख, उदासी, उस महापुरुष की अनुपस्थिति का अहसास जिनके बारे मे महा कवि पंत ने कहा था
तुम मांसहीन, तुम रक्त हीन, हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीऩ,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुरान हे चिर नवीन !
तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन,
आधार अमर, होगी जिस पर, भावी संस्कृति समासीन।
बासठ वर्ष पहले वह महापुरुष दिल्ली के बिड़ला भवन की एक प्रर्थना सभा में जाते वक़्त एक हत्यारे की गोली का शिकार बना। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम से सारा देश उन्हें जानता है।
1948 का वह साल कोई बहुत ताजगी भरी शुरुआत लेकर नहीं आया था। 13 जनवरी 1948 को गांधीजी बिना किसी को सूचित किए अनिश्चित कालीन उपवास पर चले गए। यह मंगलवार का दिन था। 11 बजकर 55 मिनट पर गांधीजी के जीवन का अंतिम उपवास शुरु हुआ। उस दिन प्रर्थना सभा में उन्होंने घोषणा की थी कि अपना आमरण अनशन वे तब तक जारी रखेंगे जब तक दंगा ग्रसित दिल्ली में अल्प संख्यकों पर हो रहे अत्याचार और नरसंहार बंद नहीं होता। 18 जनवरी को 12 बजकर 45 मिनट पर सभी सात समुदायों के लिखित आश्वासन पर कि वे न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण पुनः स्थापित करेंगे, 78 वर्ष की उम्र के गांधीजी ने 121 घंटे 30 मिनट का उपवास गर्म पानी एवं सोडा वाटर ग्रहण कर भंग किया। उस समय की स्थिति से क्षुब्ध गांधीजी ने राजाजी को पत्र लिखकर अपनी मनः स्थिति इन शब्दों में प्रकट की थी –
“अब मेरे इर्द-गिर्द शांति नहीं रही, अब तो आंधियां ही आंधियां हैं।”
20 जनवरी को झंझावात के चक्र ने अपना पहला रूप दिखाया जब प्रार्थना सभा में गांधीजी बोल रहे थे तो पास के बगीचे की झाड़ियों से एक हस्त निर्मित बम फेंका गया। वह तो अच्छा हुआ कि बम अपना निशाना चूक गया, वरना देश को अपूरनीय क्षति 10 दिन पहले ही हो गयी होती। उसी शाम की सभा में अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए गांधीजी ने निवेदन किया कि बम फेंकने वाले के प्रति नफ़रत का रवैया अख़्तियार न किया जाए। 24 जनवरी को अपने एक मित्र को लिखे पत्र में अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि वे तो राम के सेवक हैं। उनकी जब-तक इच्छा होगी वे अपने सभी काम सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य की राह पर चलते हुए निभाते रहेंगे। उनके सत्य की राह के, ईश्वर ही साक्षी हैं।
प्रर्थना सभा में भी उन्होंने कहा था कि यदि कोई उनकी हत्या करता है, तो उनके दिल में हत्यारे के विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं होगी और जब उनके प्राण निकलेंगे तो उनके होठों पर राम नाम ही हो यही उनकी कामना है। और 30 जनवरी को जब वह काल की घड़ी आई तो बिलकुल वैसा ही हुआ जिसकी उन्होंने इच्छा की थी। किंतु भारत की पश्चिमी सीमा के आर-पार फैली नफ़रत की जिस आग को शांत करने के लिए उन्होंने बलिदान दिया, क्या 61 वर्षों के बाद भी वह बुझी है?
वे उस दिन अपनी पौत्री मनु के कंधों का सहारा लेकर प्रार्थना सभा की ओर बढ़ रहे थे। शुक्रवार 30 जनवरी 1948 की शाम 5 बजकर 17 मिनट का समय था। दूसरी तरफ गांधीजी का सहारा बना हुई थी आभा। लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए गांधीजी धीरे-धीरे सभा स्थल की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक भीड़ को चीर कर एक व्यक्ति गांधीजी की ओर झुका। ऐसा लगा मानो वह उनके चरण छूना चाहता हो। मनु ने उसे पीछे हटने को कहा क्योंकि गांधीजी पहले ही काफी लेट हो चुके थे। गांधीजी समय के बड़े पाबंद रहते थे पर उस शाम नेहरुजी ओर पटेलजी के बीच उभर आए किसी मतभेद को सुलझाने के प्रयास में उन्हें 10 मिनट की देरी हो गयी थी। उस व्यक्ति ने मनु को धकेल दिया। मनु के हाथ से नोटबुक, थूकदान और माला गिर गई। ज्योंही मनु इन बिखरी हुई चीज़ों को उठाने के लिए झुकी वह व्यक्ति गांधीजी के सामने खड़ा हो गया और उसने एक के बाद एक, तीन गोलियां उनके सीने में उतार दीं। गांधीजी के मुंह से “हे राम ! - हे राम !” निकला। उनके सफेद वस्त्र रक्त रंजित हो चुके थे। लोगों का अभिवादन स्वीकार करने हेतु उठे उनके हाथ धीरे-धीरे झुक गए। चारों तरफ अफरा तफरी मच गई। किसी ने उन्हें बिड़ला भवन के एक कमरे में लाकर लिटा दिया। सरदार वल्लभ भाई पटेल उनके बगल में खड़े होकर उनकी नब्ज़ टटोल रहे थे, शायद प्राण बाक़ी हो। कोई दवा की थैली से एडरनलीन की गोली खोज रहा था। डॉ. डी.पी. भार्गव 10 मिनट बाद पहुंच गए। तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। भारत को राह दिखाने वाला प्रकाश- स्तंभ दस मिनट पहले ही बुझ चुका था। डॉ. जीवराज मेहता ने आते ही उनके मृत्यु की पुष्टि कर दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू अपने दफ्तर से भागे-भागे आए और उनकी छाती पर अपना सिर रखकर बच्चों की भांति फूट-फूट कर रोने लगे।
ठीक एक दिन पहले ही 29 जनवरी को गांधीजी ने अपनी पौत्री मनु से कहा था,
“यदि किसी ने मुझ पर गोली चला दी और मैंने उसे अपने सीने पर झेलते हुए राम का नाम लिया तो मुझे सच्चा महात्मा मानना।”
और यह कैसा संयोग था कि 30 जनवरी 1948 के दिन उस महात्मा को प्रार्थना सभा में जाते हुए मनोवांछित मृत्यु प्राप्त हुई।
गांधीजी के दूसरे पुत्र रामदास ने अपने बड़े भाई हरिलाल की अनुपस्थिति में उनकी अंत्येष्टि सम्पन्न की। उनकी समाधि दिल्ली के राजधाट में है।
गांधीजी के अंतिम अवशेषों को लेकर विवाद तब शांत हुआ जब 26 नवंबर 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन्हें पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाय। तब तक तक उनकी अस्थियां और राख एक बक्से में स्टेट बैंक की कटक शाखा के लॉकर में रखी रहीं। उसे गांधीजी के पौत्र तुषार अरुण गांधी को सौंपा गया। उन्होंने उसे 30 जनवरी 1997 को प्रयाग के संगम में प्रवाहित कर दिया।
गांधी हत्या केस की जांच दिल्ली में डी.जे. संजीव एवं मुम्बई में जमशेद नगरवाला ने की। महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने वालों मे से नारायण आप्टे, 34 वर्ष, को फांसी की सजा हुई, क्योंकि जब हत्या का हथियार लिया जा रहा था तो वह भी वहां साथ में मौज़ूद था। वीर सावरकर साक्ष्य की बिना पर रिहा कर दिए गए। नाथूराम गोडसे, मुख्य आरोपी, 39 वर्ष, को फांसी की सजा हुई। विष्णु कारकरे, 34 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड मिला। शंकर किष्टैय्या को सज़ा तो मिली पर अपील के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। गोपाल गोडसे, 29 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड भुगतना पड़ा। दिगम्बर बडगे, 37 वर्ष, जो अवैध शस्त्र व्यापारी था, सरकारी गवाह बन गया, और उसे माफी मिल गई। मदनलाल पाहवा को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बिड़ला भवन में 20 जनवरी को जो हादसा हुआ था, जिसमें गांधीजी बाल-बाल बचे थे, मदनलाल पाहवा उसमें मुख्य साजिश रचने वाला था। मदनलाल पाहवा और उसके कुछ साथियों ने गांधीजी को बम से उड़ा डालने का प्रयास किया था, परन्तु गांधीजी बच गए थे, बम लक्ष्य चूक गया। मदनलाल पाहवा पकड़ा गया। पारचुरे, जिसने हत्यारों को शस्त्र की आपूर्ति की थी, को अपील पर माफ कर दिया गया। ग्वालियर का रहने वाला दत्ताराय पारचुरे एक होमियोपैथी डाक्टर था। उसने ही गांधीजी के हत्यारों, आप्टे एवं गोडसे को ब्लैक ब्रेट स्वचालित पिस्टल मुहैया कराई थी। गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फांसी पर चढ़ाया गया।
ठीक ही कहा था लॉर्ड माउंट बेटन ने,
“सारा संसार उनके जीवित रहने से सम्पन्न था और उनके निधन से वह दरिद्र हो गया।”