शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

त्यागपत्र - 37

clip_image002पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, 'कैसे रामदुलारी तमाम विरोध और विषमताओंकेबावजूद पटना आकर स्नातकोत्तर तक पढाई करती है। बिहार के साहित्यिक गलियारे मेंउसका दखल शुरू ही होता है कि वह गाँव लौट जाती है। फिर सी.पी.डब्ल्यू.डी. केअभियंताबांके बिहारी से परिणयसूत्र में बंध पुनः पटना आ जाती है। अब पढ़िएआगे॥ -- करण समस्तीपुरी

आज सेठ दीन दयाल जी अपने दफ्तर नहीं गए थे। समीर ने भी जैसे 'नवज्योति' कार्यालय से छुट्टी ले रखा था। घर में सन्नाटा था। दोपहर के बारह बज चुके थे। दिन का काम कर के रामू काका गराज में आराम फरमा रहे थे। आधुनिक साज-ओ-सज्जा से लैस बड़े से ड्राईंग रूम में अकेले बैठे सेठ जी 'नवज्योति' के पन्ने पलट रहे थे। सहसा एक शीर्षक पर उनकी नजर अटक गयी, "आज की नारी... फिर भी बेचारी" – डॉ. रुचिरा पाण्डेय। 'ओह... तो ये है इस आस्तीन के सांप का काला जादू।' उनके भींचे हुए होंठो से घुटी हुई तड़प से निकली थी।

समीर के कमरे का दरवाजा आधा खुला। वह निकला और सीधा स्नान घर में गया। उसका उतारा हुआ चेहरा देख कर दीन दयाल जी का कलेजा मुँह को आ गया। कितनी सूजी हुई थी उसकी आँखें। शायद रात भर रोता रहा होगा। गायत्री देवी के जाने के बाद सेठ जी ने अपने एकलौते बेटे के लिए पुनर्विवाह नहीं किया। उसे दुनियां की हर खुशी देने की कोशिश की। समीर के सभी सपने दीन दयाल जी के अपने थे....उन्होंने आज तक समीर को इतना उदास नहीं देखा था। उन्होंने उस से बात करने का निर्णय लिया।

समीर स्नान कर के अपने कमरे में जाने लगा तो दीन-दयाल जी ने कहा, "समीर मैं तुम से ही बात करने के लिए घर पर रुका हूँ !" "जी ! एकमिनट, मैं कपड़े बदल कर आ रहा हूँ।" समीर ने अपने पिता के तरफ देखे बिना कहा था। दीन दयाल जी का हृदय एक बार फिर कचोटने लगा।

दीन दयाल जी ने 'नवज्योति' के पन्नो से नज़ारे उठाई। पता नहीं, समीर कब से तैयार होकर सामने खड़ा था। बात शुरू करने की गरज से सेठजी ने कहा, "खाना बन गया है खा लो।" समीर ने कहा, "जी ! अभी भूख नहीं है। बाहर ही खा लूँगा या बाद में आ कर खा लूँगा।"

"मैं ने भीनहीं खाया है। तुम्हारा ही इंतिजार कर रहा था।" समीर के मुँह से सिर्फ "जी" शब्द निकला था। फिर डायनिंग टेबल पर रखे खाने को सेठ जी खुद ही दो थालियों में लगाने लगे। समीर भी पिता जी का हाथ बंटाने से खुद को नहीं रोक पाया।

clip_image003खाना समाप्ति पर आया तो दीनदयाल जी ने विषय पर आने की कोशिश की। "समीर ! मैं जानता हूँ तुम बहुत भावुक हो। पर भावनाओं के आवेग में लिए गए फैसले से दुनिया नहीं चलती। तुम जरा सोचो... तुम सिर्फ 'नवज्योति' के सम्पादक ही नहीं, इस घर के वारिश हो...बिहार-उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े कंस्ट्रक्शन कंपनी दयाल इंटरप्राइजेस के अगले मालिक भी हो। 'आदर्श महिला महाविद्यालय' जैसे बीसियों स्कूल-कॉलेज हमारी खैरात पर चलते हैं। तुम्हे पता है तुम्हारे लिए सांसदों और मंत्रियों के घर से रिश्ते आ रहे हैं। मेरी बात मानो बेटे ! तुम बहुत खुश रहोगे। मैं उसे किसी दूसरे शहर में नौकरी लगवा देता हूँ। कुछ ही दिनों में तुम उस दो टके की मास्टरनी को भूल जाओगे।"

"पिता जी ! पिता जी ! आप में सामर्थ्य है। आप उसे इस शहर से क्या इस दुनिया से भी दूर भेज सकते हैं। पर मेरे दिल से नहीं। ", बहुत देर से थमा हुआ समीर का तूफ़ान भी फूटा लेकिन संयत स्वर में। "पिता जी ! रुचिरा सिर्फ दो टके की मास्टरनी नहीं है। उसने मुझे जिन्दगी दी है। उसने मुझे मकसद दिया है। उसने मुझे अपनी राह बनाना सिखाया है।"

याद है पिता जी, "माँ के जाने के बाद कुछ दिनों तक आपने अपना सारा प्यार मुझ पर न्योछावर कर दिया था। और उसके बाद अपने व्यवसाय में ऐसे लगे कि सिर्फ पर्व-त्यौहार या पैसों की जरूरत होने पर ही आप से बात हो पाती थी। अपने बेटे को देने के लिए आपके पास सब कुछ था... लेकिन वक़्त का एक कतरा भी नहीं।"

मैं कितना अकेला था पिता जी ! मुझे लगने लगा था मैं इस दुनिया का एक बेकार हिस्सा हूँ। किसी को न मेरी क़द्र है न मेरी जरूरत। आत्मविश्वास नाम की कोई चीज ही नहीं विकसित हो पायी मुझ में। पढाई में पीछे होने लगा। आपका ऐश्वर्य मेरे लिए कालेज तो बनवा सकता था मगर मुझे हुनरमंद नहीं। मेरी ट्यूशन पर खर्च किया गया भारी-भरकम बजट मुझे मुश्किल से इंटरमीडिएयेट पास करवा पाया... !आपका ऊंचा रसूख मुश्किल से स्नातक में दाखिला दिलवा पाया.... लेकिन आज आपका बेटा जिस मुकाम पर है उसे वहाँ रुचिरा ने पहुँचायाहै !"

clip_image004समीर शायद सारा गुबार उगल देना चाहता था। वह बोलता ही जा रहा था, "पिता जी ! आज अगर सेठ दीन दयाल का बेटा सभ्य समाज मेंसर उठा कर चलता है, बुद्धिजीवी वर्ग में उसके विचारों को तरजीह दी जाती है, प्रतीष्ठित सभाओं में उसे आमंत्रण मिलता है तो इसमें रुचिरा का सबसे बड़ा योगदान है। जब मुझे एक दोस्त की जरूरत थी, उसने मुझ में आत्म विश्वास भरा। जब मुझे एक मार्गदर्शक की जरूरत थी, उसने मुझे सही राह दिखाई। जब मैं अकेलेपन में घुटा जा रहा था तो रोने के लिए उसने अपना कन्धा दिया।"

दीन दयाल जी का रुष्ट स्वर उभरा था, "उसके हर योगदान के लिए उसे पूरी कीमत मिली है। वरना उसके जैसे अनगिनत एम ए पास लोंग सडकों पर धुल फांकते हैं। पटना के कालेज में हेड ऑफ़ द डिपार्टमेंट की कुर्सी नहीं तोड़ते।"

आप सही कह रहे हैं पिता जी। लेकिन यह कीमत उसकी काबिलियत की है। उसकी भावनाओं की कीमत.... !"

"वाह समीर ! तुम्हे उस मास्टरनी की भावनाओं की कीमत की दरकार तो है पर अपने पिता की भावनाओं की कोई क़द्र नहीं।", दीन दयाल जी ने जज्बाती पाशा फेंकाथा।

"ऐसा नहीं है पिता जी !" समीर के मुँह का वाक्य ख़त्म होने से पहले ही फिर दीन दयाल जी बोल पड़े थे, "अगर ऐसा नहीं है तो क्यूँ मेरी भावनाओं को तुम नहीं समझ रहे ? तुम्हारी छोटी से छोटी इच्छाओं को पूरा करने के लिए मैं ने एड़ी-चोटी एक कर दिया। पूरी जवानी बैराग्यमें बिताया... अपना सब कुछ तुम पर न्योछाबर कर दिया.... तुम ने जो भी माँगा वो दिया... पर तुम मेरी एक बात तक नहीं मान सकते... ?"

"पिता जी ! आप भूल रहे हैं !" समीर भी भावुक हो गया था, "मैं ने आज तक कुछ नहीं माँगा.... ! माँ के जाने के बाद आप ने मुझे पुष्प बुआ के भरोसे छोड़ दिया। मुझे तो आपका स्नेहिल अंक चाहिए था लेकिन आप मेरे लिए बंगला, कार और ए सी के जुगार में लगे रहे... ! आप भौतिक सम्पन्नता जुटाने में लगे रहे, जो न मैं ने कभी चाहा, न कभी माँगा.... ! आप अपनी कमी ऐशो-आराम से पूरी करने की कोशिश करते रहे.... ! आपको जो जरूरी लगा आपने किया.... लेकिन मैं ने कभी माँगा नहीं था। पिता जी ! मैं भी आपके सामने पहली बार ही अपना मुँह खोल रहाहूँ ! अपना हाथ फैला रहा हूँ... ! पिता जी.... !!" कह के समीर रो पड़ा था।

clip_image005लेकिन सेठ जी ने भी बहुत दुनिया देखी है। आखिर बिना दाव-पेच के इतना बड़ा साम्राज्य नहीं खड़ा किया है। जज़्बात से बात नहीं बनी तो संस्कार को बीच में ले आये, "समीर ! मैं ने तो तुम्हारे लिए अपना सारा शौक-मौज मिटा दिया। दिन रात इसी फिक्र में रहा कि तुम्हे कभी कोई तकलीफ नहीं हो। मैं तुम्हे दुखी नहीं देख सकता। मैं ने हमेशा चाहा है कि मेरा बेटा जो चाहे वो उसे मिले। मैं समझ गया रुचिरा तुम्हारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है। तुम्हारे चरित्र निर्माण में उसका हाथ है, लेकिन बेटा ! तुम 'गुरु-शिष्य' के पवित्र रिश्ते को 'पति-पत्नी' के रिश्ते मेंबदलना चाहते हो... ? वह उम्र में भी तुम से बड़ी है।"

लेकिन समीर के पास इसका भी काट था। जितनी सहजता से दीन दयाल जी ने चाल चली थी उस से कहीं अधिक सहजता से समीर ने भी उसका काट पेश किया, "पिता जी ! एक भार्या "कार्येषु दासी होती है तो कर्मेषु मंत्री" भी तो होती है। आपको खुशी होनी चाहिए थी कि जिस ने अभी तक हमारा मार्गदर्शन किया है अब वह जीवनमार्ग पर हमेशा मेरे साथ होगी। रही बात उम्र की... तो स्वतंत्र भारत का संविधान सिर्फ यही कहता है कि विवाह के वक़्त 'पुरुष की आयु 21 वर्ष और स्त्री की 18 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।"

सेठ दीन दयाल जी की आँखें चौरी हो गयी थी। साम-दाम और दंड का प्रहार चूक जाने पर सेठ जी ने 'भेद' का सहारा लिया, "बेटा ! रुचिरा तुम से अधिक पढी-लिखी है। तुम जिस बुद्धिजीवी समाज की बात करते हो उसमे उसका कद तुम से कहीं बड़ा है.... तुम अपनी पत्नी की छाँव में अपने व्यक्तित्व का विकास कर पाओगे ?"

"रुचिरा मुझ से अधिक पढी-लिखी है... यह उसकी योग्यता है या अयोग्यता ?", समीर ने पूरी बात-चीत में पहली बार अपना सर उठाया था। फिर चारों आँखें डायनिंग टेबल पर ही झुक गयी थी। आंसुओं के सैलाब में वक़्त का दरिया बहा जा रहा था। दोनों जोड़ी लाल-लाल आँखें एक-आध बार आमने-सामने हुई थी फिर झुक गयी। अपराह्न ढल चुका था। रामू चाय के लिए पूछने आया। और आदेश की प्रतीक्षा में वहीं खड़ा हो गया। दीन दयाल जी ने समीर से पूछा था, "चाय पिओगे.... ?"

"जी! अभी मन नहीं कर रहा.... ।", समीर ने दबी जुबाँ में कहा था।

"अरे पी ले यार... माथा हल्का हो जाएगा और दिल भी... !" कह कर दीन दयाल जी ठठा कर हंस पड़े थे।

समीर को पिता जी का यह बे तकल्लुफ व्यवहार न जाने क्यूँ लेकिन बहुत भाया था। वह रामू के तरफ सिर कर के बोला, रामू काका ! दोनों चाय शक्कर वाली ही बनाइएगा !" चाय की चुस्कियों के बीच दीन दयाल जी ने सवाल दागा, "तो क्या यह तुम्हारा अंतिम फैसला है ?"

समीर ने सर झुकाए हुए ही कहा था, "जी"। सेठ जी ने एक लंबा सा हूँ कहा। फिर चाय का प्याला मेज पर रख कर बोले, "तो तुम भी मेरा अंतिम फैसला सुन लो.... !" समीर का दिल धड़क गया था.... कानों में सनसनी सी दौड़ गयी थी और आँखे फैल कर अपने पिता के मुख-मुद्रा को पढने की कोशिश में लग गयी। ललाट के बाईं ओर की नसें जोर-जोर से फरक रही थी। तभी दीन दयाल जी ने कुर्सी से उठ कर घोषणा की, "मेरी बहू नौकरी नहीं करेगी.... यह मेरा अंतिम फैसला है !"

सहसा समीर की आँखों मे बिजली सी चमक आ गयी। आज उसने सारे संकोच को तोड़ कर पहली बार होश-ओ-हवाश अपने बाप के गले से जा लगा। काँधे पर बेटे के आंसुओं की उष्णता महसूस कर दीन दयाल जी ने बेटे को बाहों से पकड़ कर आँखों के अआगे किया और बोले, "बोलो ! तुम्हे मेरा फैसला मंजूर है या नहीं... ?"

clip_image006समीर जानता था कि रुचिरा को नौकरी से मन करना सहज नहीं है। लेकिन उसने पूरे उत्साह और आत्मविश्वास के साथ कहा, "मंजूर है पिता जी ! मुझे पूरा भरोसा है कि रुचिरा भी आपके निर्णय का सम्मान करेगी।"

"क्या प्रगतिशील विचारों वाली रुचिरा मानेगी यह दकियानूसी फैसला ? नारी आन्दोलन की अगुआ कैद हो जायेगी चहारदीवारी में या असमान पृष्ठभूमि का प्रेम बीच में ही तोड़ देगा दम.... ? पढ़िए, अगले हफ्ते ! इसी ब्लॉग पर !!

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