शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

त्याग पत्र -- 27

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! फिर पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! फिर शादी की सहमति ! माधोपुर से बारात चल पड़ीं है ! अब पढ़िए आगे !! -- करण समस्तीपुरी

जलवासे पर स्वागत भक्ति के बाद बारात चलती है दरवाजा लगाने। अह्हा... बैंड वालों ने भी लाल-पीला ड्रेस कस लिया है। ओह तेरे की... सर पे पंखी लगा टोप भी है। सबसे पहले डंके वाला चोट करता है, "ढन...ढन...ढमाक.... ! फिर बड़ा धुतहू वाला... पें...पें... पें.... ! फूलों से सजी गाड़ी में दुल्हे राजा कुछ कुटुंब और सहबाला के साथ सवार होते हैं। पूरा टोला घुमा कर बारात को दरवाजे पर ले जाने की योजना है। बैंड के धुन पर बारात में आये छैल-छबीले युवक मंडली के कदम थिड़क-थिड़क कर बढ़ रहे हैं।

शिवाला तक आते-आते बारातियों का नाच एकदम शबाब चढ़ जाता है। अचानक बैंड की धुन भी बदल जाती है। अभी तक "आज मेरे यार की शादी है...!" बजा रहे भोंपू से "मेरी प्यारी बहनिया... बनेगी दुल्हानिया.... !" के स्वर गूंज जाते है। ओह... अब तो बारातियों के साथ सराती लड़के भी अपना नृत्य कौशल दिखा रहे हैं। अरे... वो गुलाबी टाई वाला तो दुलहे का दोस्त हैं न... ? वह बैंड-मास्टर के कान में कुछ कह रहा है। पी...ई...ई...ई...ई....ई...ई... ! ओह्हो.... नागिन धुन.... ! तो ये थी बारात की फरमाइश ! अब बाराती-सराती लगे दोनों हाथों को जोड़ कर सर के ऊपर लहरा-लहरा के नाचने। अरे किसी ने लक्ष्मण को भी खींच लिया बीच में। आहि भाला के.... अरे एक बराती तो पीठ के ब़ल लेट कर छट-पट-छट-पट कर नाच रहा है.... ।
शिवाला से ठाकुर जी की हवेली तक चंदोवा लगा है। चांदोबा के अन्दर बीच में दुल्हे राजा की गाड़ी और आगे-पीछे से दोनों तरफ लोग चीटी की तरह खिसक-खिसक कर बढ़ रहे हैं। दरबाजा आ गया.... ! बैंड वाले ने फिर से धुन बदला, "बहारों फूल बरसाओ... मेरा महबूब आया है..... !"

बाबू प्रजापति ठाकुर की हवेली तो आज अलकापुरी की तरह सजी है। सतरंगे प्रकाशों वाली बिजली की ऐसी कलाबाजी दिखाई गयी है कि भोले-भाले ग्रामीण को बिन बादल इन्द्रधनुष का भ्रम हो जाए। कोठी के झरोखे से युवतियां झाँख रही हैं। बाहर जितनी हल-चल है उस से कम आँगन में भी नहीं। शोर-गुल को चीरते हुए लाल-काकी की आवाज़ आती है, "ऐ कहाँ गयी रामदुलारी की अम्मा.... ! अरे दामाद जी आ गए द्वार पर। चलो परिछन करो... ! ऐ कोनैला वाली... अरे डाला उठाओ ! ऐ छोटकी... आरती सजाओ... !"
"चलो सखी ! परिछन करने को रथ चढ़ रघुवर आयो हैं.... !" मंगल आरती गाते हुए नारी वृन्द दुल्हे को परिछती हैं। पहले आरती फिर गलसेंदी। सबसे पहले उर्मिला देवी ने पान के पत्ते को आरती की लौ दिखा कर दुल्हे राजा के गालों की सेंकाई की। फिर परतापुर वाली काकी, फिर छोटकी चाची, बुआ, मामी और मौसी... ! रस्म के साथ-साथ महिलायें आपस में ठिठोली भी कर रही हैं। छोटकी चाची गीत उठाती हैं, "उतर जावें यहीं लालन... चलें पैदल लली आँगन..... !"

लेकिन दुल्हे राजा मोटर-गाड़ी से उतरें कैसे ? पहले चालाक को तो नेग दो। झट से उर्मिला देवही सारी के खूंट में बंधा मुड़ा-तुरा पचसटकिया पर एक रूपये का सिक्का रख के चालाक के हाथों में देती है... फिर दुल्हे राजा के कदम ससुराल की धन्य धरा पर पड़ती है। लक्ष्मण जीजा जी का हाथ पकड़ कर चौकोर मंच पर ले जाता है और बाराती कुर्सियां लूटने लगते हैं। अतरुआ वाली गीत शुरू करती हैं, "दरबजवे पर समधी ठाढ़े.... समधनिया को काहे न लाये.... !!"

बच्चन सिंघ बांके के साथ मंच पर लगी राजगद्दीनुमा कुर्सी पर बिराजते हैं। सरस तत्सम शब्दों में लिखा अभिनन्दन पत्र पढ़ा जाता है। फिर शीशे के ग्लासों में खस और काजू के शरबत परोसे जाते हैं। बांकें के ख़ास दोस्त पंडाल में लगी कुर्सी की फ़िक्र न कर उसके करीब ही मंडरा रहे हैं। बांके के सामने भी एक ग्लास शरबत रख दिया गया है। पर वह पीता नहीं है। बगल में खड़े लक्ष्मण को आहिस्ता से एक ग्लास सादा पानी लाने को कहता है।

कुछ ही देर में अन्दर से संक्षिप्त नारी-वृन्द का आगमन होता है वरमाला के लिए। चटकीले लाल रंग की बनारसी साड़ी में नख-शिख ढंके सलज्ज क़दमों से नुपुर की आवाज़ आ रही है। हाथों में बेला फूल का मोटा सा माला भी है। अरे यही दुल्हन है। हाँ... ! छोटकी चाची और मामी ने रामदुलारी को दोनों तरफ से पकड़ रखा है। कुछ बराती करीब आये और जो नहीं आ पाए वो इधर-उधर नजरें फेंकने लगे।

नारी समाज के साथ रामदुलारी मंच पर आ गयी है। मंगलमयी मोद से प्रमुदित और लाज से सकुचाई सुकुमारी के कोमल हाथ पुष्पमालिका के भार से काँप रहे हैं। पुरनिया वाली बुआ का गीत शुरू होता है, "सीता हाथ लिए जयमाला रामजी के गले में डालो न.... ! लाल-काकी दुल्हे को झुकने का इशारा करती हैं। लेकिन, "झुकना नहीं बांके...! अभी झुक गया तो सारी उमरा झुक के ही रहना पडेगा यार... !" बांके के दोस्तों का तुमुल नाद गूंज गया था। दोस्तों की सख्त हिदायत... लेकिन कितने भी अकड़ें झुकना तो पड़ेगा ही।
ये लो... अतरुआ वाली ओझाइन ने ऐसी चुटकी मारी कि दुल्हे के दोस्त हँसते हँसते लोट-पोट। चाची ने मौका देखा। दुल्हे के कंधे से जैसे ही तिरहुतिया हथेली सटी बेचारे नतमस्तक हो गए। पहले रामदुलारी ने बांके को माला पहनाया। फिर बांके ने रामदुलारी को। वरमाला के बाद महिलायें आँगन को जाती है और इधर होती है, दुल्हे के परिकावनि की रस्म !


मिथिलांचल में कहावत है, 'विवाह से विध भारी.... !" आँगन में विवाह के विध की तैय्यारी चल रही है थोड़ा सब्र कीजिये और लीजिये मिथिला की परिणय समारोह का आनंद इसी ब्लॉग पर अगले हफ्ते !!

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

आंच-14 :: बरसात का एक दिन

बरसात का एक दिन - आ. परशुराम राय

रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। देखिये राय जी की आंच पर "बरसात का एक दिन" कैसे उतरता है।

बरसात का एक दिन कहानी पिछले दिनों इस ब्लाग पर आयी थी। इस पर लोगों की चटखारे भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिली। श्री करण समस्‍तीपुरी ने अपनी प्रतिक्रिया में जिज्ञासा व्‍यक्‍त की थी कि मैं इस पर समीक्षा लिखूं। मेरे मन में समीक्षा लिखने की बरबस उत्‍कंठा हुई। अतएव इस लघुकथा को समीक्षा के आइने में देखने की कोशिश है आंच का यह अंक।

संस्‍मरणात्‍मक शैली में लिखी गई लघुकथा लोगों को काफी रोचक लगी, जैसा कि प्रतिक्रियाओं से पता चलता है। कथा में प्रारंभ, विकास, चरमोत्‍कर्ष और अंत बड़े ही स्‍वाभाविक रूप में अभिव्‍यक्‍त हुए है। वर्षा का प्रारंभ और छाता खोलकर भींगने से बचाव करते हुए फुटपाथ तक पहुंचने से कथा का प्रारंभ होता है, लड़की के आगमन से कथा विकास की ओर उन्‍मुख होती है, सिनेमाहॉल के पास लड़की का अपने साथी लड़के से मिलन कथा का चरमोत्‍कर्ष है और लड़की द्वारा “थैंक्‍यू दादा” के साथ कथा अन्‍त में विसर्जित हो जाती है। लघुकथा का पूरा घटनाक्रम 10 से 15 मिनट की अवधि में ही घटित हुआ है। पात्रों की संख्‍या देखी जाए तो चार हैं मुख्‍य पात्र (मैं), लड़की, लड़का और चौथे में पूरी भीड़। संवाद बड़े ही छोटे-छोटे चुटीले और सम्‍प्रेषण से पूरिपूर्ण। अतएव कुल मिलाकर यह लघुकथा के मानदण्‍डों पर पूरी तरह खरी उतरती है। कथा आद्योपरान्‍त रोचक और प्रांज्‍जल है। लेखक द्वारा प्रयुक्‍त शब्‍द योजना भाषा में ताजगी पैदा करने में पूर्णरूपेण सक्षम दिखती है, कुछ स्‍थानों को छोड़कर जहां खब्‍दों को हेर-फेर कर पुनरावृत्ति द्वारा चमत्‍कार उत्‍पन्न करने का प्रयास किया है, विशेषकर अनुच्‍छेद संख्‍या – 09 में। आंखें का शिफ्ट होना, प्रयोग पाठक को चमत्‍कृत करता है। इस कथा के माध्‍यम से दिए गए संदेश के लिए इस लघुकथा को पूरी तरह छानना पड़ा इसके बाद जो बचा वह है नारी के प्रति पुरूषों की मानसिकता का स्‍वरूप, जिसे लेखक ने बड़ी ही कोमलता से व्‍यंजित किया है। वैसे फ्रायड की माने तो विषमलिंगी आकर्षण स्‍वाभाविक मानसिक प्रक्रिया माना जाता है। यहां लेखक ने बड़े संयम से कथा में भीड़ में उपस्थि‍त पुरूषों की मानसिकता को स्‍वाभाविक मानसिक प्रक्रिया और मानसिक विकार के मध्‍य में रखा है।

साहित्‍य शास्‍त्र की दृष्टि से इस लघुकथा में श्रृंगार जनित रसाभास है जिसका पाठक आस्‍वादन करता है। यहां रस और रसाभास में अन्‍तर करना आवश्‍यक । जहां स्‍वकीया [अपने पुरुष से प्रेम करने वाली स्त्री ] के साथ श्रृंगार का वर्णन हो, वहां श्रृंगार रस होता है और जहां परकीया [परपुरुष से प्रेम करने वाली स्त्री] के साथ श्रृंगार वर्णन हो वहाँ श्रृंगार रसाभास। इस दृष्टि से इसे उत्‍तम कोटि की रचना नहीं मान सकते। वैसे अद्वैत दर्शन के अनुसार माया की मृग-मरीचिका के सुख के आभास से ही हम परिचित है। इसमें हम जितने सुख का अनुभव करते हैं उसके सम्‍मुख अद्वैत सुख मात्र कल्‍पना से परे और असंभव लगता है । किंतु रस और रसाभास दोनों के आस्‍वादन से हम परिचित हैं । फिर भी देखा गया है कि रसाभास का अनुभव हमें रस से अधिक उत्तेजित करता है । फिर भी साहित्‍य शास्त्र इसे रस से नीचे की श्रेणी में रखता है । क्‍योंकि मनोविकार को स्‍वाभाविकता का जामा नहीं पहनाया जा सकता । ठीक उसी प्रकार जैसे अनैतिकता से चाहे कितना ही लाभ क्‍यों न हो, उसे नैतिकता के समतुल्‍य नहीं माना जा सकता।

कुल मिलाकर कथा रोचक और पाठकों का मनोरंजन करने में सक्षम रही है। मैं भी इससे अलग नहीं हूँ। श्री करण समस्‍तीपुरी को धन्‍यवाद के साथ मैं इस प्रकरण को विराम देताहूँ

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

देसिल बयना - 28 : जिसके लिए रोएँ उसके आँख में आंसू ही नहीं...

-- करण समस्तीपुरी

"आह.... भगवान करे, यजमान बढे ! दही-चूरा पर हाथ चले !! आज हमरा मन एकदम तिरपित है। बाते ऐसन है कि सुन कर आपका भी मन थई-थई हो जाएगा।

जुलमी काका याद हैं न... ! उनके बड़का बेटा बकरचन भैय्या... ? गए दिनों उनकी बारात गए रहे। वैसे नाम तो जुलमी काका ने रखा था वक्रचन्द्र लेकिन गाँव का बुरबक आदमी सब बकरचन कर दिया। बकरचन भैय्या पढ़े-लिखे में शुरूये से होशियार रहे। पोलटेकनिक पढ़ के पटना शहर में झंडा गार दिए। पूरा पी.डब्ल्यू.डी के इंजीनियरी में ई का कौनो जोर नहीं था। ऊपर से चौबीस साल के गवरू जुआन। देहाती भैंस के दूध पर पोसया देह... ऐसा लाल बिन्द कि एक सींक मार दे तो बुल से खून फ़ेंक दे।

ऐसन रूप-गुण के संपन्न कि एगो पटनिया साहेब के लड़की रीझ गयी। उहो लड़की का थी, समझिये गोरी मेम। जुल्फी कटा के गोर-नार, सिन्दुरिया ठोर और बिल्लौरी आँख पर चश्मा भी लगाती थी। हम एक बार मिलिट्री भर्ती में दौरे खातिर दानापुर गए रहे तो बकरचन भैय्या दिखा दिए रहे.... "उहे तोहरी भौजी होगी !"

भैय्या सहिये कहे रहे। पछिले लगन में दुन्नु के जोरी-बंधन हो गया। तिलक में साहेब के यहाँ से ट्रक भर के इतना समान उतरा कि जुलमी काका तो ख़ुशी के मारे जुलुम ही ढा रहे थे। सबा सौ लोग के बराती साजे। पहलेजा घाट से मोटर-नाव से पार कर घाट उतरे थे। उहाँ से साहेब गाड़ी भेजे रहे। खेप-खेप में सब बराती जनवासा पहुंचे।

ओह तोरी के... मारो जांघ में भोथहा कुल्हाड़ी... ! बारात के स्वागत का ऐसन तैय्यारी कि का बताएं...! ई विशाल सामियाना-कनात में रंग-बिरंगा बिजली से ऐसे चकचका दिए रहे कि आँखे चोंधिया जाए। पंडाल में घुसे नहीं कि एक-एक बरियाती के हाथ में शरबत का बोतले थमा दे। नकछेदिया तो एक्कहि घूंट लिया और "बाप रे... ! गला जल रहा है.... !!" कह के फ़ेंक दिया बुरबकहा। हम तो एगो बोतल इधर ख़तम कर के दोसर लाइन मे घुस कर एक और बोतल चट कर दिए।

बाजा पर गाना चल रहा था, 'रसगुल्ला घुमाई के मार गयो रे...!' हम कहे रसगुल्ला घुमाई के क्या... 'रसगुल्ला खिलाई के मार गयो रे... !' बरियाती-सरियाती सब ठाठ के हंस पड़े थे। सच्चे कौनो ऐसा पत्तल नहीं रहा जिस पर दू-चार गो सिस्पेंज और गुलाब-जामुन नहीं लुढ़क रहा हो। दही-जलेबी में तो बराती को तौल दिए थे।

बिहान होके भातखई में तो कितने लोग आये भी नहीं। खखनु राय, झुरुखन महतो और फुचाई भगत तो भर दिन लोटा लेके गाछिये अगोरे रहे... ! हरि गंगा॥ अरे गंगा से याद आया...... ओह ! दीघा घाट से मरवा के लाये थे, येह... बड़क-बड़का रोहू आ मांगुर... ! उन्ह्हूँ... ! उ का लहसुनिया गंध से अभियो नथुना फूल रहा है। दही तो ऐसन छहगर था कि काट के फ़ेंक दें तो दीवाल में सट जाए। ऊपर से जानना सब का गाली-गीत, "ई समधी भरुआ को जूता नहीं है.... !!"

लगन के घर में बड़ा उछाह रहता है। मगर बेटी बियाह के अंत में बड़ी मर्मस्पर्शी बेला आ जाती है। भातखई, चुमावन सब कुछ हुआ। अब बारी थी विदाई की। भौजी की महतारी तो कबे से सिसक रही थी। चुमावन में और कितनी संगी-बहिनपा की आँखें गीली हो गयी। मगर भौजी के मुँह तो लगन के ख़ुशी से दमक रहा था। घोघो नहीं तानी थी। रह-रह के बकरचन भैय्या भी भौजी के चन्द्रानन का दर्शन कर लेते थे। इधर चुमावन हुआ उधर मोटर वाला हरहरा दिया... !

बाहर मोटर का भोपू और अन्दर जनानी सब का दहार.... ! भौजी की महतारी कहे जा रही थी, "बाबू गे... सोना के कैसे - कैसे पोसे हम...... हमरी फूल सी गुड़िया कैसे रहेगी रे बाप....! चाची-भौजी, मौसी-मामी सब गला मिल के चिग्घार रही है... मगर भौजी तो भैय्या के दुपट्टा से गठजोर करे चमक रही थी। भैय्या कुछो कान में कहे तो मुस्किया भी दी थी एक-दो बार !

जैसे ही मोटर तक पहुंची तो आई-माई का रोना और जोर पकड़ लियासब उकी देह झकझोर-झकझोर के रोये। मगर भौजी सच्चो में बहुत समझदार थी। भौजी को डर कि कहीं अल्पना मार्किट वाला ब्यूटी-पार्लर के मेहनत पर पानी और बनारसी सारी पर सिलवट न पड़ जाए। बोली, "ऐ मम्मा... ! बी केयरफुल... म़ोम ! आई विल कम सून... ! हेय... डैड... टेक केयर ऑफ़ मम्मा न... !! सी इस बिइंग सो इमोशनल..... ! वक्रचंद्र, मेरा पर्स पकड़ना यार... !"

"आहि रे बा... ! दुल्हिन के अरिजन-परिजन सब रो-रो के बेहाल हैं और ई तो अंग्रेजी बक रही है।" हमरे बगल में खड़ा फगुनी दास बोला था। हम भैय्या के बगल में सड़क गए। सच्चे...! भौजी को छोड़ के सब जानना ठुहुंक-ठुहुंक के रो रही थी। लेकिन तभिये एगो अधवयस जनानी भौजी के बहिनी को डांटते हुए बोली, "अ... दुर्र... ! काहे गला फार रही हो... ? हम लोग जिसके लिए रो-रो के आँख सुजायें उ को देखो कितने मजे से मोटर में बैठ रही है... एक बूँद आंसू तक नहीं टपकाई... ! कहता है नहीं कि जिसके लिए रोयें, उसके आँख में आंसुये नहीं... !!" इतना सुनना था कि झमेलिया थपरी बाजा के हिहिया दिया। हा...हा..हा... !

इधर बकटू झा की भी झड़ी हुई बतीसी खिल गयी। बुढौ हमरे बुझा के कहे लगे, "खे...खे...खे... ! बौआ ! बात बुझे न... ! जो हो लेकिन पटनिया लोग के बात-विचार में कौनो जोर नहीं है। देखा विदाई बेला में भी उ जनाना कैसे टिका के कह गयी, 'जिसके लिए रोयें उसके आँख में आंसुये नहीं... !' लेकिन बातो सच है। अरे सारे अरिजन-परिजन तो बकरचन की लुगाइये के लिए न रो रहे थे कि अल्हड़ जुवती है। सब दिन पटना शहर में खाई-खेली... ससुराल में कैसे बसेगी... और बहुत तरह की बात। लेकिन देखो उको... रोये का.... ? इंगरेजी बोल के हाथ हिलाई और बकरचन को थैला थमा कर मोटर में बैठ गयी। तब ठीके न कही बेचारी, 'जिसके लिए रोयें उसके आँख में आंसुये नहीं... '!"

अब उ जानना के कहवत और बकटू झा की बात आप बुझे कि नहीं लेकिन इतना बुझ लीजिये कि "जिस व्यक्ति के लिए आप हरसंभव चिंता, श्रम या शुभेच्छा कर रहे हैं और उसको खुद इस की परवाह नहीं हो तो ई कहाबत कह के आराम से बैठ जाइयेगा कि "जिसके लिए रोयें उसके आँख में आंसुये नहीं... !"

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मैं गया था अपने गांव --- मनोज कुमार

एक कविता पढ़ी थी। स्‍कूल के दिनों में। राष्‍ट्रकवि स्‍व. मैथिली शरण गुप्‍त की।

अहा ग्राम्‍य जीवन भी क्‍या है ?

क्‍यों न इसे सबका मन चाहे.....

तब यह काफी भाता था। तब यह कहा जाता था, भारत देश है कृषि प्रधान। हम है उसकी संतान। लहलहाती इसकी धरती है। भारत की आत्‍मा गांवों में बसती है। आज...... ? बीस बाइस सालों से देश के विभिन्न भागों में बिहार की मिट्टी से दूर रह्ते हुए पीछे छूट गए गांव की जबर्दस्त कसक सताती है। ग्रामीण परिवेश में पला-बढ़ा, शिक्षा-दीक्षा की शुरुआत हुई सो उसके प्रति ममता हृदय से गई नहीं हैं। गांव की सादगी, ईमानदारी और अपनापन बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। अपने गांव की स्मृतियां ही वह पूंजी है जिसके बल पर कई ऐसी कविता या कहानी लिख डाला। मेरे जैसे बहुत से ऐसे लोग हैं जो शहर को मिथ्या और गांव को सत्य मानते हैं। पर आज का सत्य तो बड़ा कठोर, निर्मम और क्रूर है।

किसान किसान का पेशा अगर आपने अपना लिया तो आपका परिवार भूख से, बिमारी से बेबसी ओर लाचारी से तड़प तड़प कर मर जाएगा। आए दिन किसानों की आत्‍महत्‍या की खबरें देखने-पढ़ने को मिलती हैं। गांव की धूल मिट्टी भरी आवो हवा और गोबर की दुर्गंध ने वहां के युवकों को पलायन हेतु प्रेरित किया है। चर-चांचर की ज़िन्दगी से चंद रूपयों की चाकरी भली। झींगुरदास का बेटा तो अपनी परिवार के बोझ तले एवं जानलेवा बीमारी के दर्द से इतना परेशान हुआ कि रेल में कट कर अपनी मुक्ति पा ली।

पर जब आठ साल के अंतराल पर (हैदराबार के निकट एद्दुमैलारम की अपनी पोस्टिंग के वक्‍त) अपने गांव गया था, अहा ग्राम्‍य जीवन का आनंद लेने तो झींगुरदास का छोटा बेटा मुनिया समस्‍तीपुर रेलवे स्‍टेशन से गांव तक की 12 किलोमीटर की हमारी दूरी तय कराने तांगा लेकर आया था। रास्‍ते में बोल रहा था, “आब गाम कोनो रहई वाला छई? धुत्त! मूरूखे ओत्तs रहतई। हमहूँ सोचई छियई समसतीयेपुर चइल एबइ।”

गांव की मिट्टी से लगाव नहीं। लोग करें भी तो क्‍या? मूलभूत सुविधाओं का सर्वथा अभाव, महंगी होती कृषि सामग्री, फसलों का उचित मूल्‍य न मिलना और ऊपर से प्राकृतिक आपदाएं बाढ़ आदि ने तो वहां के लोगों का जीना दूभर कर दिया है।

विधालय, चिकित्‍सा और बिजली पानी की समस्‍या इतनी विकराल है कि लोग शहर की ओर भाग रहे हैं। इसी ब्‍लॉग के एक योगदानकर्ता करण समस्‍तीपुरी से बेहतर इस समस्‍या का भुक्‍तभोगी कौन होगा। उन्होंने गांव में रहकर इन सब समस्‍याओं से जूझ कर स्‍नातकोत्तर की न सिर्फ पढ़ाई की। विश्‍वविद्यालय में अव्‍वल आए। यह तो भला हो उस पुश्‍तैनी साइकिल का, जो इनके पिताजी ने इन्‍हें दे दिया था, सो शहर से गाव की दूरी इन्‍होंने गांव में रह कर तय करली वरना काला अक्षर से दूर रहते और काली भैंस इनके पास न होती।

गौशाला-१ शहरीकरण का प्रसार इस तीव्र गति से हो रहा है कि गांव की सभ्‍यता बुरी तरह संक्रमित हो रही है। गांव में पहले चौपाल होती थी, पेठिया पोखर होते थे, पनघट कुंआ, दालाना बथान। सब प्रायःगायब होते जा रहे हैं। जब मैं अपने बच्‍चों को गांव के पेठिया में झिल्‍ली बड़ी कचरी खिलाने के प्रलोभन से ले गया तो वहां पेप्सी की मौज़ूदगी ने अहा! ग्राम्य जीवन का मेरा सारा उत्‍साह ठिकाने लगा दिया।

घोघ तानने (घूंघट डाले) झरझरी वाली मेरे चेहरे पर की लकीरें पढ़ते हुए बोली, “बउआ की तकई छियई ।....... अब किछो नई भेटत । सब गेलई.......बज़ार!”

गांव जब जा रहा था तो मन में था कि अभी भी वहां गांव का बहुत कुछ बचा होगा और जब लौट रहा था तो स्पष्ट था कि वहां से बहुत कुछ विलुप्त हो चुका है। मेरे मन में प्रश्‍न था कि हम गांवों को आत्मनिर्भर, सुंदर और सुविधा-संपन्न क्यों नहीं बनाना चाहते थे? अब तो वह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी नहीं हैं जिसकी कामना करके मैं वहां गया था। फिर सोचता हूँ गांव किसके लिए हैं? युवक वर्ग वहां रहना नहीं चाहते। अवसर ही नहीं है। उसकी तलाश में वे शहर भागते हैं। गांव से आ कर जो लम्बे समय तक शहर में रहे, वे गांव लौटना नहीं चाहते। गांव में रहने वाला मुनिमा भी अब गांव में रहना नहीं चाहता। जुगेसर ने शहर में सैलून खोल ही लिया है। हां, झींगुरदास की तरह के अभिशप्त लोग ही रहते हैं गांव में।

21 साल की नौकरी के बाद भी किसी शहर में न ज़मीन ली है, न मकान। शायद रिटयर होने के बाद गांव में ही रहूँ, कह नहीं सकता। वहां से लौट कर, आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में, तब एक कविता लिखी थी, उस ग्राम्‍य गमन के पश्‍चात! पेश है।

मैं गया था अपने गांव


बरसों के बाद गया

मैं अपने गांव,

क्या करता छू आया

बस बड़ों के पांव।

KONICA MINOLTA DIGITAL CAMERA गौशालों की गंध से

थी सनी हवाएं,

छप्परों पर धूल सी

जमी मान्यताएं।

स्वेद सिक्त, श्रमरत,

सर गमछे की छांव।

सूरज तो भटक गया

शहरों की भीड़ में,

चांदनी भी फंस गई

मेघ की शहतीर में।

खोजते हैं शहर

वहां अपने ही दांव।

गौशाला-२ मक्खियाँ तक अब नहीं

करती हैं भिन- भिन,

आम के दरख़्तों पर

ठिठुरे से दिन।

सब गए शहर कहे

अम्मा की झाँव।

सिकुड़ी आँखों झुककर

झांके झींगुर दास,

पेठिये के शोरगुल पर

मण्डी का उपहास।

कब्बार के कोने उपेक्षित

दादाजी की खड़ाउँ।

कुंआ झुर्रियों ढपी आंखें

सपने अब शेष नहीं,

शहर इन गांवों को

छोड़ आया दूर कहीं।

इनारों की जगत पर

शाम का ठिठकाव।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

कुत्ते की मौत

प्रतिभा कहाँ छुपी हो सकती है... किसे पता ? श्री सत्येन्द्र झा साहित्य-जगत में बिलकुल अनसुना नाम है ! महोदय जल में कमल की भांति साहित्य की एकांत साधना में लीन हैं। झा जी सम्प्रति आकाशवाणी के दरभंगा केंद्र में लेखापाल पद पर कार्यरत हैं। आप ने अपनी रचनाओं को स्वर देने के लिए कवि कोकिल विद्यापति की माधुरी बोली 'मैथिली' को चुना ! आपकी एकमात्र प्रकाशित लघु कथा संग्रह "अहीं के कहै छी... !" (आप ही को कहते हैं ) मिथिलांचल में बहुत ही लोकप्रिय है। आप नित नवीन मैथिली कविता एवं कहानियों के सृजन में लगे हुए हैं। झाजी की श्लिष्ट लेखनी में इतनी कसावट है कि मैं इसे पढ़ कर मैं ऐसा चमत्कृत हुआ कि उनकी रचना को आपके सम्मुख लाने से स्वयं को रोक नहीं सका। प्रस्तुतु है उनकी कलम का एक नमूना ! -- करण समस्तीपुरी

कुत्ते की मौत
-- सत्येन्द्र झा
वह इमानदार था। इसीलिए लोग उसे मारना चाह रहे थे। लोग बोले, "तुम्हे कुत्ते की मौत मारूंगा !" वह चुप था, लेकिन प्रसन्न। क्यूंकि वह भी मनुष्य की मौत नहीं मरना चाहता था।
***
(मूल कृति "अहीं के कहै छी..." में संकलित "मौअति" से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित )

रविवार, 25 अप्रैल 2010

काव्यशास्त्र : भाग - 12

आचार्य मुकुलभट्ट

-आचार्य परशुराम राय

आचार्य मुकुलभट्ट का काल नवीं शताब्दी है। आचार्य आनन्दवर्धन और आचार्य मुकुलभट्ट के पिता कल्लटभट्ट कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मा के शासन काल में थे। महाकवि कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ में इस प्रकार का उल्लेख किया है-

अनुग्रहाय लोकानां भट्टाः श्री कल्लटादयः।

अवन्तिवर्मणः काले सिद्धा भुवमवातरन्।।

प्रतीहारेन्दुराज के अनुसार आचार्य मुकुलभट्ट इनके गुरु और मीमांसाशास्त्र के उद्भट विद्वान थे। इसके अतिरिक्त व्याकरण, तर्कशास्त्र, काव्यशास्त्र आदि पर भी इनका पूर्ण अधिकार था।

इनका एकमात्र ग्रंथ ‘अभिधावृत्तमातृका’ है जिसमें केवल 15 कारिकाएँ हैं। इन पर वृत्ति भी स्वयं इन्होंने ही लिखी है। आचार्य मुकुलभट्ट ध्वनिसिद्धांत और व्यञ्जना आदि वृत्तियों के विरोधी हैं। क्योंकि ये मीमांसक हैं। ये व्यञ्जना और लक्षणा वृत्तियों को अभिधा का ही भेद मानते हैं-

इत्येतदभिधावृत्तं दशधाम विवेचितम्।

‘अभिधावृत्तिमातृका’ छोटा ग्रंथ अवश्य है, पर क्लिष्ट है। ‘काव्यप्रकाश’ में अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि वृत्तियों का विवेचन आचार्य मम्मट द्वारा इसी ग्रंथ के आधार पर किया है। इसीलिए कुछ विद्वानों का मानना है कि काव्यप्रकाश के रहस्य को समझने के लिए ‘अभिधावृत्तिमातृका’ का परिशीलन आवश्यक है।

आचार्य मुकुलभट्ट ने अपने ग्रंथ में आनन्दवर्धन, उद्भट, विज्जका आदि आचार्यों के नामों का उल्लेख किया है। ग्रंथ छोटा होने के कारण शायद इस पर कोई टीका नहीं लिखी गयी। जबकि इनके शिष्य प्रतिहारेन्दुराज अपने गुरु का नाम बड़े आदर के साथ लेते है, लेकिन उन्होंने इस पर टीका नहीं लिखी। फिर भी यह ग्रंथ काव्यशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

आचार्य धनञ्जय

आचार्य धनंजय का काल दसवीं शताब्दी है। इनका एक मात्र ग्रंथ ‘दशरुपक’ है जिसका विवेच्य विषय नाट्यशास्त्र है। ग्रंथ के अन्त में अपना परिचय देते हुए वे लिखते हैः-

विष्णोः सुतेनापिधनञ्जयेन विद्धन्मनोरागनिबन्ध हेतुः।

आविष्कृतं मुञ्जमहीशगोष्ठी वैदग्ध्यभाजा दशरुपकमेतत्।।

इसके अनुसार आचार्य धनञ्जय के पिता का नाम विष्णु था और इन्हें मालवा के परमारवंश के राजा मुंज की राजसभा में रहने का सौभाग्य मिला था। यहीं इन्होंने दशरुपक की रचना की थी। महाराज मुंज का राज्यकाल 974 से 994 ई. तक माना गया है। अतएव आचार्य धनञ्जय इसी काल के हैं।

आचार्य भरत के बाद केवल नाट्यशास्त्र पर कार्य करने वाले यह दूसरे आचार्य हैं। आचार्य भरत का नाट्यशास्त्र एक तरह से विश्वकोश है, जबकि आचार्य धनञ्जय ने ‘दशरुपक’ में नाटक की परिधि को नहीं लाँघा है।

‘दशरुपक’ में लगभग 300 कारिकाएँ हैं, जिन्हें चार प्रकाशों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकाश में ग्रंथ का प्रयोजन, नाटकों की पंचसंधियाँ, अर्थोपक्षेपक आदि के लक्षण और आख्यान के भेद आदि का विवेचन किया गया है। द्वितीय प्रकाश में नायक-नायिका भेद एवं कैशिकी (कौशिकी) आदि नाट्य शैलियों के भेदों का विवरण दिया गया है। तृतीय प्रकाश में नाटक के लक्षण, प्रस्तावना, अङ्कविधान, कथाभाग के औचित्य की दृष्टि से बदलाव, नाटक के मुख्य रस, पात्रों की संख्या, प्रवेश और निर्गम के नियम आदि का वर्णन मिलता है। अन्तिम प्रकाश में रसोत्पत्ति के कारकों, यथा- स्थायिभाव, व्यभिचारी भाव आदि का विवेचन, रसास्वादन के प्रकार, नाटक में शान्तरस की उपयोगिता का अभाव आदि पर प्रकाश डाला गया है।

‘दशरुपक’ पर कुल पाँच टीकाएँ लिखी गयी हैं। आचार्य धनिक, नृसिंहभट्ट, देवपाणि, कुरविराम और बहुरूप मिश्र टीकाकारों के नाम हैं। आचार्य बहुरुप मिश्र की टीका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता हैं।

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पिछले अंक

|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट||, || 8. आचार्य वामन ||, || 9. आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट ||, || 10. आचार्य आनन्दवर्धन ||, || 11. आचार्य भट्टनायक ||

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार .......भाग -तीन - सांख्‍य दर्शन

गंगा सागर यात्रा की चर्चा के दौरान हमने पिछली बार चर्चा की थी कपिल मुनी के बारे में। भारतीय दर्शन के छ प्रकारों संख्या, योग, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, न्याय एवं वैशेषिक में से एक है सांख्य। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बन्धी'। सांख्य दर्शन के रचयिता कपिल मुनि माने जाते हैं। सांख्य दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति 'भगवान' के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक परिवर्तनों से गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है।

जीव की दुर्गति का कारण है --- आध्‍यात्मिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक पाप। भगवान कपिल ने इन तीनों दुःखों से मुक्ति का उपाय बतलाया है। सांख्य का अर्थ होता है ज्ञान।

सांख्‍य के अनुसार मूल तत्‍व 25 है। ये है

१. प्रकृति, २. महत् ३. अंहकार, ४. 11 इन्द्रियां, ५. पांच तन्मात्राएं, ६. पांच महाभूत और ७. पुरूष।

१. प्रकृति :

सत्व, रजः, तमः – इन तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है। इस अवस्था में प्रकृति निष्क्रिय रहती है। इन तीनों गुणों में जब कभी कमी आती है या बढोत्तरी होती है, तब उस विषमता से प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है। उसमें विकृति आती है। प्रकृति की विकृति से ही जीव और जगत की सृष्टि होती है।

जीव और जगत अव्यक्त रूप में प्रकृति में विद्यमान रहते हैं। इसी कारण से प्रकृति का एक और नाम “अव्यक्त” है। सृष्टि आदि क्रिया में प्रकृति ही प्रधान है। वह प्रकृतरूप में काम करती है। प्रकृति बना है प्र और कृति के संयोग से। प्र का अर्थ है प्रकर्ष और कृति का अर्थ है निर्माण करना। जिन मूल तत्वों से मिलकर बाकी सब कुछ बनता है, उसे प्रकृति कहते हैं। इसी कारण से “प्रकृति” नाम पड़ा -- “प्रकरोरीति प्रकृतिः।”

२. महतः

प्रकृति का प्रथम परिणाम महत्तत्व या बुद्धितत्व है।

३. अहंकार:

महत्तव की विकृति अहंकारतत्व है।

४. ग्‍यारह इन्द्रियां:

अंहकार तत्‍व के परिणाम हैं इन्द्रिय --- विषय।

इन्द्रियां दो प्रकार की है –

(क) बाह्य इन्द्रियां – दो प्रकार की होती है –

(अ) ज्ञानेन्‍द्रियां

1 चक्षु

2 कर्ण

3 नासिका

4 जिह्वा

5 त्‍वक्

(आ) कर्मेन्द्रियां

1 वाक्

2 पाणि

3 पाद

4 पायु

5 उपस्‍थ

(ख) अन्‍तरेन्द्रिय – मन

(5) पंच मात्राएं

पंत्रतम्‍मात्रा अहंकारतत्‍व का एक परिणाम है। पांच तम्‍मात्राएं है --

1 रूप

2 रस

3 गन्‍ध

4 स्‍पर्श और

5 शब्‍द

(6) पंच महाभूत

उपर्युक्‍त वर्णित पंचतमात्रओं से ही पांच स्‍थूल त‍त्‍वों की उत्‍पति होती है। ये हैं –

1 क्षिति,

2 अप् (जल)

3 तेज (पावक)

4 व्‍योम (गगन , आकाश ) और

5 मरूत् (समीर)

(7) पुरूष

सांख्‍य मत के अनुसार इन 25 तत्‍वों का सम्‍यक ज्ञान ही पुरूषार्थ है।

  • सांख्‍य मत में, जीव और जगत की सृष्टि में ईश्‍वर को प्रमाणरूप में नहीं माना जाता।
  • जगत के दो भाग हैं -पुरुष और प्रकृति।
  • पुरूष और प्रकृति के अविभक्‍त संयोग से सृष्टि की क्रिया निष्‍पन्‍न होती है।
  • पुरूष और प्रकृति दोनों ही अनादि है।
  • पुरूष चेतन है, प्रकृति जड़।
  • पुरुष मनुष्य का चेतन तत्व है।
  • प्रकृति शेष जगत है।
  • पुरूष निष्क्रिय है, प्रकृति क्रियाशील।
  • चेतन पुरूष के सान्निध्‍य से प्रकृति भी चैतन्‍यमयी लगती है।
  • पुरूष केवल भोक्‍ता है, कर्ता नहीं।
  • पुरुष का यह भोग औपचारिक है।
  • पुरूष सर्वदा ही दुखवर्जित है।
  • दुःख तो बुद्धि का विकार है।
  • दुख का कारण अज्ञानतावश पुरुष और प्रकृति में भेद नहीं कर पाना है।
  • दुःखबुद्धि पुरूष में प्रतिबिम्‍बित मात्र होती है।

सांख्‍य मत

  • सांख्य ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता है।
  • शरीर के भेद में आत्‍मा और पुरूष बहु है। पुरूष और प्रकृति 24 तत्‍व से स्‍वतन्‍त्र है।
  • संसार के दुखों और सुखोंका विश्लेषण इन्हीं चौबीस तत्वों और पुरुष के संयोग के आधार पर किया जाता है।
  • अज्ञानतावश, न जानने के कारण ही जीव को बन्‍धन में बंधना पड़ता है। अर्थात दुख और संसार में आवागमन के चक्र में फंसना पड़ता है।
  • प्रकृति पुरूष को अपने हाव-भाव छल-कौशल द्वारा बांधकर रखती है। प्रकृति मानों नाटक की नर्तकी है।
  • इसके कारण ही वह भोग की वस्तुओं को ही अपना लक्ष्य मान लेता है और काम, क्रोध, मद, मोह आदि में ही आनंद प्राप्त करता है। यही दुख का कारण है।
  • इसी भेद को ठीक-ठीक नहीं समझ पाने के कारण पुरुष अपने को प्रकृति ही समझ लेता है। यही मिथ्या ज्ञान है।
  • मनमोहिनी उसके इस हाव-भाव, नाच-नृत्‍य, छल कौशल को पुरूष जिस दिन पकड़ लेता है, उसी दिन वह मुक्‍त हो जाता है, अर्थात सारे बंधन तोड़ देता है।
  • पुरुष निरंतर अपने बारे में चेतना प्राप्त करता है और इसी क्रम में अपने और प्रकृति के अस्तित्व के भेद का ज्ञान प्राप्त करता है।
  • प्रकृति से पुरूष की स्‍वतंत्रता या मुक्ति के विवेक को “ज्ञान” कहा जाता है।
  • “ज्ञानामुक्ति”! अर्थात ज्ञान ही मुक्ति है।
  • कठोर साधना द्वारा प्रकृति पुरूष के भोग्‍या-भोक्‍ता भाव का उच्‍छेद ही पुरूषार्थ या आत्‍यन्तिक “दुखनिवृत्ति” है।
  • अर्थात् प्रकृति को तलाक देकर ही पुरूष के जीवन में मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार से प्रकृति से सम्‍पूर्ण रूप से स्‍वतन्त्र होने का नाम ही पुरूष का “कैवल्‍य” है।
  • कैवल्य की अवस्था जब पुरुष इस चैतन्य को प्राप्त कर ले और अपने आप को शुद्ध पुरुष के रूप में समझ ले, तो इस अवस्था को कैवल्य कहते हैं। कैवल्य की अवस्था में मनुष्य सुख और दुख से ऊपर उठ जाता है।
  • चेतना के स्तर पर पहुंच जाने से दुखों की निवृत्ति हो जाती है और इसे ही मोक्ष कहते हैं।
  • मुक्‍त पुरूष को प्रकृति अपने छल बल से रिझाने नहीं आती। जिस प्रकार सभा समाप्‍त हो जाने के पश्‍चात नर्तकी पुर्णतः निढ़ाल हो जाती है और नाचने के लिए नहीं उठती, उसी प्रकार की स्थिति यह है।
  • सांख्य के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय पूजा-पाठ या किसी ईश्वर की उपासना नहीं है, बल्कि अपनी चेतना के असली स्वरूप को समझ लेना ही है।

पुरूषार्थ प्राप्ति

सांख्‍यकारों ने इसके लिए ध्‍यान, धारणा, अभ्‍यास, वैराग्‍य तपश्‍चरण आदि का पालन करने का उपदेश दिया है। सांख्‍य के साथ योग का घनिष्‍ठ संबंध है।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

त्याग पत्र -- 26

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! फिर पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! फिर शादी की सहमति ! माधोपुर से बारात चल पड़ीं है ! अब पढ़िए आगे !! -- करण समस्तीपुरी

ठाकुर जी की हवेली से लेकर शिवाला तक चंदोवा लगा था। रंगीन प्रकाशों की लडियां डूबते हुए सूरज को मुँह चिढाने लगी थी। जलवासे का प्रबंध मिडिल स्कूल पर किया गया था। शिवाला से जलवासे तक सड़क के दोनों ओर बांस के छोटे-छोटे खम्भों के सहारे लम्बे-लम्बे सफ़ेद बल्ब लगाए गए थे। राघोपुर में प्रकाश की ऐसी छटा पहले लोगों ने कभी नहीं देखी थी। भोले-भाले ग्रामीण को यह बिन-बादल इन्द्रधनुष सा लग रहा था।


ओह... ! मिडिल स्कूल पर सो गहमा-गहमी थी कि पूछिये मत। मुरली बाबू मोटर-साइकिल से गए हैं... बराती को लाने। दूर से किसी ट्रक्टर की रौशनी देख कर भी जलवासे पर व्यवस्था में लगे लोग 'हँ.... आ गयी बारात....!' कह चहल-कदमी शुरू कर देते हैं। ग्ररोर्रोर्रो.....पेपे...प.... ! अरे मुरली बाबू फटफटिया हराहराए चले आ रहे हैं। अह्हा..........! अब सच में बारात आ गयी। मिडिल स्कूल के फिल्ड में फटफटिया रुकते ही लोग चारो ओर से दौर पड़े। मुरली बाबू बुज़ुर्ग लोगों से हौले-हौले कुछ बात करते हैं। फिर सब को नाम ले के पुकारते हैं, "भोला... उत्तम...... चंदू...... हरिया.... भकतु....! अरे सब तैयार है न... ? ये देखो बारात आ गयी। ऐ लक्खन ! अरे झार-बत्ती उठाने वाला लड़का सब है न तैयार जी... !! सब तरफ से हाँ-हाँ...हाँ-हाँ की आवाज़ आती है।


फर्र...गर...गर....गर.... ! एक गाड़ी। गोएँ..........गुरर्र.... एक और गाड़ी... !! हुर्राआएं..... ये बड़ा बस... ! अरे उधर देखो... ! उधर देखो.... !! पीछे... पीछे...। जीप के पीछे..। ओह तेरे कि... ये गाड़ी तो फूलों से सजी है...। हाँ-हाँ... ! दुल्हे राजा इसी में होंगे। छोटे-बच्चे उचक-उचक कर देखने की कोशिश करते हैं। उत्सुकता तो बड़े-बुजुर्गों में भी है।


पचकोरी महतो और दोरिक चापा-कल से पानी भर-भर कर ड्राम में डाल रहा है। रुदल, अटेरन, मंगला, तपेसर और जगदीश स्टील के बड़े-बड़े जग से प्लास्टिक के ग्लास में पानी डाल कर बारातियों को पिला रहा है। एंह तोरी के.... ! ठाकुर टोल के लड़के भी लग गए हैं बारात की अगवानी में। धनेसर के हाथ में बड़का ट्रे है। ट्रे में प्लास्टिक के सफ़ेद ग्लास में लाल-पीला शरबत है। स्वरुप चौधरी के छोटे सुपुत्र खुद अपने हाथ से ग्लास उठा-उठा कर बारातियों को दे रहे हैं। कागज़ के डिजाइनदार थाली में चिनिया केला, दाल-मोंट, गुलाब-जामुन, काजू-कतरी, चन्द्रकला, बरफी, बालूशाही, रसगुल्ला, सिंघारा, अंगूर भर-भर के बारातियों को परोस रहे हैं। बारह साल का लक्ष्मण भी लगा हुआ लेकिन उसे थोड़ा आश्चर्य भी है। बराती भर पेट यहीं खा लेंगे तो घर पर बन रहे छप्पन भोग का क्या होगा ?

मिथिलांचल में कहावत है, 'विवाह से विध भारी.... !" थोड़ा सब्र कीजिये और लीजिये मिथिला की परिणय समारोह का आनंद इसी ब्लॉग पर अगले हफ्ते !!

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

आंच-13 :: भीष्म उठ निर्णय सुनाओ


भीष्म उठ निर्णय सुनाओ --आचार्य परशुराम राय

भीष्‍ठ उठ निर्णय सुनाओ कविता मानसिक हलचल ब्‍लॉग पर दिनांक 03-04-2010 को देखने को मिली और कुछ प्रतिक्रियाएं भी। पितामह भीष्‍म से भारतीय राजनीतिक परिवेश को व्‍यंजित करने का अच्‍छा प्रयास किया गया है। महाभारत कालीन राजनीतिक परिवेश आज के हमारे भारतीय परिवेश से काफी साम्‍य रखता है। आज भी राजनीतिज्ञों की प्रतिबद्धता और निष्‍ठा सबसे पहले अपने और अपने सगे संबंधियों के लिए, फिर बाद में अपनी पार्टी और संगठन के लिए समर्पित है, न कि देश के लिए या अपने देश के नागरिकों के लिए। कई ऐसी दुखद घटनाएं हुईं, जब राजनेता मीडिया के सम्‍मुख एक दूसरे पर आरोप-प्रत्‍यारोप के माध्‍यम से ही एकता की बात करते सुने गए। यद्यपि कि जिस परिवेश को कविता की भावभूमि बनाया गया है, वह नया नहीं है। लेकिन आज भी वह हमारे घाव को हरा कर रही है।कविता पढ़कर पाठक शब्‍दों की ताजगी से अभिभूत होता सा दिखता है। साथ ही प्रतिनिधि रचनाओं की शब्‍द योजना पर ध्‍यान देने की आवश्‍यकता है ।


इस रचना को कविता न कहकर गीत कहना चाहिए वैसे भाषा में ताजगी पैदा करने का प्रयास किया गया है। कुछ प्रयोग बहुत अच्‍छे हैं, जैसेः-धर्म की कोई अघोषित व्‍यंज्‍जना मत बुदबुदाओ। यह आज के राजनेताओं द्वारा प्रदर्शित विरोध और समर्थन के अस्तित्‍वहीन कारणों को बहुत ही सुन्‍दर ढंग से व्‍यंजित करता है।


पांडवों को भारतीय जनमानस का प्रतिनिध अथवा राजनीतिक पार्टियों के सुबुद्ध और चिन्‍तक राजनेताओं की ओर संकेत कर अच्‍छा प्रयोग किया गया है। वैसे महाभारत में पाण्‍डवों की अपेक्षा पितामह धर्मसंकट से अधिक घिरे हैं और आज के पितामह भी। पाण्‍डव तब भी मजबूर थे और उनकों व्‍यंजित करने वाले अथवा रूपक भारतीय जनमानस या नागरिक भी उसी प्रकार मजबूर। अनेक राजनीतिक दलों और बनती-बिगड़ती सरकारों ने उन्‍हें किंकर्तव्‍यविमूढ़ स्थिति में लाकर खड़ा कर रखा है। नैतिकता के नाम पर कभी प्रजातंत्र का भूत खड़ा कर दिया जाता है, तो कभी धर्मनिरपेक्षता का। द्रौपदी की चीख पर भी हास्‍यप्रद अभिनय देखने को मिलता है। एक पक्ष नारियों के उत्‍पीड़न पर आंसू बहाने का अभिनय करता है, तो दूसरा दुर्योधन अर्थात उत्‍पीड़कों के समर्थन में तर्कावलि प्रस्‍तुत करता है और हम भारतीय नुक्‍कड़ों पर उनकी चर्चा में टाइम पास करते है। सरकारी तंत्र का इस चर्चा में समय व्‍यतीत हो जाता है। देश की सबसे बड़ी संस्‍था संसद में असभ्‍यता का जो स्‍वरूप देखने को मिलता है, वह मामा शकुनि के पासे के खेल के परिणामस्‍वरूप भरी सभा में द्रौपदी के चीर हरण से कम नहीं लगता। ये भी अपनी असभ्‍यता को सभ्‍यों की तर्कशैली अपनाए हुए मीडिया के सम्‍मुख दिखते हैं और अपने कृत्‍य पर स्‍वयं अपनी पीठ ठोंक लेते हैं। यह बहुत निराशाजनक है कि जिन्‍हें हम निर्वाचित कर अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, उनमें से अधिकांश दुर्योधन से भी गिरे हुए हैं। उनकी प्रतिबतद्धता देशवासियों के सरोकार के प्रति नहीं, बल्कि अपने स्‍वार्थ के प्रति है। अब तो निराशा इतनी बढ़ गई है कि पाण्‍डव नजर ही नहीं आते या यो कहिए कि उनमें भी दुर्योधन ही दिखाई पड़ते हैं। सत्तर के दशक में इसी निराशा के परिणामस्‍वरूप मैंने तो कृष्‍ण तक पर व्‍यंग्‍य कर डाला था –

बिक गए सुयोधन के हाथों

ये कृष्‍ण नई कुछ शर्त लिए

वह खोज रहा है अर्जुन को

अपने कर में गांडीव लिए ।

­­­.................................

पता नहीं वह यक्ष कौन है

जिसकी माया के बल से

मुर्दा बना भीम है लेटा

और युधिष्ठिर ठगे खड़े

इस प्रकार कवि ने भीष्‍म उठ निर्णय सुनाओ कविता के माध्‍यम से भारतीय जनमानस की पीड़ा को व्‍यंजित करने का जोरदार प्रयास किया है। इस पीड़ा के प्रति कवि का क्षोभ भी पूरी कविता में परिव्‍याप्‍त है और अपने क्षोभ के तरह-तरह के तीखे वचनों से कवि हर पंक्ति में बार बार पितामह भीष्‍म के सुप्‍त पौरूष को जगाने का अथक प्रयास करता दिखता है। यहाँ तक कि अन्‍त में पितामह भीष्‍म से निर्णय की याचना करते हुए महर्षि व्‍यास का आवाहान कर नए भारत के सृजन की बात कह बैठता है, अर्थात् नए निर्माण के प्रति कवि की आशान्विता प्रशंसनीय है।


उक्‍त सभी बातों के होते हुए भी कवि के क्षोभ की उग्रता के कारण कुछ प्रयोगों की ओर बरबस ध्‍यान आ‍कर्षित हो जाता है, जैसे – विदुर की तुम न्‍यायसंगत सीख सुनते क्‍यों नहीं, भीष्‍म उठ निर्णय सुनाओं आदि यहां हम भीष्‍म को न्‍यायाधीश के रूप में मान रहे हैं। न्‍यायधीश से उठकर निर्णय सुनाने की बात कहना या विदुर की सीख सुनने जैसी बात से बेहतर होता ‘सीख’ के स्‍थान पर ‘बात’ शब्‍द का प्रयोग सार्थक होता और उठ के स्‍थान पर अब। इसी प्रकार “हृदय में लौह पालना” नया मुहावरा अर्थ को दिशा देने में समर्थ नहीं हो सका है। वैसे बड़े समर्थ कवियों ने प्रचलित मुहावरों को भी अपनी रचनाओं में बड़े ही आकर्षक ढंग से प्रयोग किया है, विशेषकर संत महाकवि गोस्‍वामी तुलसीदस जी का नाम उल्‍लेखनीय है।


दूसरे बंद में व्‍यर्थ की अनुशीलना में आत्‍म अपना मत तपाओ पंक्ति में अनुशीलना के स्‍थान पर ‘अनुशीलन’ का प्रयोग ठीक रहता। इस पंक्ति में व्‍याकरण संबंधी दोष आत्‍म में आया है। क्‍योंकि आत्‍म विशेषण या समास में उपसर्ग के रूप में प्रयुक्‍त होता है, जबकि यहां संज्ञा के रूप में प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्‍त कई स्‍थानों पर कविता में प्रवाह (प्रांजलता) अवरूद्ध हो गया है। अन्‍य कुछ शब्‍द-योजनागत दोष भी है, जिनसे थोड़ा सजग होकर बचा जा सकता था।