बुधवार, 30 जून 2010
देसिल बयना - 36 : खस्सी की जान गयी, खाने वाले को स्वाद नहीं
मंगलवार, 29 जून 2010
देखो बह न जाएं कहीं ये अश्क के मोती
देखो बह न जाएं कहीं ये अश्क के मोतीहरीश प्रकाश गुप्त |
देखो बह न जाएं कहीं
ये अश्क के मोती।
उद्वेगों के समन्दर में
व्यथाओं का
हुआ मंथन
शिराएं जब हुईं आहत
बहीं/बन-
जलधार अन्तर से।
सहना
है बड़ा दुश्वर
पदाहत इनके होने का
न कोई मोल जाने
जब ये ढुलकें
बन जल बूँद नयनों से।
हृदय की पीर से
उपजी है धारा
कौन ये समझे,
वेदनाओं के उदधि से
फूट करुणा -
मेघ बन बरसे।
सम्भालो इनको
रख लो तुम
सुनहरे पल के
आँचल में
बिखेरो खुशबुओं के साथ
चम्पा और चमेली के।
सोमवार, 28 जून 2010
मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें!!
मेरे छाता की यात्रा कथाऔरसौ जोड़ी घूरती आंखें!!--- --- मनोज कुमार |
---तीन---
मैं जब घर से निकलता हूँ तो सड़क के उस पार टूटी-फूटी सी एक झोपड़ी के दरवाज़े पर मेरी आंखें अनायस ही ठिठक जाती है। दफ्तर जाते समय उसमें रह रही बुढि़या कभी कभार दिख जाती भी है, पर आज नहीं दिखी। शायद अपने काम पर होगी!
दस बजते बजते धूप काफी चढ़ आई थी। धूप से बचने के लिए सिर पर छाता ताने मैं विक्टोरिया के पास से गुजर रहा था कि वह दिख गई। फुटपाथ पर एक प्लास्टिक की चट्टी बिछाए भीख मांग रही थी।
धूप, उमस और गर्मी में उसे बेहाल देख मुझे उस पर दया आ गई। मैं उसकी तरफ बढ़ा और अपना छाता उसे देकर बोला, “इसे रख लो! सिर पर छांव रहेगी।”
विक्टोरिया मेमोरियल घूमने आए पर्यटक और राह चलते राहगीरों की लगभग सौ जोड़ी आंखे मेरे इस कृत्य को देख रही थी। मुझे उनमें सराहना का भाव लगा। मैंने अपनी पीठ ठोंकी और मस्त क़दम से आगे बढ़ गया।
दफ्तर से शाम को घर की वापसी में विक्टोरिया के पास से गुज़र रहा था तो सड़क की दूसरी तरफ़ से आवज़ आई, “ए बाबू!..”
मैंने देखा वही बुढिया मेरी ओर लपकी आ रही थी। मैं कुछ बोलता, उससे पहले ही वह बोल पड़ी, “बाबू ये रख लो!” उसने मेरा छाता मेरी ओर बढाते हुए कहा, “न मुझे तुम्हारा छाता चाहिए न इसकी छांव! ये मेरी किसी काम का नहीं!!”
मैंने पूछा, “क्यों? क्या हुआ?”
उसने कहा, “अरे बाबू! जिस किसी से भी मांगती वही बोल पड़ता देखो कैसी है बुढि़या, छाता लगाकर बैठी है, और ढीठ की तरह भीख मांग रही है। आज तो मेरा धंधा ही चौपट हो गया।” इतना कहकर उसने छाता मेरी तरफ़ बढ़ा दिया, मेरा हाथ नहीं बढ़ता देख उसे ज़बर्दस्ती मेरे हाथ में थमाया। और वहां से उल्टे पांव लौट पड़ी।
मैंने देखा वहां मौज़ूद लोगों की लगभग सौ जोड़ी आंखें मुझे घूर रही थी, जैसे उस बुढिया को धूप से बचाने के लिये छाता देकर मैंने कोई अपराध कर दिया हो। मैंने छाता की तरफ देखा और अनायास मेरे मुंह से निकला “तू एक गरीब के काम नहीं आ सकता।”
रविवार, 27 जून 2010
काव्यशास्त्र-२१
काव्यशास्त्र-२१ ::आचार्य अरिसिंहऔर आचार्य अमरचन्द्र - आचार्य परशुराम राय |
आचार्य राम चन्द्र गुणचन्द्र की भाँति आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र का नाम प्रमुख है। ये दोनों एक ही गुरु आचार्य जिनदन्त सूरि के शिष्य हैं और जैन आचार्यों की परम्परा में आते हैं।
काव्यशास्त्र के क्षेत्र में इन दोनों आचार्यों ने मिलकर 'काव्यकल्पलतावृत्ति' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ की रचना पूर्ववर्ती परम्परा से हटकर की गई है। इसका प्रतिपाद्य विषय कविशिक्षा है अर्थात् इसमें काव्य के गुण, दोष, अलंकार आदि का निरूपण न करके, काव्य रचना के नियमों का विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ चार प्रतानों में विभक्त है और इनमें छन्दसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि और अर्थसिद्धि के उपायों का निरूपण मिलता है।
इसके अला वा दोनों आचार्यों के स्वतंत्र रूप से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं।
आचार्य अरिसिंह ने अपने मित्र वस्तुपाल जैन, जो गुजरात के ढोलकर राज्य के मंत्री थे, की प्रशंसा में 'सुहत्सकीर्तन' नामक एक काव्य लिखा।
आचार्य अमरचन्द्र ने 'काव्यकल्पलतावृत्ति' में अपने तीन ग्रंथों का उल्लेख किया हैं - छनदोरलावली, 'काव्यकल्पलतावृत्ति' और अलंकारप्रबोध।
अन्तिम दोनों ग्रंथों का सम्बन्ध भी काव्यशास्त्र से है। इनका एक 'जिनेन्दचरितम्' नामक ग्रंथ भी मिलता है। यह 'पद्यानन्द' के नाम से भी जाना जाता है।
आचार्य देवेश्वर
चौदहवीं शताब्दी में आचार्य युगल अरिसिंह अमरचन्द्र के बाद जैन विद्वान आचार्य देवेश्वर का नाम आता है। इनके द्वारा 'कविकल्पलता' नामक ग्रंथ की रचना की गई, जिसमें मामूली से शैली भेद के साथ आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र द्वारा विरचित 'काव्यकल्पलतावृत्ति' का अनुकरण मात्र है। यही कारण है कि यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के क्षेत्र में अपना कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाया।
*** ***
पिछले अंक
|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट||, || 8. आचार्य वामन ||, || 9. आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट ||, || 10. आचार्य आनन्दवर्धन ||, || 11. आचार्य भट्टनायक ||, || 12. आचार्य मुकुलभट्ट और आचार्य धनञ्जय ||, || 13. आचार्य अभिनव गुप्त ||, || 14. आचार्य राजशेखर ||, || 15. आचार्य कुन्तक और आचार्य महिमभट्ट ||, ||16. आचार्य क्षेमेन्द्र और आचार्य भोजराज ||, ||17. आचार्य मम्मट||, ||18. आचार्य सागरनन्दी एवं आचार्य (राजानक) रुय्यक (रुचक)||, ||19. आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य रामचन्द्र और आचार्य गुणचन्द्र||, ||20. आचार्य वाग्भट|| |
शनिवार, 26 जून 2010
गंगावतरण भाग-चार
--- --- मनोज कुमार
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अब आगे … समापन किस्त
भगीरथ घर छोड़कर हिमालय के क्षेत्र में आए। इन्द्र की स्तुति की। इन्द्र को अपना उद्देश्य बताया। इन्द्र ने गंगा के अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की। साथ ही उन्होंने सुझाया कि देवाधिदेव की स्तुति की जाए। भागीरथ ने देवाधिदेव को स्तुति से प्रसन्न किया। देवाधिदेव ने उन्हें सृष्टिकर्ता की आराधना का सुझाव दिया। क्योंकि गंगा तो उनके ही कमंडल में थी।
दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर ब्रह्मा की कठिन तपस्या की। तपस्या करते करते कितने ही वर्ष बीत गये। ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर लेजाने का वरदान दिया।
प्रजापति ने विष्णु आराधना का सुझाव दिया। विष्णु को भी अपनी कठिन तपस्या से भागीरथ ने प्रसन्न किया। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रयत्न से संतुष्ट हुए। और अंत में भगीरथ ने गंगा को भी संतुष्ट कर मृत्युलोक में अवतरण की सम्मति मांग ली।
विष्णु ने अपना शंख भगीरथ को दिया और कहा कि शंखध्वनि ही गंगा को पथ निर्देश करेगी। गंगा शंखध्वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिल गंगा।
ब्रह्म लोक से अवतरण के समय, गंगा सुमेरू पर्वत के बीच आवद्ध हो गयी। इस समय इन्द्र ने अपना हाथी ऐरावत भगीरथ को दिया। गजराज ऐरावत ने सुमेरू पर्वत को चार भागों में विभक्त कर दिया। जिसमें गंगा की चार धाराएं प्रवाहित हुई। ये चारों धाराएं वसु, भद्रा, श्वेता और मन्दाकिनी के नाम से जानी जाती है। वसु नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा नाम की गंगा उत्तर सागर, श्वेता नाम की गंगा पश्चिम सागर और मंदाकिनी नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मृत्युलोक में जानी जाती है।
सुमेरू पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग से पृथ्वी पर अवतरित होने लगी। वेग इतना तेज था कि वह सब कुछ बहा ले जाती। अब समस्या यह थी कि गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा? ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है। इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह किया जाये। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खडे होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। गंगा के प्रबल वेग को रोकने के लिए महादेव ने अपनी जटा में गंगा को धारण किया। इस प्रकार गंगा अपने अहंभाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर की जटा में जकड़ी रही।
भगीरथ ने अपनी साधना के बल पर शिव को प्रसन्न कर कर गंगा को मुक्त कराया। भगवान शंकर पृथ्वी पर गंगा की धारा को अपनी जटा को चीर कर बिन्ध सरोवर में उतारा। यहां सप्त ऋषियों ने शंखध्वनि की। उनके शंखनाद से गंगा सात भागों में विभक्त हो गई। मूलधारा भगीरथ के साथ चली। महाराज भागीरथ के द्वारा गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल कल का विनोद स्वर करतीं हुई मैदान की तरफ़ बढीं। आगे आगे भागीरथ जी और पीछे पीछे गंगाजी। यह स्थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है।
हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करते हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जह्नु मुनि के आश्रम पहुँची। भगीरथ की बाधाओं का यहां भी अंत न था। संध्या के समय भगीरथ ने वहीं विश्राम करने की सोची। परन्तु भगीरथ को अभी और परीक्षा देनी थी। संध्या की आरती के समय जह्नु मुनि के आश्रम में शंखध्वनि हुई। शंखध्वनि का अनुसरण कर गंगा जह्नु मुनि का आश्रम बहा ले गई। ऋषि क्रोधित हुए। उन्होंने अपने चुल्लु में ही भर कर गंगा का पान कर लिया। भगीरथ अश्चर्य चकित होकर रह गए। उन्होंने ऋषि की प्रार्थना शुरू कर दी। प्रार्थना के फलस्वरूप गंगा मुनि के कर्ण-विवरों से अवतरित हुई। गंगा यहां जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
यह सब देख, कोतुहलवश जह्नुमुनि की कन्या पद्मा ने भी शंखध्वनि की। पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा के साथ चली। मुर्शिदाबाद में घुमियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुई। गंगा की धारा पद्मा का संग छोड़ शंखध्वनि से दक्षिण मुखी हुई। पद्मा पूर्व की ओर बहते हुए वर्तमान बांग्लादेश को गई। दक्षिण गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पहुँची। ऋषि ने वारि को अपने मस्तक से लगाया और कहा, हे माता पतितपावनी कलि कलुष नाशिनी गंगे पतितों के उद्धार के लिए ही आपका पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधग्नि के शिकार हुए। आप अपने पारसरूपी पवित्र जल से उन्हें मुक्ति प्रदान करें। मां वारिधारा आगे बढ़ी। भस्म प्लावित हुआ। सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। वारिधारा सागर में समाहित हुई। गंगा और सागर का यह पुण्य मिलन गंगासागर के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ।
कबीर जयन्ती … पर
कबीर जयन्ती … पर
--- --- मनोज कुमार
हमारे देश के हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही वेदों पर आधारित परंपरा मान्य रही है। मध्यकाल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। जातियों में विभाजित समाज में हर तरह का भेद-भाव विद्यमान था। मनुष्यता स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच एवं अनेक धर्मों में बंटी हुई थी। छुआछूत के कठोर नियम थे। ईश्वर की उपासना एवं मोक्ष प्राप्ति में भी भेद-भाव था। वैदिक कर्मकांड तथा ॠढिवादिता से स्थिति बड़ी जटिल थी। समय-समय पर इस व्यवस्था के प्रति प्रतिक्रियाएँ जन्म लेती रहीं। ये प्रतिक्रियाएँ रूढिवादी समाज में परिवर्तन के लिए अल्प प्रयास ही साबित हुईं। किन्तु चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता एवं रूढिवादिता पर आधारित धर्मांधता को चुनौती दी।
समय-समय पर संत, विचारक और सुधारक भक्ति-मार्गी विचारधारा के द्वारा सुधारों का प्रयास करते रहे और यह एक आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन से संतों का एक नया वर्ग आगे आया। जातिप्रथा, अस्पृश्यता और धार्मिक कर्मकांड का विरोध कर सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाओं में सुधार इनका लक्ष्य था। इस आंदोलन के संतों ने अनेक जातियों एवं सम्प्रदायों में विभक्त समाज, अनेक कुसंस्कारों से पीड़ित देश, सैंकड़ों देवताओं और आडंबरों एवं कट्टरता में उलझे धर्म, के भेद-भाव की दीवार को ढहाने का एक सार्थक प्रयास किया। संतों ने समाज में लोगों के बीच वर्तमान आपसी वैमनस्य को मिटाने और सामाजिक वर्ग विभेद को समाप्त कर सबको समान स्तर पर लाने का प्रयास किया।
इन्हीं संतों में से एक थे संत कबीर। महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। "कबीर- चरित्र- बाँध'' में कहा गया हौ कि संवत् चौदह सौ पचपन (१४५५) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, निर्गुणपंथी संत कबीर का जन्म हुआ। वे भक्त संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अंधविश्वास, कुरीतियों और रूढिवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम-रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों दर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई।
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।
वे मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करते थे। वे भेद-भाव रहित समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्वास प्रकट किया। एकेश्वरवाद के समर्थक कबीर का मानना था कि ईश्वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। कबीर दास जी के अनुयाई कबीरपंथी कहलाए। उनके उपदेशों का संकलन बीजक में है।
संत कबीर का मानना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ़ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। पुजारी वर्ग कर्मकांड पर अधिक ज़ोर देकर भेद पैदा करते हैं।
माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर।
कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर।।
उनका यह भी मानना था कि जाति प्रथा उचित नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। वे एक आलोचक थे। उनका मानना था कि समाज की रूढिवादिता एवं कट्टर्वादिता की निन्दा करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। कबीर को अपने समाज में जो मान्यतजा मिली वह प्रमाण है कि वे अपने परिवेश की ही उपज थे। वह समय भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। इस आधुनिकता का बीज यहां की परंपरा से ही अंकुरित हुआ था। वर्णव्यवस्था की परंपरा से जकड़ा समाज जाति-पाति से मुक्ति की आवाज उठा रहा था। सामाजिक अन्याय के प्रति रोष इस संत की रचनाओं में व्याप्त है। कबीर मूलतः कवि हैं। उनकी काव्य संवेदना में प्रेम, मृत्यु और समाज एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। कबीर हिंदी के महान कवियों में से हैं।
संत कबीर दास महान चिन्तक, विचारक और युग द्रष्टा थे। वे ऐसे समय में संसार में आए जब देश में नफरत और हिंसा चारों तरफ फैले हुए थे। हिंदु-मुसलमानों, शासक-प्रजा, अमीर गरीब के देश-समाज बंटा हुआ था, गरीबी और शोषण से लोग त्रस्त थे। ऐसे समय में संत कबीर ने धर्म की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि अत्याचारियों से समझौता करना और जुल्म सहना गलत है। उन्होंने समाज में उपस्थित भेदभाव समाप्त करने पर बल दिया। दोनों समुदाय को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। उन्होंने कहा था,
वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिए।
कोई हिंदू कोई तुर्क कहावं एक जमीं पर रहिए।
कबीर की सामाजिक चेतना उनकी आध्यात्मिक खोज की परिणति है। उनकी रचनाओं का गहन अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि वे धर्मेतर अध्यात्म का सपना देखने वाले थे। ऐसा अध्यात्म जो मनुष्य सत्ता को ब्रह्मांड सत्ता से जोड़ता है। उन्होंने धर्म की आलोचना की। वे जब हिंदू या मुसलमान की आलोचना करते हैं तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कोई नया धर्म प्रवर्तन करना चाहते थे।
धर्म के नाम पर व्याप्त आडम्बर का वे सदा विरोध करते रहे। धार्मिक कुरीतियों को उनहोनें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया। साधक के साथ-साथ वे विचारक भी थे। उनका मानना था कि इस जग में कोई छोटा और बड़ा नहीं है। सब समान हैं। ये सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिस्थिति की देन है। हम सब एक ही ईश्वर की संतान है।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
आज भी इस संसार में हिंसा, आतंक, जातिवाद आदि के कारण निर्दोष लोगों पर अत्याचार हो रहे हैं। ऐसी भयावह परिस्थिति में कबीर ऐसे युगप्रवर्तक की आवश्यकता है जो समाज को सही राह दिखाए। कबीर तो सच्चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। पर आज वह सेतु भग्नावस्था में है। इसके पुनः निर्माण की आवश्यकता है। कबीर के विचार समाज को नई दिशा दिखा सकता है।
शुक्रवार, 25 जून 2010
त्याग पत्र -35
त्याग पत्र -35
पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, 'कैसे रामदुलारी तमाम विरोध और विषमताओंकेबावजूद पटना आकर स्नातकोत्तर तक पढाई करती है। बिहार के साहित्यिक गलियारे मेंउसका दखल शुरू ही होता
धीरे-धीरे इसी तरह समय बीतता गया। रामदुलारी अपनी पढ़ाई की भूख मिटाती रही। कुछ और महीनों के बाद एक पुत्र की मां भी बन गई। बांके के न चाहने के बावजूद भी उसने शिक्षिका की नौकरी स्थानीय स्कूल में हासिल कर लिया था। उसकी जीवन चर्या बदल चुकी थी। उसका बच्चा प्रायः राधोपुर बाबू-मैय्या के पास ही रहता था। स्कूल और पढाई की जिम्मेदारियों के निर्वाह में बच्चे को उचित समय न दे पाती थी, इस लिए दिल पर पत्थर रखकर उसने यह निर्णय लिया था।
अभियंताओं की जिंदगी भी इधर-उधर भटकन भरी होती है। खास कर जब किसी विशेष परियोजना पर काम चल रहा हो तो। बांके को महीने-दो-महीने के लिए शहर से बाहर रहना होता था। इन दिनों रामदुलारी उसकी प्रतीक्षा में घुलती रहती थी। उसका मन मुरझाया रहता था। लेकिन बांके के आते ही उसके स्नेहहीन व्यवहार से मन के प्रसून सूख ही जाते थे। उसे लगता बांके उसके जीवन सरिता की अबाध गति से बहती स्वच्छंद धारा को कुण्ठित कर अंध-कूप बना देना चाहता था। दो मीठे बोल की प्यासी रामदुलारी के वियोग की तड़प और बढ़ जाती थी।
“महीने बाद आए हो, दो मीठे बोल नहीं बोल सकते।”
“तुम्हें ही मेरा आना नहीं सुहाता। साइट पर शरीर-तोड़ परिश्रम के बाद घर में शांति की शीतल छाया चाहता हूँ, तुम्हारी शिकायतों का पुलंदा नहीं चाहिए मुझे।”
“मैं अकेली यहां तरह-तरह के दुःख-तकलीफ झेलती हूँ। तुम्हें नहीं कहूँगी, तो किसे कहूँगी………?”
रामदुलारी फूट-फूट कर रो पड़ती। “जब देखो तब रो-रो कर मेरा सर खाने लगती हो तुम। यदि यहां का अकेला प्रवास तुम्हें भारी पड़ता हो तो चलो मेरे साथ वहीं साइट पर ही रहना।”
“तुम जानते हो मैं यहां अपना काम छोड़कर नहीं जा सकती। स्कूल खुले हैं।”
“तुम्हें काम करने को कौन कहता है? छोड़ दो नौकरी।”
“तुम चाहते ही हो को मैं तुम्हारी इच्छानुसार ही चलूँ। मेरा अपना अस्तित्व है। मेरे अपने विचार भी हैं।”
विचारों की टकराहट, अंतरबोध का संघर्ष चलता ही रहा। इस टकराहट को विराम देने के लिए बांके ने निर्णयात्मक स्वर दिया, “जानती हो तुम किससे बात कर रही हो? मैं तुम्हारा पति हूँ। मेरी इच्छा के बाहर तुम्हारा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।”
“तुमने मेरी सांसो पर भी पहरा बिठा रखा है। ऐसा करो, वैसा मत करो। मानों मैं तुम्हारी अर्द्धांगिनी नहीं, यंत्र-चलित मशीन हूँ, जिसका रिमोट तुम्हारे हाथ में हो।”
रामदुलारी आस लगाए रहती कि कभी तो बांके में परिवर्तन आएगा। सारी तकरार के बाद वह चुप हो जाती। मन के गहनतम अंधेरे में क्षीण-सी ज्योति की किरण बची रहती। शायद बांके के हृदय में कभी पश्चाताप की आभा फूटे। पर वह प्रभात कभी नहीं आया। क्या वह स्वयं में परिवर्तन करे? क्या उन सिद्धांतों की तिलांजलि दे जो नारी स्वातंत्र्य के नाम पर उसने बुन रखें हैं? क्या वो एक जाल नहीं बुनचुकी है अपने ईर्द-गिर्द? मकड़ी की तरह। अब उससे निकलना संभव नहीं है उसके लिए।
रामदुलारी सोचती नारियों का जीवन कैसा होता है? सदैव किसी आश्रय पर निर्भर। एक आंगन में पलती है, बढ़ती है। वह नन्हा पौधा जब बड़ा होता है, अपनी जड़े जमाना आरंभ करता कि जड़ सहित उखाड़कर दूसरे स्थान पर उसका वृक्षारोपण कर दिया जाता है। लेकिन कोई भी वृक्ष दूसरे स्थान पर लगाए जाने पर वहां पहले स्थान की तरह फल-फूल नहीं दे पाता। उसी तरह तो नारी जीवन भी है। जीवन तो कटता रहता है, परंतु मन न जाने कहीं और भटकता रहता है। किसी और तलाश में। किसी और दुनियां में।
एक बार तो बांके ने टोक भी दिया था, “ये तुम कहां खोई रहती हो? क्या सोचती रहती हो?”
“यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा ।” रामदुलारी जवाब दिया था।
“अपनी बात तो केवल तुम्ही समझती हो। मुझे क्यों समझने दोगी?” …..बांके का स्वर रूखा हो गया,….. “जो स्वयं उचित समझो करो। मुझे क्या लेना-देना?” बांके चला गया।
पर रामदुलारी क्या करे? वह कहां जाए? ये परिवार, ये बच्च। क्या इन सबों को छोड़ पाएगी वह? जिसे वह पाना चाहती है वह मुक्ति संभव नहीं है। इनकी बात मानने के अलावा चारा ही क्या है? ….. गृहस्थी ने तो पैरों में बेड़िया डाल दी है। आठ से पांच की नौकरी करते, गृहस्थी, सास-ससूर, पति-देवर, बाल बच्चों के दायित्वों को निबाहते हुए, बच्चों का लालन-पालन, पति को प्यार-मनुहार करते हुए, पति, सास, ससुर के आदेश मानते हुए, जीवन के सभी दुःख सुख के बीच इसी तरह जीवन जब गुजारना ही है तो ……संघर्ष क्यों?
गुरुवार, 24 जून 2010
आंच (23) पर नदिया डूबी जाए
आंच (23) परनदिया डूबी जाए--- --- मनोज कुमार |
मैं प्रसन्न हूँ कि आचार्य परशुराम राय का की कविता की समीक्षा मैं कर रहा हूं। अचार्य राय को मैं वर्षों से जानता हूँ। मेदक (आं.प्र.) में उनके साथ काम किया था मैंने। उनके साथ जीवन-दर्शन पर, बातचीत कर ह्मेशा कृतार्थ हुआ, और उनकी ऊर्जा से ऊज्र्वसित हुआ, रोमांचित हुआ। आचार्य परशुराम राय ‘लोक-सत्य के आग्रह से उद्दीप्त व्यक्तित्व’ का नाम है। उनके व्यक्तित्व में एक अक्खड़पन है। इसी अक्खड़ कवि-व्यक्तित्व की साधना का समुच्चय है कविता नदिया डूबी जाए। जिसमें उनके अक्षर-व्यक्तित्व, उनके वागर्थ-वैभव की छटा खूब-खूब निखारी है।
किसी कवि को ठीक-ठीक जान पाना बड़ा कठिन होता है। उसकी केवल एक कविता को पढ़कर उसे जान लेने का भ्रम भले ही हो, पर ऐसा जानना सर्वदा सही नहीं होता। कविता समय होती है और समय की पहचान भी। कविताएँ पढ़कर आप तत्कालीन समय को भले जान लें, पर कवि को, जो कविता का अतीत जीता है, वर्तमान भुगतता है और भविष्य के प्रति आश्वस्त होने के लिए स्वयं को ऊर्जस्वित करता है, समग्ररूपेण जानना सहज और सरल नहीं होता। यथार्थ के धरातल पर हुए अनुभव को समेटे इस कविता में बहुत गहरा व्यंग्य है। जो अपने से बड़ों का अपमान करते हैं, वह भी अकारण, उनकी नदी नाव में डूबेगी ही। यही इस कविता का सार है। उनकी, खुद को आइना दिखाती, कविताएँ इतनी सशक्त और समृद्ध हैं कि उनको एक ‘अच्छा कवि’ मानने के लिए मैं विवश हो उनकी यह कविता पढकर मुझे कबीर याद आते हैं। हालाकि उन्होंने इसका शीर्षक कबीर के दोहे से ही लिया है।
सिर से पैर तक मस्त मौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, चाहने वालों के साथ निरीह, बनने वालों के आगे प्रचण्ड, दिल से साफ, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, ऐसे हैं हमारे आचार्य परशुराम राय। कुछ कम-कुछ अधिक कबीर की तरह। अभूतपूर्व एवं अभिनव कवि-प्रतिभा की दृष्टि से देखें, तो एक विद्रोही कवि के रूप में राय जी समोद्भूत होते हैं कविता-प्रांगण में।
कविता का प्रारम्भ ही चमत्कृत करने वाले बिम्बों से होता है-
किस अचेतन की तली से
चेतना ने बाँग दी, कि
काल का घेरा कहीं से
टूटने को आ गया है।
शब्द वही हैं पर प्रयोग की विशिष्टता अर्थ को नई आभा प्रदान करती है। चेतना कभी पूर्ण सुप्त नहीं होती, जब तक जीवन है, वह सूक्ष्म रुप में विद्यमान रहती है और समय आने पर झकझोरती है, उद्वेलित करती है। “किस अचेतन की तली” में एक तो अचेतन वह भी तली अर्थात नितांत गहराई में, “चेतना ने बांग दी” अर्थात वहां भी अंतरद्वन्द्व की गूंज स्पष्ट विद्यमान थी। व्यतिरेक की प्रतिमानों से अर्थ का ऐसा अभिनव प्रवर्तन कम ही देखने को मिलता है।
कविता का स्वर विद्रोही है। आधुनिक विकास के द्वन्द्व एवं पाखण्ड को उजागर करती यह कविता विद्रोह से भरी हुई जन चेतना की आवाज को तो बुलन्द करती ही है, भविष्य के प्रति नियति को चुनौती देने की हद तक, आश्वस्त भी कराती है।
काव्य का आदि कारण है वेदना.... ! ‘आदिम इच्छा के एक फल.....’ सांसारिक लालसा का प्रतीक है। मिथ्या मोहपास मे आबद्ध इस जग की विपरीत वारि में नैय्या में नदिया न डूबे तो क्या हो.... ? इस मिथ्या इच्छापूर्ति के अहसास और परिणाम में कवि ‘काट रही सजा, सृजन के कारागार में, अब बाहर निकलकर आ गई’ कह सर्जनात्मक निकष खोज लेता है।
बिम्ब अद्भुत हैं, पारम्परिक नहीं है – सर्वथा नवीन से हैं और जिस तरह शब्द-योजना में उन्हें पिरोया गया है, वह गहरा प्रभाव देते प्रतीत होते हैं। व्यंग्य में प्रयुक्त प्रतीक व उपमाएं नए से लगते हैं और हैं बिलकुल सटीक। ‘आदिम इच्छा के / मात्र एक फल चख लेने की / काट रही सजा’ जैसे वाक्यांशों में निहित भाव विस्तार व नवीन अवधारणाएं हृदयग्राही हैं। कवि का दृष्टिकोण रूमानी न होकर यथार्थवादी है। कविता में प्रांजलता पूरी तरह बनी हुई है।
सोच तो लेते ,
कि मुक्त शीतल मन्द पवन
जब भी करवट बदलेगा
महाप्रलय की बेला में
हिमालय की गोद भी
शरण देने से तुम्हें कतराएगी।
यहाँ कवि दृढ़ प्रतिज्ञ हैं और वह मार्ग दिखलाने वाले निर्देशक कि भाँति आगाह करता है। वचन कठोर हो सकते हैं लेकिन एक हितैषी की मंगलकामना वाली वाणी के समान हैं। कविता में भावोत्कर्ष प्रवाहित करने में रायजी को महारत हासिल है। उनकी यह कविता पढ़कर पाठक दूसरी दुनिया में पहुंच जाता है।
इस रचना में जीवन में तात्कालिक परिस्थितियों से आंदोलन, लाखों युवकों की बेरोजगारी के दंश से पीड़ित, लालफीताशाही, सांप्रदायिकता, घूसखोरी, अफसरशाही के खिलाफ सही और निर्भीक इजहार है। कवि ने इस कविता के माध्यम से देश की खोखली होती जा रही व्यवस्था और हालात का पर्दाफाश किया है। यह कविता आज की भारतीय राजनीति के स्वरूप को उद्घाटित करती है जहां राजनीतिज्ञों तथा उनकी संतानों की प्रतिबद्धता केवल अपनी पार्टी और संगठन के प्रति है। जो प्रजा उनको चुनकर भेजती है उसको केवल नीति, धर्म और न्याय आदि का उपदेश देकर कर ही जनता के समक्ष अपनी उदारता व्यक्त करते हैं। किंतु देश के प्रति, प्रजा के प्रति कितनी निष्ठा और चिंता है वह जग ज़ाहिर है।
लेकिन कवि स्वयं के व्यक्तिवादी ना होने की पुरजोर स्थापना करता हैं साथ ही निरपेक्षता भी प्रस्तुत करता है। उसका उद्देश्य व्यापक है, परिक्षेत्र व्यापक हैं। कोरा निदेशन ही नहीं है। भावनाओं का आवेग है, करुणा है, आत्मीयता है और इन सबसे ऊपर समाज को परिणाममूलक दिशा प्रदान करने का उद्देश्य भी है। यह व्यंजना बहुत ही चमत्कृत करने वाली और हृदयस्पर्शी है-
मेरे तो सौभाग्य और दुर्भाग्य की
सारी रेखाएं कट गईं,
संस्कारों का विकट वन
जलाने से निकले श्रम सीकर
अभी तक सूखे नहीं”
बन्धन मेरी सीमा नहीं,
मात्र बस ठहराव था।
साथ बैठकर रोया कभी
तो मोहवश नहीं
करुणा की धारवश।
रचना में न तो अनिश्चय है और न अस्तव्यस्तता। कवि ने अपनी सबसे अलग और वजनदार आवाज से ‘चुप’ रहे लोगों को अपनी वाणी दी है, उन्हें ऊर्जस्वित किया है। जो मनुष्य को पलायन या वैराग के राग से नहीं, अपितु मनुष्य में कर्मों के प्रति संघर्ष-चेतना भरता है, असीम ऊर्जा और क्षमतावान बनाता है।
तल्ख और तेवरदार आचार्य राय ने कुछ ऐसी समस्याओं की ओर हमारा ध्यान खींचा है, जो आज से 20 वर्ष पहले भी थीं, आज भी हैं और तब तक रहेंगी जब तक सामंती एवं पूँजीवादी आधारों पर टिकी व्यवस्था खत्म नहीं हो जाती। पूँजी पर टिके हुए किसी समाज में पूँजी आदमी और आदमी के बीच एक बड़ी दीवार के रूप में खड़ी हो जाती है। जिनके पास पैसे हैं, वे दुनिया की हर अच्छाई का वरण कर सकते हैं, वे दुनिया की हर खूबसूरत वस्तु का उपभोग कर सकते हैं, वे देश और दुनिया को अपने इशारे पर नचा सकते हैं और तथाकथित स्वर्ग का सुख इस धरती पर ही हासिल कर सकते हैं। कवि ने कविता में न सिर्फ़ विषमता के जहरीले प्रभाव को ही चित्रित किया है; अपितु उस विद्रोह की ओर भी इशारा किया है जो नौजवानों के दिल और दिमाग में पैदा हो रहा है। यह संकेत करता है कि अब अधिक दिनों तक आर्थिक विषमता कायम नहीं रखी जा सकती।
कविता की भाषा में ताजगी है। प्रवाहमान भाषा और विनोदपूर्ण शैली के साथ ही प्रतीक और यथार्थ के सोने में सुगंध वाले योग के कारण यह रचना काफी आकर्षित करती है। कविता की अलग मुद्रा है और इसे प्रस्तुत करने का अंदाज नया है। रचना को धारदार बनाने के लिए प्रयुक्त भाषिक संयम की अनूठी मिसाल है यह कविता। जहाँ कई वाक्यों की बात कम से कम वाक्यों में कहीं जा सके, कथन स्फीत न होकर संश्लिष्ट हो; वहां भाषिक संयम स्वतः आ जाएगा। इसमें वर्णन और विवरण का आकाश नहीं वरन् विश्लेषण, संकेत और व्यंजना से काम चलाया गया है।
विद्रूपताओं पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य की आवश्यकता पड़ती है और नाव में नदी का डूबना से बढकर अद्भुत व्यंजना क्या हो सकती है!!!
बुधवार, 23 जून 2010
देसिल बयना - 35 : गरीब की जोरू सब की भौजाई
आज चुरमुन्नी देवी को लगा था कि उका पति में भी पौरुष है। उका भी कोई भर्तार है जौन में उका रच्छा करे का कुवत है। बेचारी गदगद हो के भर थाल चूरा-दही परोस कर चौधरी जी के सामने सजा दी। चौधरी जी छक कर भोग लगाए फिर भैंस पर सवार होकर चल दिए चरवाही में।
एक दिन बेरिया [दोपहर] में चौधरी जी कलेऊ कर के बथाने पर लोट-पोट कर रहे थे। चुरमुन्नी देवी वहीं गोबर थाप रही थी। तभिये ढक्कन सेठ के छोटका भाई जिलेबिया बथान पर आ कर बोला, "चौधरी जी ! तम्बाकू खिलाइए।" चौधरी जी कमर में बंधी चिनौटी निकालते हुए बोले, "लो... हमरे लिए भी लगाना।" जिलेबिया हथेली पर तम्बाकू फैला कर बोला, "चूना दीजियेगा... तब न तम्बाकू लगायेंगे ?" चौधरी जी बोले, "ओह ! चूना तुम अपने निकालो... हमरा खाली हो गया है ?"
जिलेबिया बोला, "का खाली हो गया है मरदे ? आपके सामने तो पूरा चूनाभट्ठी बैठी हुई है। भौजी के गाल तो चूना से भी सफ़ेद है। औडर दीजिये तो वही को चुटकी में भर कर चुनिया देते हैं। सफेदी के सफेदी और लवनगर रस भी मिल जाएगा... !"
जिलेबिया का इतना कहना था कि चुरमुन्नी देवी की आँखों की ज्वाला सीधे खखोरन चौधरी पर पड़ीं। चौधारारी जी समझ गए कि महा-प्रलय का शंख-नाद हो गया। उ भी आँख लला कर बोले, "जवान संभाल लो जिलेबिया... वरना... !" जिलेबिया भी तैश में आ गया। फिर दोनों में गुत्थम-गुत्थी हो गया।
चुरमुन्नी देवी कलेजा पिट के और गला फार - फार के भीर को इकट्ठा कर ली तब जा कर दोनों अलग हुए। देख लेंगे... तो देख लेंगे... कि धमकी के बाद जिलेबिया अपने घर का रास्ता पाकर और चौधरी जी और चुरमुन्नी देवी भीर को जिलेबिया के बदतमीजी का तफसील देने लगे।
पहिल सांझ खखोरन झा के दरवाजे पर सरपंच बाबू का बैलगाड़ी आ लगा। उ के साथे ढक्कन सेठ, जिलेबिया, भौकू सिंघ, हिरामन झा और पांच-दस पंच भी थे। आते ही सरपंच बाबू दहारे, "का रे खखोरना... ! तेरा सिंघ निकल आया है का.... ?
"सरपंच बाबू... हम तो.... !" चौधरी इतना ही बोल पाए थे कि सरपंच बाबू फिर दहारे, "का हम तो... ! तोहरी इतनी हिम्मत कि गाँव घर के इज्जतदार लोग पर भी हाथ उठाएगा.... ? ढक्कन सेठ का कितना उधारी रक्खा है... भूल गया का... ? जरा मुँह से मजाक किया तो चाम छिलाता है। इहाँ सुलक्षण गली मोहल्ले में जवान लड़का सब को खराब कर रही है और तू चला है बलजोरी खेलने।
हिरामन ठाकुर, भौकू सिंघ ई सब भी सरपंच बाबू के ताल से ताल मिलाये। बेचारे खखोरन 'दोहाई सरकार की' करते रहे। सरपंच जी फिर पूछे, "ढक्कन सेठ अपना सारा बकाया अभी मांग रहे हैं... फिर अभी मार-पिट के लिए थाना पुलिस बुलायेंगे.... बोलो... का करोगे ? ढक्कन सेठ का बकाया तो था ही चौधरी पर ऊपर से थाना-पुलिस का नाम सुनते ही बेचारे का पैर कांपने लगा।
दोनों हाथ जोड़े गिरगिरा कर बोले, "सरपंच बाबू ! हम गरीब आदमी.... भारी गलती हो गया ! हम सेठ जी दुन्नु भाई से माफी मांगते हैं। कर्जा-बकाया तो जो भी है हम आज न कल अपना देहो बेच के चुका देंगे... आवेश में जिलेबी लाल जी पर हाथ उठ गया... हम अपना अपराध मानते हैं मगर हम कौनो समाज से बाहर नहीं हैं। आप ही लोग निपटारा कर दीजिये। थाना-पुलिस आप समाज से बढ़ कर थोड़े है... आप दस पंच जो सजा दीजिये हमें मंजूर है।"
फिर सेठ जी दुन्नु भाई के साथ थोड़ा खुसुर फुसुर के बाद सरपंच बाबू फैसला सुनाये, "चुकी ई अपराध में सबसे बड़ी दोषी है खखोरन की लुगाई सो उ सब के पैर पकर कर माफी मांगेगी और जब तक उ माफी मांगती है, खखोरन चौधरी दोनों कान पकर कर उठक-बैठक करेंगे। फिर महावीर थान के कमेटी में एक सौ एक रुपया जमा करायेंगे।"
रो-धो कर चौधरी जी दोनों परानी सजा काटने लगे। बेचारी चुरमुन्नी देवी जौन आदमी का कभी मुँह नहीं देखी उ का भी पैर पकर रही है। उ के सामने ही उ का पति-परमेश्वर कान पकर कर उठ-बैठ रहा है। आखिर में जिसके मुँह से अपशब्द सुनी उ जिलेबिया के पैर भी पकरी तब जा कर सरपंच बाबू खखोरन के उठक-बैठक पर ब्रेक लगाए।
भीड़ छट गयी तो देहरी पर सिर झुकाए बैठे खखोरन का हाथ अपने दोनों हाथों में ले के चुरमुन्नी देवी लगी सिसक-सिसक के रोये। रोते हुए ही बोला, 'हम का माफ़ कर दीजिये... ! हमरे खातिर आपका इतना बेइज्जती हुआ ... !" चुरमुन्नी देवी रोये जा रही थी।
खखोरन बीवी के आंसू पोछ कर बोला, "जाने दो चुरमुन्नी... ! तुम रो मत। अरे गरीब आदमी के पास कौन सा इज्जते होता है जो बेइज्जती होगी.... ? हम ने कहा था न, "गरीब की जोरू सब की भौजाई होती है।"
न जाने आज चुरमुन्नी देवी में कहाँ से इतनी बुद्धिमत्ता आ गयी थी। बोली, "हाँ जी ! आप सही कहते थे, "गरीब की जोरू सब की भौजाई"। सच ही तो है, गरीब अर्थात लाचार, बेवश लोगों की जिन्दगी ही सामर्थ्यवान लोगों की सुख, शौक, जरुरत और विलासिता की पूर्ति के लिए है। समर्थों के अत्याचारों को सहना असहायों का धर्म है, उनके शोषण का शिकार होना ही उनकी नियति है। बड़े लोगों के लिए छोटे लोगों की कीमत उनके मनोरंजन तक ही सीमित है।
हूँ.... ! देखिये, कथा तो थोड़ी लम्बी हो गयी और थोड़ी दुखद भी मगर आप समझे कि नहीं... कि गरीब की जोरू सब की भौजाई होती है .... ? जो भी हो टिपण्णी कर के बताइयेगा !!!
मंगलवार, 22 जून 2010
… बस मेरा है!!!
बस मेरा है!!!
सन्तुष्टता और खुशी साथ-साथ रहते हैं। हम जो हमें मिला है उससे कितने संतुष्ट रहते हैं? यह बात निर्विवाद सत्य है कि संतुष्टि ही हमें सच्ची प्रसन्नता देती है। जीवन एक नाटक है। यदि हम इसके कथानक को समझ लें तो सदैव प्रसन्न रह सकते हैं। सभी परिस्थितियों में सन्तुलन बनाये रखना प्रसन्नता की चाबी है। दु:खों से भरी इस दुनिया में वास्तविक सम्पत्ति धन नहीं, संतुष्टता है। यदि मैं एक क्षण खुश रहता हूँ तो इससे मेरे अगले क्षण में भी खुश होने की सम्भावना बढ़ जाती है। फिर क्यों हम इस जगत की आपाधापी में फंसे पड़े हैं? अपनी इन्द्रियों पर सम्पूर्ण नियन्त्रण ही सच्ची विजय है। ईमानदार व्यक्ति स्वयं से स्वयं भी संतुष्ट रहता है तथा दूसरे भी उससे सन्तुष्ट रहते हैं। यदि हमें हमारे ही अन्दर शान्ति नहीं मिल पाती तो भला इस विश्व में उसे कहीं और कैसे पा सकते हैं? मन की शान्ति के बिना क्या खुशी सम्भव है? शांति को बाहर खोजना व्यर्थ है क्योंकि वह हमारे गले में पहना हुआ हार है।
प्रस्तुत है एक कविता।
बस मेरा है!!!
सोमवार, 21 जून 2010
मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें!!
मेरे छाता की यात्रा कथाऔरसौ जोड़ी घूरती आंखें!! |
--- --- मनोज कुमार
(भाग-२)
पिछले भाग में आपने मेरे छाता की यात्रा कथा के तहत उसके साथ बरसात का एक दिन बिताया। आपको याद दिला दूं आप मेरे साथ यहां थे ---- (लींक नीचे है)
काफी दूर पैदल चलने के बाद मुझे ख्याल आया कि मेरे हाथ में छाता है और मैं भींग रहा हूँ। पर मन के अंदर चल रहे ताप के कारण वर्षा की बूंदे काफी अच्छी लग रही थी। उस पल जिस रस में भीग रहा था, उसके कारण वर्षा में भींगना ज्यादा खुशनुमा था। पहले मेरा हाथ छाता की हैंडल पर गया उसे खोलने के लिए ... पर भींगना ही ज्यादा रूचिकर लगा।
उसके हैंडल पर हाथ मेरा टिका रहा। मुट्ठियां भिंच गई। अब मैं वही अनुभूति और आनंद महसूस कर रहा था जब उसे खरीदा था। मेरे मन मस्तिष्क पर चलचित्र की भांति उस दिन का वाकया घूम गया। अगर वह वाकया न हुआ होता तो शायद आज भी मेरे हाथ में यह छाता न होता।
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कॉलेज के शुरुआती दिन थे। जेठ की तपती दोपहरी में सिर पर छाता न हो तो चारो धाम की यात्रा हो जाती है, खासकर पैदल चलते वक़्त। पर नया-नया कॉलेज का विद्यार्थी बना था, और तब के फैशन में छात्रों द्वारा छाता रखना शुमार न था, इसलिए कभी इसकी जरूरत नहीं महसूस की। कॉलेज के कुछ महीने बीतते-बीतते सावन आ गया। बादल और वर्षा मेरे घर से महाविद्यालय की यात्रा में कुलांचे भरने लगे थे।
उस दिन पी.के. की क्लास थी। निराला पढ़ाते वक्त वो ऐसा सजीव वर्णन करते थे कि लगता था निराला स्वयं मंच से बादल राग का पाठ कर रहे हो। क्लास छूट न जाए इसलिए चाल में तेजी थी। पर क्षण भर बाद ही वर्षा की तेज धार ने ऐसा रूप दिखाया कि फुटपाथ पर एक छज्जे के नीचे शरण लेना पड़ा। ढ़ेर सारे लोग पहले से ही वहां शरण ले चुके थे। एक कोने में आधा भींगता आधा बचता मैं भी खड़ा हो गया। चंद लम्हें ही बीते होंगे कि एक नवयुवती का वर्षा का फुहार से भी तेज गति से वहां प्रवेश हुआ। वहां मौज़ूद हर कोई उसे अपने और बगल वाले के मध्य जगह खाली कर शरण देने को तैयार था। पर उसे किनारे में ही रूचि थी और मजबूरन मुझे और पीछे होना पड़ा। सावन की फुहार और सामने मृगनयनी कभी बादल और कभी वर्षा की बूंदे देखती हो तो मन मयूर तो नाचेगा ही। मेरा भी।
उसे देख कर लगा कि उसे कहीं देखा है। शायद वह कला संकाय की थी। और हम थे विज्ञान के छात्र। पर हिंदी (MIL Modern Indian Language) की क्लास साथ होती थी। अब सौ से भी अधिक विशाल छात्र-छात्राओं के समूह में मुझ अकिंचन का यह सौभाग्य कहां कि उस उर्वशी का सनिन्धय प्राप्त हो। पर आज इन्द्र देवता मुझपर कृपा कर रहे थे। स्वयं उर्वशी को अपनी सभा से मेरे सामने प्रकट कर दिया।
उसके चेहरे पर कुछ उद्घिग्नता कुछ परेशानी के भाव थे। वह रूपसी कभी घड़ी और कभी न रूकने वाली बूंदो को निहार रही थी। कुछ तलाशने का भाव लिए इधर-उधर देखती उस चंद्रमुखी की आंखें मेरी उपस्थिति को भी टटोल गई। शायद मुझे देख उसे लगा कि महाविद्यालय का सहपाठी हो सकता है – “बोली पांच मिनट बचे हैं। छाता होता तो क्लास नहीं छूटती।”
“हे भगवान ! पृथ्वी का सबसे बड़ा अपराधी मैं हूँ जो आज तक छाता नहीं खरीदा!! नहीं तो आज इस
अप्सरा का क्लास छूटने से मैं बचा सकता था !” मैंने मन-ही-मन सोचा।
तभी सड़क पर सामने से एक छात्र जो उसके साथ मेरा भी सहपाठी था, छाता लिए जा रहा था। गौरवर्णा उस कन्या के नयन सहसा उसे देख हर्षित हुए और बोली, “रोहन मुझे भी ले चलो।”
रोहन और वह चल दिए। वहां मौज़ूद सौ जोड़ी आंखे उन दोनों को जाते और ठगा सा खड़ा मुझ बदनसीब को घूरती रही। किसी अनजानी शक्ति के वशीभूत मैं कुछ देर तक वर्षा में भीगता उनका पीछा करता रहा पर कॉलेज गेट की तरफ मुड़ने के बजाय आगे बढ़ गया इस प्रण से कि अब तो छाता खरीद ही लूंगा। आज अगर छाता मेरा पास होता तो रोहन की जगह मैं होता और मेरे साथ होती उर्वशी।
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धर्मतल्ला की सड़कों पर बारिश में भींगते भींगते मेरा हाथ छाता की मूठ पर कसता चला गया।
मेरे छाता की यात्रा कथा काफी लंबी है पर इसके हर पड़ाव पर मैंने सौ जोड़ी आंखो को मुझे घूरता पाया है।