शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

त्यागपत्र भाग-२

पिछले सप्ताह आपने पढ़ा --- सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अभियंता बांके बिहारी सिंह की इच्छा थी कि एक पढ़ी लिखी लड़की से उसकी शादी हो। उसके पिता ठाकुर बचन सिंह ने जब राघोपुर के गोवर्धन बाबू की कन्या रामदुलारी के बारे में सुना तो उसे अपने घर की बहू बनाने के लिए लालायित हो गए। रामदुलारी ने जब महाविद्यालय में पढ़ाई करने का मन बनाया तो घर के सदस्यों की राय उसकी इच्छा के विपरित थी। ... अब आगे पढ़िए ....

सुषमा संपन्न तिरहुत का हरा-भरा गाँव, राघोपुर। कल-कल, छल-छल बहती हुई गंडक नदी से महज कोस भर पक्की सड़क की दूरी। गाँव की छटा निराली है। दूरतक पसरी हुई शस्य श्यामला धरती, ज्यादा तर कच्चे घरों के बीच एकाध पक्के मकान और दो हवेली। तिरछी, टेढी, संकड़ी और कहीं कहीं थोड़ी चौरी कच्ची सड़कें। सड़कों पर बैलगाड़ी के बैलों के गले की घुंघुरू की आवाज़ पर दौराते बच्चे और सडकों के किनारे हाथ मे लकुटिया लिए भैंस चराते अहीर। सांझ को फूस और भीत के घर के छप्परों से उठने वाला धुंआ खिलहा चौरी मे दाना चुग रहे परिंदों को मानो नीड़ वापसी का संदेश दे रहा हो। गाँव में एक विशाल पोखड़ है, पोखड़ के किनारे घने बरगद का पेड़, पेड़ से पोखड़ में छपाछप कूदते किशोर, मवेशिओं को नहलाते किसान और पल्लू को दांतों मे दबाये घुटने भर पानी मे अधपरे पाट पर पटक-पटक कर कपड़े धोती रजक कन्याएं, गाँव के सौहार्द्र और समरसता के प्रतीक हैं । इसी पोखड़ के दूसरे छोर पर महादेव का मंदिर है और मंदिर के पास ही गोवर्धन बाबू का मकान।
बांस के फट्ठे से बने मेहरावदार गेट से घिरी दो-दो अटारियों वाली हवेली, बिना पूछे ही संपन्नता की कहानी कह देती है। गोवर्धन बाबू की बेटी रामदुलारी शांत, सुशील, भोर के पवित्र धूप की तरह है। चौड़ा माथा, लम्बा मुंह, बड़ी-बड़ी आंखें, गोरा रंग, लम्बा कद, घने लम्बे बाल, सुतवा नाक, पतले ओठ, और उसकी वाणी में मिठास है। वह वाचाल तो नहीं है, पर चुनिंदा दोस्तों के बीच एक खिलंदरपने के साथ हंसी-ठिठोली करना उसके स्वभाव में है। साफ-सुथरे कपड़े पहनना उसे पसंद है, और किसी भी रंग की हो, साड़ी उस पर फबती खूब है। भीतर से वह सहृदय और कोमल स्वभाव की है।
जब दसवीं का परिणाम आया तो रामदुलारी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुई थी। उस गांव के विद्यालय में तो किसी का भी अंक उसके बराबर नहीं था, शायद ज़िले स्तर पर भी उसका अच्छा स्थान रहा हो। पर मैय्या को उसके परिणाम से क्या लेना-देना ? मैय्या ने तो फरमान ही ज़ारी कर दिया था, "बहुत ज़िद करके इस्कुलिया पढ़ाई पूरी कर ली। अब तुम्हारा बाहर जाना बंद। कल से चूल्ही-चौके में हमारा हाथ बंटाओ। घर-आंगन की लिपाई पुताई करो...।” छोटके चाचा ने भी मैय्या की बातों पर मुहर लगा दी।
रामदुलारी की आकांक्षा थी कि वह खूब पढ़े। इसके लिए तो शहर जाकर आगे की पढ़ाई करनी होगी। मैय्या और बाबू आंगन में चौकी पर बैठे थे। मैय्या बाबू को पंखा झल रही थी। मझले चाचा एक कोने में चाची से वार्तालाप कर रहे थे। रामदुलारी ने शहर जाने का अपना मंतव्य बाबू के सामने स्पष्ट किया। बाबू ने हंसकर अपनी पत्नी को कहा, "सुन रही हो रामदुलारी की मां, ई रामदुलारी शहर जाएगी। वहां जाकर एम.ए-बी.ए. करेगी। इसको पढ़ाई का भूत चढ़ा है।”
मैय्या ने बाबू का सह पाकर अपना निर्णय दे दिया, "लिखना-पढ़ना जान गई न.. हो गया बहुत। अब घर बैठ जाय। अगले लगन में इसकी भी डोली उठ जाएगी। जादे पढ़-लिख लेगी त बीयाहो नहीं होगा इसका। अपन जात-बिरादरी में बराबर का कोई मिलेगा ही नहीं।”
वार्तालाप सुनकर मझले चाचा भी वहीं आ गए। गिरधारी सांवले रंग के, लंबे कद वाले हैं, चेहरा चौखुटा, चौड़ी नाक और चौड़ा मुंह है। रामदुलारी की अगली पढ़ाई के लिए गोवर्धन बाबू और गिरधारी, दोनों ने एकमत से विरोध किया था। गिरधारी भी लगे बाबू-मैय्या की हां-में-हां मिलाने। "दसवीं तक की पढ़ाई पर हमने कुछ नहीं कहा। अब हमारी मान-मर्यादा ताक पर मत रखो। लोग मुंह पर कहें-न-कहें, पीठ पीछे सब लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं।” ऐसे थे उनके विचार।
रामदुलारी अपनी बातें उन्हें समझाने का प्रयत्न कर रही थी। पर कोई मानने, समझने को तैयार नहीं था। उसकी भाव-धारा अवाध गति से बढ़ रही थी। स्वर में रोष भी प्रकट हो रहा था। रोष का शमन कर नहीं पा रही थी। ... रामदुलारी तैश खा गई। झटके से उठकर खड़ी हो गई। चाचा की ओर देखते हुए बोली, "मैं एक मिसाल क़ायम करके रहूंगी। इस गांव की पहली बेटी बनूंगी जिसने विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई हो और शोधप्रबंध लिखा हो।” मैय्या की फटकार पहले सुनाई दी, ”लुत्ती लागे एकर मुंह में, कैसे बकर-बकर करे जा रही है। सबसे बड़का माथा वाली त इहे है। पढ़ लिख के चुल्ही मे लगेगी, मुंहझौंसी !” मां गुस्से में है, स्पष्ट है। उसे जब गुस्सा आता है तो वह दांत पीस-पीस कर सरापती है।
बाबू उसकी ओर ऐसे घूरे जैसे उसने कोई भारी अपराध किया हो और क्रोध से आंखें निकालकर गरजे, "अच्छा बक-बक बंद कर गंवार लड़की। दू अच्छर क्या सीख लिया , लगी बड़ों से मुंह लगाने ! तू कहीं नहीं जाएगी। घर में ही रहेगी।”
आंगन में निस्तब्धता छा गई।


[क्या अपनों ने ही फेर दिया रामदुलारी के सपनों पर पानी....? या कोई और मोड़ लेगी कहानी....?? जानने के लिए पढिये श्रृंखला की अगली कड़ी ! इसी ब्लॉग पर !! अगले हफ्ते !!!]

त्याग पत्र के पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

संचार माध्यमों से हिन्दी का भला या बुरा... ?

--- मनोज कुमार
इक्‍कीसवीं सदी की व्‍यावसायिकता जब हिन्‍दी को केवल शास्‍त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्‍नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने न केवल अपने अस्तित्‍व की रक्षा की, वरण इस घोर व्‍यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्‍पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्‍विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए।

विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है।
आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्‍पादक तरह-तरह से उपभोक्‍ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्‍वपूर्ण हो जाती है। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ में बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्‍त शब्‍दों में पूरी रचनात्‍मकता वाली हिन्दी का ही बाज़ार है। इंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है।

यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि “हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है।” उनका यह मानना है कि “ऐसी हिंदी -- भाषा को फूहड़ और संस्कारच्युत कर रही है। यह अत्यंत दुखद और संकीर्णता से भरी स्थिति है। यह मात्र पान-ठेले के लोगों की समझ में आने वाली भाषा मात्र बन कर रह जाएगी।” जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है।

प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है।
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-- करण समस्तीपुरी
मैं आपसे इत्तेफाक तो रखता हूँ। फिर भी मुझे कुछ कहना है। संचार माध्यमों के विकास के साथ हिन्दी में भी आशातीत विकास हुआ है। आज मूलतः अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में भी हिन्दी बोली और समझी जाती है तो इसमे संचार माध्यमों का योगदान ही है। अन्यथा हिन्दी को सुदृढ़ करने के मिशिनरी प्रयास तो आज भी हिन्दी दिवस, हिन्दी समारोह, हिन्दी संस्थान और राजभाषा विभाग तक ही सीमित हैं। पिछले कुछ दिनों से भारत के एक अहिंदीभाषी महानगर में रहते हुए मैं ये बात व्यवहारिक रूप से कह सकता हूँ। इस चर्चा में मैं इस क्षेत्र की स्थानीय भाषा एवं भाषिक सम्पदा व संस्कृति को पृथक करते हुए उन से इतर कहूँ तो यहाँ अखबार अब भी अंग्रेजी के आते हैं लेकिन घरों में छोटे परदे के कार्यक्रम हिन्दी में ही चलते हैं। 'सास-बहु' ने हिन्दी को 'जुबानी घर-घर की' बना दिया। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मेरी महिला सहकर्मी वहुधा 'बालिका-वधु' में 'कल क्या हुआ'पर चर्चा करती हुई मिल जाती हैं। तीन साल पहले तक कतरे हुए नारियल को 'खुजली वाला कोकोनेट' कहने वाले पिल्लई अब न केवल कामचलाऊ बल्कि हिन्दी के विभिन्न भाव और रस के संवाद भी निपुणता से बोल लेते हैं। इसके लिए जनाब धन्यवाद देते हैं मोबाइल फ़ोन पर आने वाले विज्ञापन कॉल का। यहाँ तक तो संचार माध्यम सच में धन्यवाद के पात्र हैं। हम उनसे 'अज्ञेय' वाली हिन्दी की उम्मीद रखें तो भूल हमारी ही है। हाँ, संचार माध्यमों को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए असाधु भाषा के प्रसार से बचना चाहिए। 'पप्पू कैन'ट डांस तक तो ठीक है लेकिन आगे नही। जहाँ तक 'बाजार की हिन्दी' और 'बाजारू हिन्दी' की बात है तो मैं कहना चाहूँगा 'गुड खाए और गुलगुले से परहेज़'! इस बार चौपाल में इतना ही। धन्यवाद !!!
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बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

देसिल बयना - 3 : जग जीत लियो रे मोरी कानी....

-- करण समस्तीपुरी
हमारे मिथिलांचल में एक कहावत है,
'जग जीत लियो रे मोरी कानी !' हालांकि कहावत का आधा हिस्सा अभी बांकी है लेकिन वो मैं आपको देसिल बयना के इस कड़ी के अंत में कहूँगा। आईये पहले देखें कैसे बनी कहानी...

कमला घाट के एक गाँव में एक लड़की थी। कुलीन। सुशील। किंतु भगवान की माया.... एक दोष था बेचारी में। वो क्या था कि वो कानी थी। बोले तो उसकी एक आँख दबी हुई थी। तरुनाई पार कर के जैसे ही यौवन की देहरी पर पैर रखी, उसके माता-पिता को उसके विवाह की चिंता सालने लगी।

बेटी का ब्याह तो यूँ ही अश्वमेघ यज्ञ के बराबर। युवतियों के सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद माँ-बाप को पता नही कितने पापर बेलने पड़ते हैं। नाकों चने चबाने पड़ते हैं। यह तो कानी ही थी। एक दूसरी कहावत भी है, "कानी की शादी मे इकहत्तर वाधा !"

बेचारी की डोली कैसे उठे। माँ-बाप रिश्तेदार सभी लगभग निराश हो चुके थे। लेकिन पंडित घरजोरे ने दूर तराई के गाँव में एक लड़का ढूंढ ही निकला। सगुण टीका हुआ। फिर निभरोस माँ बाप के द्वार पर बारात भी आई। लड़की के भाइयों ने पालकी से उतार कर दुल्हे को काँधे पर बिठा कर मंडप मे लाया। मंत्राचार, विधि-व्यवहार के बीच सिन्दूर-दान हुआ फिर बारी आई फेरों की। तभी पंडिताइन ने गीत की तान छेड़ी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी...." लोग हक्का बक्का लेकिन बारात में आए चतुरी हजाम को बात भाँपते देर न लगी। उसने तुरत पंडिताइन के सुर में सुर मिलाया। पंडिताइन आलाप रही थी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी !" अगली पंक्ति चतुरी हजाम ने जोड़ी, "वर ठाढ़ होए तो जानी !" अर्थात कन्या कानी है तो पंगु वर जब खड़ा होगा तब सच्चाई पता लगेगी न !!

क्या खूब जोरी मिलाई पंडित घरजोरे ने। कन्या कानी तो वर लंगड़ा। तभी से कहाबत बनी, "जग जीत लियो रे मोरी कानी ! वर ठाढ़ होए तो जानी !!" ये कहावत पंडिताइन सरीखे उन लोगों पे लागू होती है जो हमेशा अपना ही पलड़ा भारी समझते हैं। लेकिन जब उनके नहले पर दहला पड़ता है तब बरबस याद आ जाता है, "जग जीत लियो रे मोरी कानी! वर ठाढ़ होए तो जानी !!"

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

तुम्ही बताओ....

-- करण समस्तीपुरी

इस झूठे चक-मक मे सच का हर्ष कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??
जिन आंखों के मधुर स्वप्न पर,

मैंने किया सहज विश्वास !
आज उन्ही आँखों से कैसे,
बरस रहा निर्मम उपहास !
इस मिथ्या में सपनों का उत्कर्ष कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??

मेरा मूक निवेदन, हाये !
अंश मात्र भी समझ ना पाए !!
जब-जब अधर खुले मेरे,
तुम केवल कल्पित कथा बताये !
संप्रेषण के संकट मे विमर्श कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??

समय और सरिता की धारा,
आगे बढ़ती जाती !
आज सफलता चरण चूमती,
गीत मेरे है गाती !!
किन्तु सफलता में सच्चा संघर्ष कहाँ से लाऊं ?
तुम्ही बताओ बचपन के वो वर्ष कहाँ से लाऊं ??

गांधी और गांधीवाद