रविवार, 31 जनवरी 2010

धन्य बिटिया निशा रानी !





कल रंजीत जी के ब्लाग http://koshimani.blogspot.com/>दो पाटन के बीच पर एक आलेख पढ रहा था! उनकी इन पंक्तियों ने मुझे इस पोस्ट को आप तक पहुंचाने के लिये प्रेरित किया -:

"जिसे शादी में दहेज की मोटी राशि नहीं मिलती, वो खुद को अभागा मानता है। अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है। बला यह कि दहेज लेना और देना स्टेटस सिंबल बन गया है। इसलिए लोग पचास हजार लेते हैं, तो दो लाख बताते हैं और दो लाख देते हैं , तो पांच लाख गिनने का प्रचार करते हैं।"

मैं भी उसी राज्य से हूं जहां के रंजीत जी हैं। इस राज्य में सामंती-अर्द्ध सामंती प्रव्रित्ति आज भी विद्यमान है! इसका नतीज़ा यह है कि यहां दहेज़ जैसे अभिषाप की "ग्लोरिफ़िकेशन" आम बात है। दूसरे राज्यों में शायद स्थिति इतनी भयावह न हो फिर भी इस दावानल की आंच की दहक तो इस देश में सर्व-व्यापी है।

इस समस्या से निपटने का क्या उपाय हो इस पर मैं नहीं जाता पर आपके पास कुछ सुझाव हों तो अवश्य सामने लायें। हां मैंने जो किया और जो करता आ रहा हूं वह आपसे बांटना चाहूंगा।

मैं दहेज़ लेकर शादी करने वालों की बारात नहीं जाता। चाहे वह घर परिवार की शादी हो चाहे समाज की। और यह काम मैं अपने विद्यार्थी जीवन से कर रहा हूं। इसके दो फ़ायदे हुए। एक हमारे जानने वाले हमारे सामने इसकी ग्लोरिफ़िकेशन से बचते थे, दूसरे, कुछ लोग ही सही, प्रेरित होकर दहेज़ नहीं लेते थे/हैं।

इसी से जुड़ा एक वाक़या, आपको भी अवश्य ही याद होगा। सात-आठ साल पहले की बात है। टीवी-मीडिया आदि में इसकी उन दिनों ख़ूब चर्चा हुई थी। मैं बात कर रहा हूं दिल्ली की रहने वाली बिटिया निशा की। उसने हिम्मत दिखाई और दहेज़ के लोभी वर पक्ष को बिना शादी किये ही अपने दर से वापस भेज दिया था।

उसके इस महान कार्य ने मुझे काफ़ी प्रेरित किया था। मैने उसके इस हौसले को सलाम करने के लिये एक कविता लिखी थी। पर कहीं भेजा नहीं, और न ही निशा को अर्पित कर सका। आज इस ब्लोग के माध्यम से आप लोगों द्वारा उसे पहुंचाता हूं।

धन्य बिटिया निशा रानी

--- --- मनोज कुमार

धन्य बिटिया निशा रानी !

हाथ में मेंहदी रचा कर,

लाल जोड़ा तन सजाकर,

तक रही थी राह जिस पर,

थी अभी बारात आनी।

धन्य बिटिया निशा रानी !

आस और विश्‍वास अपने,

पल रहे थे लाख सपने,

एक सुनहरा कल होगा,

और होगी नई कहानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


फूल की लड़ियाँ सजी थी,

द्वार शहनाई बजी थी,

हर्ष और उमंग ने थी,

ख़ुशियों की चादर तानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


सगे-संबंधी सब आए थे,

ख़ुशियों का तोहफ़ा लाए थे,

शुभ कामना हृदय से,

दे रहे आशीष जुबानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


फ्रीज़-टीवी कम लगेगा,

मांग मोटर की करेगा,

बाप ने की थी व्यवस्था,

बेच कर अपनी जवानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


वह अनोखी शाम आई,

लाख पन्द्रह दाम लाई,

दे कहां से जो नहीं है,

जनक की थी परेशानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !

रोक अश्रु बाबुल मेरे,

लूंगी न मैं सात फेरे,

विवाह के व्यापारियों को,

सबक सीखाने की है ठानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


छोड़ सारी लाज उसने,

रीति और रिवाज उसने,

कर दिया विदा दूल्हे को,

जिससे थी शादी रचानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


देकर निज बलिदान उसने,

रक्खा पिता का मान उसने,

दहेज के दानवों को,

पड़ी थी उससे मुंह की खानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


त्याग ना ये व्यर्थ होगा,

नारी बल समर्थ होगा,

हे निशा ! तू लेकर आई,

युवतियों की भोर सुहानी।

धन्य बिटिया निशा रानी !


सीख दुनियां को दी है,

मिसाल क़ायम जो की है,

भारत की हर ललना के लिए,

बन गई है वह निशानी।

*** ***

शनिवार, 30 जनवरी 2010

श्रद्धांजलि, बापू


बापू के निर्वाण दिवस पर

श्रद्धांजलि, बापू

परशुराम राय

राजघाट पर अब भी,

बापू,

अग्निकुण्ड में

सत्य, अहिंसा की ज्वाला

जलती है,

या लगता है

सत्य, अहिंसा के

सजल नयन से

बापू!

देख रहे तुम भारत को।

ये ही दोनों कदम तुम्हारे

अन्तरिक्ष से

नाप रहे -

भारत की धरती।

पूर्वाग्रहों की जड़ता को

नाम दिया

सत्याग्रह का-

उत्तराधिकारी

जो बताते आपका,

अपनी ही

गलती से

गलती करना

सीख रहे हम।

तलवार गलाकर

तकली गढ़ी जो आपने

कब की बन गई

फिर तलवारें।

प्रजातंत्र के तीनों बन्दर

अब तो

न अपनी बुराई करते हैं

न सुनते हैं और न ही

देखते हैं।

उनकी मंगलवाणी भी

करती

अमंगल घोषणा।

किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो

भारत

दे रहा तुम्हें

श्रद्धांजलि

बापू!

दे रहा तुम्हें

श्रद्धांजलि, बापू

श्रद्धांजलि, बापू।

---0---

बापू का बलिदान



बापू का बलिदान

--- --- मनोज कुमार

जनवरी का महीना नये साल की शुभकामनाओं, आशा, उल्लास, बधाइयां आदि से शुरु होता है, पर जाते-जाते दे जाता है एक दुख, उदासी, उस महापुरुष की अनुपस्थिति का अहसास जिनके बारे मे महा कवि पंत ने कहा था

तुम मांसहीन, तुम रक्त हीन, हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीऩ,

तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुरान हे चिर नवीन !

तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन,

आधार अमर, होगी जिस पर, भावी संस्कृति समासीन।

बासठ वर्ष पहले वह महापुरुष दिल्ली के बिड़ला भवन की एक प्रर्थना सभा में जाते वक़्त एक हत्यारे की गोली का शिकार बना। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम से सारा देश उन्हें जानता है।

1948 का वह साल कोई बहुत ताजगी भरी शुरुआत लेकर नहीं आया था। 13 जनवरी 1948 को गांधीजी बिना किसी को सूचित किए अनिश्चित कालीन उपवास पर चले गए। यह मंगलवार का दिन था। 11 बजकर 55 मिनट पर गांधीजी के जीवन का अंतिम उपवास शुरु हुआ। उस दिन प्रर्थना सभा में उन्होंने घोषणा की थी कि अपना आमरण अनशन वे तब तक जारी रखेंगे जब तक दंगा ग्रसित दिल्ली में अल्प संख्यकों पर हो रहे अत्याचार और नरसंहार बंद नहीं होता। 18 जनवरी को 12 बजकर 45 मिनट पर सभी सात समुदायों के लिखित आश्वासन पर कि वे न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण पुनः स्थापित करेंगे, 78 वर्ष की उम्र के गांधीजी ने 121 घंटे 30 मिनट का उपवास गर्म पानी एवं सोडा वाटर ग्रहण कर भंग किया। उस समय की स्थिति से क्षुब्ध गांधीजी ने राजाजी को पत्र लिखकर अपनी मनः स्थिति इन शब्दों में प्रकट की थी

अब मेरे इर्द-गिर्द शांति नहीं रही, अब तो आंधियां ही आंधियां हैं।

20 जनवरी को झंझावात के चक्र ने अपना पहला रूप दिखाया जब प्रार्थना सभा में गांधीजी बोल रहे थे तो पास के बगीचे की झाड़ियों से एक हस्त निर्मित बम फेंका गया। वह तो अच्छा हुआ कि बम अपना निशाना चूक गया, वरना देश को अपूरनीय क्षति 10 दिन पहले ही हो गयी होती। उसी शाम की सभा में अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए गांधीजी ने निवेदन किया कि बम फेंकने वाले के प्रति नफ़रत का रवैया अख़्तियार न किया जाए। 24 जनवरी को अपने एक मित्र को लिखे पत्र में अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि वे तो राम के सेवक हैं। उनकी जब-तक इच्छा होगी वे अपने सभी काम सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य की राह पर चलते हुए निभाते रहेंगे। उनके सत्य की राह के, ईश्वर ही साक्षी हैं।

प्रर्थना सभा में भी उन्होंने कहा था कि यदि कोई उनकी हत्या करता है, तो उनके दिल में हत्यारे के विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं होगी और जब उनके प्राण निकलेंगे तो उनके होठों पर राम नाम ही हो यही उनकी कामना है। और 30 जनवरी को जब वह काल की घड़ी आई तो बिलकुल वैसा ही हुआ जिसकी उन्होंने इच्छा की थी। किंतु भारत की पश्चिमी सीमा के आर-पार फैली नफ़रत की जिस आग को शांत करने के लिए उन्होंने बलिदान दिया, क्या 61 वर्षों के बाद भी वह बुझी है?

वे उस दिन अपनी पौत्री मनु के कंधों का सहारा लेकर प्रार्थना सभा की ओर बढ़ रहे थे। शुक्रवार 30 जनवरी 1948 की शाम 5 बजकर 17 मिनट का समय था। दूसरी तरफ गांधीजी का सहारा बना हुई थी आभा। लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए गांधीजी धीरे-धीरे सभा स्थल की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक भीड़ को चीर कर एक व्यक्ति गांधीजी की ओर झुका। ऐसा लगा मानो वह उनके चरण छूना चाहता हो। मनु ने उसे पीछे हटने को कहा क्योंकि गांधीजी पहले ही काफी लेट हो चुके थे। गांधीजी समय के बड़े पाबंद रहते थे पर उस शाम नेहरुजी ओर पटेलजी के बीच उभर आए किसी मतभेद को सुलझाने के प्रयास में उन्हें 10 मिनट की देरी हो गयी थी। उस व्यक्ति ने मनु को धकेल दिया। मनु के हाथ से नोटबुक, थूकदान और माला गिर गई। ज्योंही मनु इन बिखरी हुई चीज़ों को उठाने के लिए झुकी वह व्यक्ति गांधीजी के सामने खड़ा हो गया और उसने एक के बाद एक, तीन गोलियां उनके सीने में उतार दीं। गांधीजी के मुंह से हे राम ! - हे राम ! निकला। उनके सफेद वस्त्र रक्त रंजित हो चुके थे। लोगों का अभिवादन स्वीकार करने हेतु उठे उनके हाथ धीरे-धीरे झुक गए। चारों तरफ अफरा तफरी मच गई। किसी ने उन्हें बिड़ला भवन के एक कमरे में लाकर लिटा दिया। सरदार वल्लभ भाई पटेल उनके बगल में खड़े होकर उनकी नब्ज़ टटोल रहे थे, शायद प्राण बाक़ी हो। कोई दवा की थैली से एडरनलीन की गोली खोज रहा था। डॉ. डी.पी. भार्गव 10 मिनट बाद पहुंच गए। तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। भारत को राह दिखाने वाला प्रकाश- स्तंभ दस मिनट पहले ही बुझ चुका था। डॉ. जीवराज मेहता ने आते ही उनके मृत्यु की पुष्टि कर दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू अपने दफ्तर से भागे-भागे आए और उनकी छाती पर अपना सिर रखकर बच्चों की भांति फूट-फूट कर रोने लगे।

ठीक एक दिन पहले ही 29 जनवरी को गांधीजी ने अपनी पौत्री मनु से कहा था,

यदि किसी ने मुझ पर गोली चला दी और मैंने उसे अपने सीने पर झेलते हुए राम का नाम लिया तो मुझे सच्चा महात्मा मानना।


और यह कैसा संयोग था कि 30 जनवरी 1948 के दिन उस महात्मा को प्रार्थना सभा में जाते हुए मनोवांछित मृत्यु प्राप्त हुई।

गांधीजी के दूसरे पुत्र रामदास ने अपने बड़े भाई हरिलाल की अनुपस्थिति में उनकी अंत्येष्टि सम्पन्न की। उनकी समाधि दिल्ली के राजधाट में है।

गांधीजी के अंतिम अवशेषों को लेकर विवाद तब शांत हुआ जब 26 नवंबर 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन्हें पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाय। तब तक तक उनकी अस्थियां और राख एक बक्से में स्टेट बैंक की कटक शाखा के लॉकर में रखी रहीं। उसे गांधीजी के पौत्र तुषार अरुण गांधी को सौंपा गया। उन्होंने उसे 30 जनवरी 1997 को प्रयाग के संगम में प्रवाहित कर दिया।

गांधी हत्या केस की जांच दिल्ली में डी.जे. संजीव एवं मुम्बई में जमशेद नगरवाला ने की। महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने वालों मे से नारायण आप्टे, 34 वर्ष, को फांसी की सजा हुई, क्योंकि जब हत्या का हथियार लिया जा रहा था तो वह भी वहां साथ में मौज़ूद था। वीर सावरकर साक्ष्य की बिना पर रिहा कर दिए गए। नाथूराम गोडसे, मुख्य आरोपी, 39 वर्ष, को फांसी की सजा हुई। विष्णु कारकरे, 34 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड मिला। शंकर किष्टैय्या को सज़ा तो मिली पर अपील के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। गोपाल गोडसे, 29 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड भुगतना पड़ा। दिगम्बर बडगे, 37 वर्ष, जो अवैध शस्त्र व्यापारी था, सरकारी गवाह बन गया, और उसे माफी मिल गई। मदनलाल पाहवा को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बिड़ला भवन में 20 जनवरी को जो हादसा हुआ था, जिसमें गांधीजी बाल-बाल बचे थे, मदनलाल पाहवा उसमें मुख्य साजिश रचने वाला था। मदनलाल पाहवा और उसके कुछ साथियों ने गांधीजी को बम से उड़ा डालने का प्रयास किया था, परन्तु गांधीजी बच गए थे, बम लक्ष्य चूक गया। मदनलाल पाहवा पकड़ा गया। पारचुरे, जिसने हत्यारों को शस्त्र की आपूर्ति की थी, को अपील पर माफ कर दिया गया। ग्वालियर का रहने वाला दत्ताराय पारचुरे एक होमियोपैथी डाक्टर था। उसने ही गांधीजी के हत्यारों, आप्टे एवं गोडसे को ब्लैक ब्रेट स्वचालित पिस्टल मुहैया कराई थी। गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फांसी पर चढ़ाया गया।

ठीक ही कहा था लॉर्ड माउंट बेटन ने,

सारा संसार उनके जीवित रहने से सम्पन्न था और उनके निधन से वह दरिद्र हो गया।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

त्यागपत्र : भाग 14

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना! फिर रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! गाँव की गोरी रामदुलारी अब पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत है ! किन्तु गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा होती है ! उधर समीर के पिता के कालेज की अध्यापिका रुचिरा का आकर्षण समीर के प्रति बढ़ता ही जा रहा है ! इधर रामदुलारी भी बहुत दिनों से प्रकाश नहीं मिला है ! अब पढ़िए आगे !!

-- करण समस्तीपुरी

बहुत दिनों से गायक, प्रकाश के दर्शन नहीं हुए थे। किसी से पता चला वह शहर से बाहर चला गया है। वह भी शोध कर रहा था। अंग्रेज़ी साहित्य में। रामदुलारी जब भी पुस्तकालय जाती तो उसकी आंखें प्रकाश को तलाशती प्रतीत होती। इसी तलाश में कई दिन बीत गए। उसे लग रहा था कि प्रकाश के प्रति उसका आकर्षण तीव्रतर होते जा रहा है। जब कोई पास न हो तो उसकी कमी बहुत सालती है।

उस दिन जब वह पुस्तकालय में कुछ शोधग्रंथों के अध्ययन में डूबी हुई थी, तभी द्वार से किसी के प्रवेश करने की आहट हुई। रामदुलारी के नयन उस ओर उठ गए। द्वार पर वही खड़ा था जिसके दर्शन को प्राण तड़प रहे थे उसके। ऐसा लगा मानों प्रत्यूष सारी रश्मि लेकर पुस्तकालय के उस कक्ष में प्रवेश कर गया हो। दिल के सारे तार झंकृत हो उठे। मन ऐसे मचला मानो मधुवन के सारे पुष्प अपनी सुरभि लुटा रहे हों। उस पल के आगमन से आनन्दमग्न हो गई रामदुलारी। स्थान की सीमाबद्धता का भी सहसा ध्यान हो आया। मन ने सावधान किया। यह पुस्तकालय है, और यहाँ सहपाठी भी हैं।

प्रकाश रामदुलारी की उपस्थिति से अनभिज्ञ अपने मित्रों की ओर बढ़ गया। रामदुलारी के कर्ण द्वार से शब्दों के दल ने प्रवेश करना प्रारंभ किया।

कहां थे? बहुत दिनों से दिखे नहीं।

हां। मैं यहां नहीं था। मुझे एक इंटर कॉलेज में व्याख्याता की नौकरी मिल गई है। वहीं ज्वायन करने गया था। ... आज ही आया हूँ। यहां से नामादि कटवाने हैं। कल पुनः चला जाऊँगा। वहीं रहूँगा।

रामदुलारी के नयन उठे। कुछ अविश्वास कुछ आशंका से। प्रकाश की आंखें भी खोजती हुई रामदुलारी की आंखों से जा टकराई। प्रकाश बड़े ही चाव से उसकी तरफ देख रहा था। पर इधर रामदुलारी का मन भीतर से भींग रहा था। उसे ऐसा लग रहा था फूलों ने जो रंग उसके जीवन की बगिया में बिखेरे थे वह उजड़ रहे हों। यह आने वाले बिछोह की पीड़ा थी। रामदुलारी अपने दुःख के जल से सनी अनमनी बैठी रही। मनोपीड़ा को भरसक दबाने का प्रयत्न करती रही। मन-ही-मन अपनी पीड़ा का विष प्याला पी कर सहज होने की चेष्टा करने लगी। कितना असहज था वह पल उसका।

प्रकाश उसकी तरफ बढ़ता प्रतीत हुआ। रामदुलारी अपनी सीट से उठी। प्रकाश उससे कुछ कहने को आतुर लग रहा था। पर राम दुलारी प्रकाश के पास आने से पहले ही पुस्तकालय के कक्ष से बाहर निकल आई। सड़कें, गलियां, पार कर हॉस्टल के अपने कक्ष में पहुंच गई। पुस्तकें खोल कर पढ़ने का प्रयत्न किया। पुस्तकों में मन नहीं लगा उसका। आंखें बंद की तो मां के स्वर कानों में घुलने लगे ......

तू-त चुप्पे-चुप्पे जा रही है। कोई बचन भी नहीं दी।


(रामदुलारी की स्मृति पर ये किसकी आहात है ? क्या होगा इसका उत्कर्ष ??.... पढ़िए अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !!)

*** *** ***

पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

एक चौपाल कवि कर्म पर

नमस्कार मित्रों !

गुरूवार की चौपाल में एक बार फिर आपका हार्दिक स्वागत है ! यह होगी अपने तरह की पहली चौपाल !! ब्लॉग-विश्व में पहली बार पढ़िए काव्य-शास्त्र का मर्म........ कुछ कही, कुछ अनकही.... एक समीक्षा........ साहित्य साधक परशुराम राय की कलम से !!

आँच

-- परशुराम राय

आँच का उद्देश्य कवि की भावभूमि की गरमाहट को पाठकों तक पहुँचाना और पाठक (समीक्षक) की अनुभूति की गरमाहट को कवि तक पहुँचाना है। इसी उद्देश्य से आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण को ध्यान में रखकर इसी लक्षण से इस धारा का मंगलाचरण करने की इच्छा हुई।

तदोषौ शब्दार्थौ सगुणावन लङ्कृती क्वापि इति काव्यम्।

गुण सहित एवं दोषरहित शब्द और अर्थ की समष्टि को काव्य कहते हैं, भले ही कहीं स्पष्ट अलंकार हो अथवा न हो।

ध्वनि समुदाय को प्रतिष्ठित करने वाले ‘‘काव्य प्रकाश’’ के प्रणेता आचार्य मम्मट द्वारा दिया गया काव्य का यह लक्षण (परिभाषा) है। ब्लाग पर अनेक रचनाएँ आने लगीं हैं । पाठकों की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं तो लगा कि इस ब्लाग में समीक्षा की एक धारा क्यों न जोड़ी जाए। समीक्षा के लिए इसी ब्लाग पर आयी दो रचनाओं को चुना है- एक है श्री मनोज कुमार जी द्वारा रचित अमरलता और दूसरी श्री हरीश प्रकाश गुप्त का नवगीत

अमरलता में कवि ने भारत के सरकारी तंत्र में और समाज में जड़ जमा चुकी कुवृत्तियों पर बहुत ही पैना व्यंग्य किया है। जब मैंने इस कविता को पढ़ा तो भारतीय समाज के वृक्ष पर सरकारी-तंत्र और राजनीतिक दल अमरबेल की तरह कौंध गये और इस प्रकार रचनाकार ने मुझे चमत्कृत कर दिया। इन प्रजातियों को अमर लता बहुत ही सटीक व्यंजित करती है।

जिस प्रकार बिना किसी जड़ के अमर लता व्यवस्थित ढ़ंग से वृक्ष की अन्तिम साँस तक छीन लेती है, उसी तरह व्यवस्थित भ्रष्टाचारी तंत्र बिना किसी जड़ के विभिन्न योजनाओं को डिफाल्टर बना देते हैं और जाँच दल को माथापच्ची करने के लिए समय दे दिया जाता है ताकि भारतीय जनमानस उसे विस्मृति के डस्टबीन में डाल दे। 60 वर्षों की प्रजातांत्रिक गतिविधियों का आकलन यही है कि कोई भी भारतीय किसी योजना और कानून पर विश्वास नहीं करता, बल्कि उसका इन पर विश्वास करना उसकी मजबूरी है। प्रजातंत्र के तीनों स्तम्भ अमरबेल की भाँति जनतंत्र के वृक्ष से लिपटे हुए हैं। इन सबका अघोषित धर्म शोषण है। जिनकी ये सवारी करते हैं, उनके पास कुछ नहीं बचता, सिवाय सूखी लकड़ी के।

कविता के अन्तिम चरण में- ना औषधि है, कोई खाद्य, तू प्रकृति विनाशनि शक्ति आद्य में भाव शृंखला भंग हो गयी है। निष्कर्ष भाग ‘‘बढ़ते हैं जग में वही आज, जो देते औरों को धकेल’’ भी अपनी भाव-भूमि छोड़ चुका है। कवि से अनुरोध है कि इन पर पुनः विचार कर उन्हें एक ही भाव- भूमि पर प्रवाहित करे।

शैली की दृष्टि से मनोज कुमार जी निराला जी से प्रभावित लगते हैं, विशेषकर इस कविता से तो ऐसा अवश्य प्रकट होता है।

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