सोमवार, 30 नवंबर 2009

मातृसुख

-- हरीश प्रकाश गुप्त

आज रामकैलाश फिर ड्यूटी नहीं आया । उसका एक-एक दिन ड्यूटी न आना मेरे अन्दर उफन रहे क्रोध के आवेग को और अधिक भड़काए जा रहा था । अट्ठाइस साल की मेरी बेदाग नौकरी में यह पहला दुर्योग था जब मेरे बॉस ने मुझे लापरवाह और नाकारा जैसे विशेषणों से विभूषित किया था और वह भी बड़े रूखे और अफसरिया लहजे में । मेरे स्वाभिमान और अंतस को जो गहरी ठेस लगी वह अनायास नहीं थी । मैंने कभी किसी को अवसर नहीं दिया था कि वह मुझसे असम्मानजक भाषा में संवाद करे । पर आज, अपने अधीन काम करने वाले एक वर्कर के कारण जो शर्मिंदगी उठी पड़ी उससे मैं अपने ही आप अन्दर ही अन्दर गड़ता चला जा रहा हूँ ।

रामकैलाश ने मेरे शब्दों की कभी भी अवहेलना नहीं की और हमेशा मेरी अपेक्षाओं से आगे बढ़कर ही साकार करता रहा है । इसी वजह से मैंने उस पर भरोसा किया और एक दिन पहले, शनिवार को, उसे जरूरी काम समझाकर अगले दिन ओवरटाइम पर आने के लिए उसकी डूयटी लगा दी । काम उसे ही करना था, सो मैं नहीं आया । फैक्टरी में और लोग तो आने ही थे । पर रामकैलाश उस दिन ड्यूटी नहीं आया ।

रामकैलाश आज आया है, पूरे एक सप्ताह बाद और मेरे सामने खड़ा है प्रफुल्लित और प्रसन्नचित्त । अपराधबोध और किसी संशय का दूर-दूर तक संकेत नहीं है । इससे पहले कि मेरा गुस्सा उस पर फट पड़ता, वह सहज सरस वाणी में स्थानिक स्वर में चित्रपट-से व्यक्त किए चला जा रहा था "का बतावें साहेब, माताराम आए गई रहैं । बहुत दिनन मां आई रहैं, तऊ टेशन से पैदरै चली आई। हम उनके गोड़-मूड़ मींज दिहेन । जौ उनका आराम भवा तो नहाएन- धोएन । हमसे सब्जी मंगाएन । दाल, चाउर, सब्जी, रोटी पकाएन । फिर हम दोनों जने खाएन । इतना नीक लाग साहेब कि हम तुमका का बताई । हफ्ता भर हम उनका खूब घुमाएन अउर रात मा फिर गोड़-मूड़ दबाएन । साहेब उनकी सेवा करिके हमार कलेजा खुश हुई गवा । तबई हम ड्यूटी न आ पाए रहेन ।.....अब जल्दी से काम बताव, हम कई डारी ।"

सहज अभिव्यक्ति ने अतिताप को द्रवीभूत कर दिया था । मेरे सामने रामकैलाश का भोलापन और उसकी सदाशय सरलता है जो अधेड़ उम्र के पड़ाव पर भी ममता की छाया में लोकत्रय के सुख की अनुभूति से सराबोर है । अपनी माँ के गोड़-मूड़ दबाना व्यक्त करते करते उसकी आँखों में चमक उभर आती है और तनकर रक्ताभ हो आ पेशियाँ असीम तृप्ति का उल्लास प्रकट करती हैं । सीमित आकांक्षाओं के बीच उसकी प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं और यह उसके मस्तिष्क से नहीं वरन् उसके हृदय की एक-एक कोशिका से अभिव्यक्त है । उसे सरकारी ड्यूटी का महत्व अधिक नहीं है, न ही इसका कि मेरी पोजीशन का क्या होगा और मुझे किन असहज स्थितियों से गुजरना पड़ा होगा ।

जब कभी मैं अपने काम से थोड़ा मुक्त होता हूँ बॉस की वह रोषपूर्ण मुद्रा और अशालीन वाणी हर बार मेरी स्मृति में आती है, फिर रामकैलाश की सर्वसुख-सन्तृप्त आकृति और इन दोनों संभ्रमों के बीच मेरी पीड़ा का आहत नाद विलीन- सा होता चला जाता है ।

***

काव्यशास्त्र

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रविवार, 29 नवंबर 2009

नाजुकी लव की क्या कहिये


"मीर इन नीम बाज आँखों की सारी मस्ती शराब की सी है !
नाजुकी लव की क्या कहिये, पंखुरी एक गुलाब की सी है !!"


शायरों और कवियों की कोमल कल्पनाओं के सहज पात्र 'अरुण-अधर', केवल सौन्दर्यबोधक ही नहीं हैं। ये कोमल, प्रत्यास्थ, प्रेक्षनीय अधर वस्तुतः हमारी शारीरिक क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भोजन ग्रहण करने, सर्दी-गर्मी का अहसास कराने से ले कर हंसने-बोलने तक में, होठों की भूमिका अनिवार्य है। जरा सोचिये कि 'ये भींगे होंठ तेरे....' नहीं होते तो 'प्यासा दिल मेरा...' क्या करता? वस्तुतः प्रेम का प्रतीक अधर-चुम्बन भावनात्मक संबंधों को और अधिक मजबूती देता है। यदि ये नहीं होते तो प्यार के बोल एवं सौन्दर्य का मोल कहाँ से आते ?

होंठ बयान करते हैं आपका मूड !
दरअसल होंठों की स्थिति आपकी प्रकृति और मनःस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। आँखों के समान आपके होंठों में भी राज खोलने की काबिलियत होती है। अब देखिये, मीर साहब कहते हैं, कि होंठ गुलाब की पंखुरी सी है, तो कई और कवि इसे लाल कमल की पंखुरी कहते हैं, लेकिन आज तक होंठों की उपमा किसी भी कवि ने चाँद से नहीं की। जबकि आपके होंठ एक दिन में ही कई बार चाँद से नजर आते हैं। लेकिन संभल के इस चाँद का मुंह सीधा है बोले तो ऊपर की ओर खुल रहा है तब तो ठीक है, मतलब आप ख़ुशी में हैं। मुस्करा रहे हैं। लेकिन कहीं आपके होठों के चाँद का मुंह लटक गया मतलब नीचे की ओर खुल रहा है तो मामला गड़बड़ है। यह आपके दुःख या तनावग्रस्त होने का द्योतक है। अगर आप किसी रहस्य को सुलझा रहे हैं तो अनायास ही आपके होंठ ग्रहण ग्रसित पूर्ण चन्द्र के बलय की तरह गोल हो जाते हैं। जबकि होंठो का सूखना एवं बार-बार उन्हें चाटना आपकी चिंता एवं घबराहट को दर्शाता है। लियो नारदो दा विन्ची की अमर कृति 'मोनालिसा' की अभिव्यक्ति लाखों कला-प्रेमियों को सदियों से दीवाना बनाती आ रही है। आखिर माजरा क्या है जो कोई भी पारखी अभी तक मोनालिसा की अभिव्यक्ति को परिभाषित नहीं कर पाया। हकीकतन जब आप मोनालिसा की पृष्ठभूमि तथा अंग-विन्यास पर नजर डालते हैं तो उसमे खुशी की झलक मिलती है परन्तु मुस्कराहट रहित नीचे झुके होंठ आपकी अवधारणा को तुरत बदल देते हैं। सदियाँ गुजर गयी लेकिन लियो नारदो द्वारा बनाया गया होंठो का यह रहस्य आज भी न केवल कायम है बल्कि सौन्दर्य-प्रेमियों के सर चढ़ कर बोल रहा है।
ये होंठ हैं या अंगारे ?
वस्तुतः शरीर के अन्य अंगो की अपेक्षा होंठों की त्वचा बहुत ही पतली होती है। अतः त्वचा के नीचे मौजूद रक्तबाहिकाओं के कारण होठों का रंग अन्य अंगो की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही लाल होता है। कुछ लोग जिनकी त्वचा बहुत ज्यादा सफ़ेद होती है, उनके होंठ सामान्य से अधिक लाल दिखाई देते हैं। आपको पाता है इसका कारण 'मेलानोसाईट' नाम की एक विशेष कोशिका है।
क्या कहते हैं होंठों के रंग?
लाल-गुलाबी होंठ तो सामान्य आकर्षण का केंद्र होते हैं लेकिन होंठों के अलग-अलग रंग कुछ अलग संकेत भी करते हैं।
  • आईला.. आपके होंठ सफ़ेद पड़ रहे हैं ?? अरे हजूर ! जाइए अपने रक्त में 'हेमोग्लोबिन' की मात्र की जांच करवाइए। हो सकता है आपके शारीर मे रक्त की कमी हो।
  • होंठ पीले पड़ रहे हैं ?? सावधान !!! होंठों पे छाले या किसी अन्य चर्मरोग की संभावना है।
  • काले होंठ चुगली करते हैं आपके धुम्रपान की आदत का।कुछ भी हो लेकिन होंठ नीले न पड़े.... अरे ! यह विषाक्तता या सर्दी लगने का लक्षण है।
ये सूखे होंठ तेरे...
उफ़ ओह ! सर्दी आ गयी। सूखे होंठ... का जुमला आम हो गया। लेकिन क्यूँ ? अरे भाई! हमारे शरीर के अन्य अंगों की त्वचा के नीचे स्वेद ग्रंथियां होती हैं, जिनसे पसीना आता है और त्वचा की नमी बनी रहती है। लेकिन बालविहीन होंठों के त्वचा के नीचे स्वेद-ग्रंथियां नहीं होती हैं। यही वजह है कि अन्य अंगों के मुकाबले होंठ जल्दी सूखने लगते हैं। ख़ास कर मौसम खुश्क हो तो और भी ज्यादा... जैसे कि शरद ऋतु में। भींगे-भींगे से गुलाबी होंठ जितने आकर्षक होते हैं, सूखे होंठ उतने ही अनाकर्षक और पीड़ादाई भी। विशेष कर जब आपको मुस्कराना पड़े।

ऐसे सँवारे होंठों को
  • अधिक पानी पीयें।
  • सर्दियों में होंठो की नमी बरकरार रखने के लिए 'जैली' लगाएं।
  • होठों को काटना, चाटना, चूसना बंद करें।
  • लिपिस्टिक के प्रयोग मे सावधानी बरतें।
  • गहरे रंगत वाली चेहरों के लिए हलके रंग की लिपिस्टिक ही मुफीद है।
  • रंगत साफ़ है तो कोई भी लिपिस्टिक फबेगा।
  • लिप-लाइनर का इस्तेमाल सूरज से दहकते होंठो पर चार चाँद लगा देता है।
  • होंठ बहुत पतले हों तो लिप-लाइनर न लगाना ही बेहतर।

हिंदी फ़िल्मी गीतों में होंठ
  • छू लेने दो नाज़ुक होंठो को....
  • होंठों से छू कर तुम.....
  • लाल-लाल होंठों पे गोरी किसका नाम है....
  • ये भींगे होंठ तेरे....
  • तेरे लिए हम हैं जिए, होंठों को सीये....
  • होंठो पे ऐसी बात मैं दबा के चली आयी...
  • आप जो मेरे मीत न होते, होंठों पे मेरे गीत न होते...
  • हांथो में चाबुक होंठों पे गालियाँ...
  • होंठो पे सच्चाई रहती है, जहां दिल मे अच्छाई रहती है....
  • तेरे होठों के दो फूल प्यारे-प्यारे....
  • ये होंठ क्या हैं गुलाबी कमल हैं....
  • माथे पे सिंदूरी सूरज, होंठों पे दहकते अंगारे......

शनिवार, 28 नवंबर 2009

बिहारी समझ बैठा है क्या ?

-- मनोज कुमार
आजकल मैं सभ्य दिखने लगा हूँ। असभ्य तो मैं पहले भी नहीं था, पर दिखता नहीं था। अब दिखता हूँ इसका अहसास मुझे अपनी पिछली दिल्ली यात्रा पर हुआ। दिल्ली विमान पत्तन से पूर्व भुगतान टैक्सी में सवार हो जब साउथ ब्लाक के लिए चला तो एक लाल सिग्नल पर टैक्सी को कुछ देर के लिए ठहरना पड़ा। एक सामान बेचने वाला टैक्सी के पास आया तो टैक्सी ड्राइवर ने बेची जा रही वस्तु का दाम पूछा। विक्रेता ने डेढ़ सौ कहा। इस पर टैक्सी चालक का जुमला था – “चल बे,..जा। बिहारी समझ बैठा है क्या? 40 की चीज को एक सौ पचास बोलता है।मुझे लगा कि टैक्सी चालक पिछली सीट पर बैठे सवारी को बिहारी नहीं मान रहा है। शायद सभ्य मान रहा है , और जो सभ्य है वह बिहार का नहीं हो सकता !

सरकार की नौकरी में नागपुर, हैदराबाद, चंडीगढ़ के रास्ते कोलकाता पहुँच गया हूँ। अन्य प्रांतों में सरकारी दौरों के कारण आना-जाना लगा ही रहता है। विभिन्न प्रांतों के रहन सहन, रीति-रिवाज, तौर-तरीक़े सीखने-अपनाने की मेरी आदत से, हो सकता है अपना बिहारीनेस दूर हो गया हो।
इसी संदर्भ में आज मुझे चंडीगढ़ का एक वाकया याद रहा है। एक दिन मेरा लड़का स्कूल नहीं जाने की जिद पर अड़ गया। मैंने कारण जानना चाहा तो बोला- “सब मुझे बिहारी कहते हैं। मैं नहीं जाऊँगा।मैंने कहा, “हम बिहार के हैं इसलिए कहते हैं।किसी तरह उसे समझा बुझा कर स्कूल भेजा। वह मेरी सर्विस में जाने के साथ-साथ बिहार के बाहर ही पला-बढ़ा इसी लिए उसे इस बिहारीपने का महत्व मालूम हो। पर मुझे कोई – “इस् स्साला बिहारी !” कहता है तो मैं बुरा नहीं मानता। उस वक्त मैं माननीय डा० राजेन्द्र प्रसाद से लेकर रामधारी सिंह दिनकर तक को याद कर लेता हूँ। मेरा सीना गर्व में फूल जाता है। और सोचता हूँ जिस बुद्ध को बिहार की धरती पर ज्ञान मिला वो थोड़ा इसे भी ज्ञान दे देते। जब शांति अहिंसा की बात चलती है तो सम्राट अशोक को याद कर लेता हूँ। पौरुष और पराक्रम की बात चलती है तो चन्द्रगुप्त को याद कर लेता हूँ। शिक्षा की बात चलती है, तो नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की याद जाती है। कवियों की बात चलती है तो विद्यापति के प्रति श्रद्धा सुमन बिखेर देता हूँ, हां बाबा नागार्जुन को भी। जब नारियों के प्रति सम्मान और प्रतीक को याद करता हूँ तो सीता मां के आगे नतमस्तक हो जाता हूँ। जब पेंटिंग का जिक्र चलता है तो मिथिला पेंटिंग को मन में रख लेता हूं। जब भाषाओं की बात चलती है तो मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका, वज्जिका, उर्दू, .. और तो और .. प्राकृत, पाली अप्रभंश उन दिनों की, .... और हिंदी, .. आज की , एक ही प्रांत में इतनी भाषाएं, याद कर लेता हूँ। फेहरिश्त लंबी है। आपका वक्त जाया नहीं करूँगा। कुछ आप भी याद कर लें। पर जो मैं गिना रहा हूँ क्या वो केवल बिहार और बिहारियों का ही है। शायद नहीं। ये पूरे हिंदुस्तान के तो हैं ही। शायद विश्व के भी हों।
कुछ खास बैठकों-सभाओं में जब मैं कण्ठ लंगोट पहन कर जाता हूँ तो लगता है फिर से पराधीन भारत में गया हूँ। वहां लोगों की आंग्ल भाषा की औपचारिकता के शहद में डूबो-डूबो कर तीखे शब्द मुझे रास नहीं आते। ऐसी सभ्यता उन्हें ही मुबारक।आपसे मिलकर खुशी हुईवाली औपचारिक मुद्रा में हम नहीं दिखते, इसमें हमें विश्वास नहीं, हम तो गलबहिया डालकर बातें करते हैं। हम बिहारी तो जब किसी अनजान से भी मिलते हैं तो हमारे चेहरे पर जिज्ञासा का नहीं स्वागत का भाव होता है, माने-या--मानें, यह सच है।
हम तो उन्मुक्त उड़ान चाहते हैं
गा लेते हैं जहां दिल में सफाई रहती है होठों पर सच्चाई रहती है ... हर फिक्र ... को उड़ा देते हैं और कहते हैं “तो क्या हुआ यदि हम गणेश को गनेस, सड़क को सरक और शादी को सादी कहते हैं। तब हम कुछ लोगों को विचार करने का अवसर तो दे ही देते हैं
कि ,, और , ड़ और , और क्यों? एक से काम नहीं चल सकता क्या? ”
बिहारी भी तो अब तीन तरह के हो गए हैं। नहीं-नहीं दो ही तरह के। एक तो वो जो बिहार में ही हैं और दूसरा वो जो कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण रोजगार की तलाश में बाहर गए। कुछ ऐसे बिहारी जिन्होंने अच्छा पद पा लिया, पैसे कमा लिये, अंग्रेजी सीख ली वे दिल्ली के टैक्सी चालकों की नजरों में बिहारी थोड़े ही हैं। वे अगर किसी को यह बताते हैं किमैं बिहार से हूँतो सामने वालाकोई मिल गयाकेजादूकी तरह उसे देखेंगे और एक बड़ा साअच्छा” ... बोलेंगे, फिर कहेंगें –“लगते तो नहीं।
पर बात यहां बिहारी होने की नहीं है। बिहारी बुलाए जाने की है।बिहारीबुलाने का मतलब दीन-हीन, अज्ञानी, कुबुद्धि, हाय हैलो हाऊ डू-यू-डू से दूर, कैट टाइप का नहीं होना से है। इसे तो विशेषण के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है। किसी भी प्रांत में रिक्शा चलानेवाला, रेहड़ी लगानेवाला, आइसक्रीम बेचनेवाला, ठेला खींचनेवाला, कुली, बोझा उठाने वाला खेत में मजदूरी करनेवाला बिहारी है। यानी गरीब है। उसकी शालीनता कायरता है और वह लिट्टी चोखा से ऊपर उठ ही नहीं सकता। सत्तू से ज़्यादा पा नहीं सकता। वह हाशिए पर हैऔर रहेगा। ऐसा माना जाता है।
क्या बिहारी होना अभिशाप है ? बड़े यत्न से कई बिहारी को बोल तो लेते हैं, और बिहार के बाहर कीशोशाइटीमें बिहार केबैकवार्डनेसको कोसते भी रहते हैं। जैसे पैर में गोबर लग जाए और आपने गंगा नहा लिया तो सारा कलंक धुल गया। पर बिहारी अगर भाषा का इस्तेमाल फूहर ढंग से करते हैं औरस्कूलके बजायइसकुलजाते हैं, वहां की लडकियांफराकपहिन करसरकपर चलती हैं और उनका माथाठनकतीहै यह देखकर किटरेनछूटगयातो कुछ लोग अपनानॉलेजबघाड़ कर उनका ज्ञानचैककर अपनाकैसमजबूत कर लेते हैं। छोड़िए इन सब का क्या फायदा। अबअगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजोकी बात आती है तो बिहारी पृष्टभूमि का ही सहारा लेना पड़ता है। अब ये मत कहिएगा कि बेटियां पैदा करने वाला यानीबिहारी
हां एक शब्द बिहारी में खूब बोला जाता हैहम अब आप ही बताएंमैंऔरहममें कौन भारी है, .. और कौन बिहारी है।मैं”- “मैंकी रटलगाने वाला याहमकहकर सर झुकाने वाला। हम तो यही जानते हैं कि संघर्ष, संयम और सामूहिकता का नाम बिहारी है।
अब हम बंद करता हूँ। आपहू कुछ सोचें।
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इस लेख से संबंधित आलेख का लिंक जो हिन्दुस्तान में छपा था
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-85013.html