-- हरीश प्रकाश गुप्त
आज रामकैलाश फिर ड्यूटी नहीं आया । उसका एक-एक दिन ड्यूटी न आना मेरे अन्दर उफन रहे क्रोध के आवेग को और अधिक भड़काए जा रहा था । अट्ठाइस साल की मेरी बेदाग नौकरी में यह पहला दुर्योग था जब मेरे बॉस ने मुझे लापरवाह और नाकारा जैसे विशेषणों से विभूषित किया था और वह भी बड़े रूखे और अफसरिया लहजे में । मेरे स्वाभिमान और अंतस को जो गहरी ठेस लगी वह अनायास नहीं थी । मैंने कभी किसी को अवसर नहीं दिया था कि वह मुझसे असम्मानजक भाषा में संवाद करे । पर आज, अपने अधीन काम करने वाले एक वर्कर के कारण जो शर्मिंदगी उठी पड़ी उससे मैं अपने ही आप अन्दर ही अन्दर गड़ता चला जा रहा हूँ ।
रामकैलाश ने मेरे शब्दों की कभी भी अवहेलना नहीं की और हमेशा मेरी अपेक्षाओं से आगे बढ़कर ही साकार करता रहा है । इसी वजह से मैंने उस पर भरोसा किया और एक दिन पहले, शनिवार को, उसे जरूरी काम समझाकर अगले दिन ओवरटाइम पर आने के लिए उसकी डूयटी लगा दी । काम उसे ही करना था, सो मैं नहीं आया । फैक्टरी में और लोग तो आने ही थे । पर रामकैलाश उस दिन ड्यूटी नहीं आया ।
रामकैलाश आज आया है, पूरे एक सप्ताह बाद और मेरे सामने खड़ा है प्रफुल्लित और प्रसन्नचित्त । अपराधबोध और किसी संशय का दूर-दूर तक संकेत नहीं है । इससे पहले कि मेरा गुस्सा उस पर फट पड़ता, वह सहज सरस वाणी में स्थानिक स्वर में चित्रपट-से व्यक्त किए चला जा रहा था "का बतावें साहेब, माताराम आए गई रहैं । बहुत दिनन मां आई रहैं, तऊ टेशन से पैदरै चली आई। हम उनके गोड़-मूड़ मींज दिहेन । जौ उनका आराम भवा तो नहाएन- धोएन । हमसे सब्जी मंगाएन । दाल, चाउर, सब्जी, रोटी पकाएन । फिर हम दोनों जने खाएन । इतना नीक लाग साहेब कि हम तुमका का बताई । हफ्ता भर हम उनका खूब घुमाएन अउर रात मा फिर गोड़-मूड़ दबाएन । साहेब उनकी सेवा करिके हमार कलेजा खुश हुई गवा । तबई हम ड्यूटी न आ पाए रहेन ।.....अब जल्दी से काम बताव, हम कई डारी ।"
सहज अभिव्यक्ति ने अतिताप को द्रवीभूत कर दिया था । मेरे सामने रामकैलाश का भोलापन और उसकी सदाशय सरलता है जो अधेड़ उम्र के पड़ाव पर भी ममता की छाया में लोकत्रय के सुख की अनुभूति से सराबोर है । अपनी माँ के गोड़-मूड़ दबाना व्यक्त करते – करते उसकी आँखों में चमक उभर आती है और तनकर रक्ताभ हो आ पेशियाँ असीम तृप्ति का उल्लास प्रकट करती हैं । सीमित आकांक्षाओं के बीच उसकी प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं और यह उसके मस्तिष्क से नहीं वरन् उसके हृदय की एक-एक कोशिका से अभिव्यक्त है । उसे सरकारी ड्यूटी का महत्व अधिक नहीं है, न ही इसका कि मेरी पोजीशन का क्या होगा और मुझे किन असहज स्थितियों से गुजरना पड़ा होगा ।
जब कभी मैं अपने काम से थोड़ा मुक्त होता हूँ बॉस की वह रोषपूर्ण मुद्रा और अशालीन वाणी हर बार मेरी स्मृति में आती है, फिर रामकैलाश की सर्वसुख-सन्तृप्त आकृति और इन दोनों संभ्रमों के बीच मेरी पीड़ा का आहत नाद विलीन- सा होता चला जाता है ।
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